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प्रबन्ध के कार्य |Functions of Management in Hindi

प्रबन्ध के कार्य |Functions of Management in Hindi
प्रबन्ध के कार्य |Functions of Management in Hindi

प्रबन्ध के कार्यों का सविस्तार वर्णन कीजिए। 

प्रबन्ध के कार्य (Functions of Management)

(I) प्रमुख कार्य, (II) सहायक कार्य,

(I) प्रमुख कार्य-

प्रबन्ध के मुख्य कार्यों में निम्न शामिल हैं-

(1) नियोजन – नियोजन प्रबन्ध का प्रथम कार्य माना जाता है, जो किसी भी उपक्रम में संतोषप्रद परिणाम प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। नियोजन एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा प्रबन्धक भविष्य के बारे में सोचता है तथा उपक्रम के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनुकूलतम मार्ग का चुनाव करता है। वास्तव में योजना बनाते समय जब प्रबन्धक भावी कार्यक्रम के बारे में गहराई से सोचता है, तो उसे भविष्य में उत्पन्न हो सकने वाले विभिन्न खतरों का आभास होता है, जो योजना के अभाव में शायद ही होता और इस प्रकार प्रबन्धक उन खतरों व कठिनाइयों से बचने के लिए आवश्यक कदम उठाने में समर्थ होता है।

(2) संगठन – प्रबन्ध प्रक्रिया में नियोजन के पश्चात् संगठन का स्थान है, क्योंकि नियोजन के अन्तर्गत निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए श्रम, पूँजी, मशीन, कच्चा माल आदि जुटाने होते हैं। इनका प्रभावपूर्ण उपयोग एक अच्छे संगठन या तन्त्र द्वारा ही सम्भव है। किसी भी उपक्रम में सफलता बहुत कुछ इसी तथ्य पर निर्भर करेगी कि उस उपक्रम की संगठन संरचना योजना लक्ष्यों के अनुरूप की गयी है या नहीं।

(3) नियुक्तियाँ- एक उपक्रम में संगठन संरचना का निर्धारण हो जाने के बाद आवश्यकता होती है, उस संगठन में सृजित विभिन्न पदों (प्रबन्ध संचालक से लेकर सुपरवाइजरों तक) पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्तियाँ हों नियुक्तियों का यह कार्य भी प्रबन्धकीय कार्य है और इसी प्रक्रिया का एक भाग है।

(4) निर्देशन – एक उपक्रम में लक्ष्यों के अनुरूप संगठन, संरचना व आवश्यक नियुक्तियाँ कर लेने के बाद आवश्यकता होती है, कर्मचारियों को दिशा-निर्देश प्रदान करने की, ताकि वे लक्ष्य की ओर बढ़ सके । इस प्रकार निर्देशन प्रबन्धकीय प्रक्रिया के महत्वपूर्ण चरण के रूप में प्रबन्ध का एक प्रमुख कार्य है।

निर्देशन में नेतृत्व भी शामिल है। उच्च प्रबन्ध के अन्तर्गत नेतृत्व क्षमता भी होनी चाहिए, जिसके द्वारा वह अन्य कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त कर सकता है। अच्छा नेतृत्व अपने अधीनस्थों में वफादारी तथा हितों की भावना भर देता है और इस प्रकार उनसे कार्य में पूर्ण सहयोग प्राप्त करता है तथा उद्देश्य प्राप्त करने में सफल होता है।

(5) अभिप्रेरणा – अभिप्रेरणा प्रबन्ध का एक प्रमुख कार्य है। यद्यपि अभिप्रेरणा का कार्य निर्देशन या नेतृत्व का ही एक भाग है, परन्तु अधिकांश प्रबन्धशास्त्री आधुनिक समय में अभिप्रेरणा के महत्व को स्वीकारते हुए इसको प्रबन्ध के पृथक कार्य के रूप में ही प्रदर्शित करते हैं।

प्रत्येक उपक्रम में उत्पादन प्रक्रिया में भौतिक (कच्चा माल, मशीन आदि) तथा मानवीय संसाधनों (श्रम) का उपयोग किया जाता है, परन्तु इन दोनों में भी मानवीय संसाधन ही अधिक महत्वपूर्ण हैं, जो वास्तव में भौतिक संसाधनों का प्रयोग सम्भव बनाते हैं। इसलिए श्रमिकों एवं कर्मचारियों को कार्य के लिए अभिप्रेरित करना प्रबन्धकों की दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य बन जाता है। कुशल निर्देशन या नेतृत्व वही माना जाता है, जो अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के मनोबल को ऊँचा रखकर उन्हें उपक्रम के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अभिप्रेरित कर सके।

(6) सम्प्रेषण या संदेशवाहन – प्रबन्धकीय प्रक्रिया में अभिप्रेरणा के बाद सम्प्रेषण का स्थान है और यह प्रबन्ध का महत्वपूर्ण कार्य है। साधारण बोलचाल की भाषा में सम्प्रेषण का आशय है विचारों व सूचनाओं का संवहन वास्तव में अभिप्रेरणा और सम्प्रेषण एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उचित सम्प्रेषण के अभाव में कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने की प्रत्येक योजना निरर्थक ही सिद्ध होगी। यदि अभिप्रेरणा द्वारा योजनाओं को सफल बनाना है, तो यह आवश्यक है कि उच्च प्रबन्ध द्वारा बनायी गयी योजनाएँ व उनके विचार सही रूप में और शीघ्रता के साथ कर्मचारियों तक सम्प्रेषित हों और उनके सम्बन्ध में कर्मचारियों की प्रक्रिया तथा सुझाव उच्च प्रबन्धक तक पहुँचते रहें।

(7) नियन्त्रण- नियन्त्रण प्रबन्धकीय प्रक्रिया का अन्तिम चरण है। नियन्त्रण से आशय ऐसी प्रक्रिया से है, जिसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि कार्य योजनानुसार हो रहा है या नहीं। यदि परिणाम (Results) योजना लक्ष्यों से दूर हैं अर्थात् असन्तोषजनक हैं, तो सुधारात्मक कदम उठाना भी नियन्त्रण का भाग है। उदाहरण के लिए, यदि किसी कम्पनी में उत्पादन की लागत पूर्व निर्धारित लागत से अधिक आ रही है, तो प्रबन्धक का यह दायित्व है कि वह लागत अधिक आने के कारणों का पता लगाये और सुधारात्मक कदम उठाकर लागत को नियन्त्रित करे ।

(8) समन्वय- कुछ प्रबन्धशास्त्री समन्वय को प्रबन्ध का कार्य मानते हैं, तो कुछ अन्य इसे प्रबन्ध का सार (Essence) मानते हैं, परन्तु इसे जो कुछ भी माना जाय, यह अवश्य है कि एक उपक्रम के कुशल संचालन के लिए उपक्रम के विभिन्न विभागों व उप-विभागों के मध्य समन्वय (Co-ordination) किया जाना आवश्यक है। अन्यथा परिणाम असन्तोषजनक होंगे और लक्ष्य प्राप्त कर पाना असम्भव होगा।

समन्वय से आशय सामूहिक प्रयासों की ऐसी अचूक व्यवस्था से है, जिसमें कार्य की एकजुटता रहती है तथा कार्य निर्बाध रूप से संचालित होता रहता है। इसीलिए समन्वय की समस्या अधिकांशतः वृहद् आकार के उपक्रमों में उत्पन्न होती है, जहाँ उपक्रम के विभाग, उपविभाग व शाखाएँ, बड़ी संख्या में पायी जाती हैं और उन सभी के कार्यों में समन्वय स्थापित करना एक जटिल कार्य होता है।

(II) सहायक कार्य-

प्रबन्ध के द्वारा प्रमुख कार्यों के अतिरिक्त भी कुछ कार्य करने होते हैं, जिन्हें निम्न प्रकार से सहायक कार्य कहा जा सकता है-

(1) निर्णयन- प्रबन्धक जो भी कार्य करता है, वह निर्णयन पर आधारित होता है। किसी भी कार्य को करने के लिए अनेक वैकल्पिक साधन हो सकते है, किन्तु उनमें से सर्वोत्तम साधन के चुनाव के लिए ही निर्णय लेना पड़ता है। निर्णय जितना अधिक सही होगा, व्यवसाय उतनी ही अधिक प्रगति करेगा। अनुभव, विवेक और अन्तर्ज्ञान आदि निर्णय करने की परम्परागत विधियाँ हैं तथा क्रियात्मक अनुसन्धान, सांख्यिकीय प्रणालियाँ एवं मॉडल निर्माण निर्णय की आधुनिक विधियाँ हैं।

(2) नवाचार या नव-प्रवर्तन- इसका अर्थ उत्पादन के एक नये डिवीजन, एक नई उत्पादन पद्धति, नई विपणन तकनीक तथा नवीन कार्य से लगाया जाता है। व्यवसाय के विकास के लिये यह आवश्यक है कि परम्परागत तरीकों के बजाय सभी क्षेत्रों में नवीन पद्धतियों का प्रयोग किया जाये। आधुनिक प्रबन्ध ‘लकीर के फकीरों’ का न होकर ‘नयो पद्धति’ के लोगों का है। इस प्रकार नवाचार या नव-प्रवर्तन प्रबन्ध का महत्वपूर्ण कार्य है ।

(3) प्रतिनिधित्व – वर्तमान में प्रबन्ध के इस कार्य को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। इससे हमारा आशय व्यावसायिक संस्था का प्रतिनिधित्व करने से है। ‘प्रबन्ध’ उपक्रम का प्रतिनिधि होता है और इसलिए उसका यह सामाजिक दायित्व हो जाता है कि वह विभिन्न हित रखने वाले पक्षकारों जैसे—कर्मचारी, ऋणदाता, उपभोक्ता, अंशधारी एवं सरकार इत्यादि के सम्मुख संगठन का प्रतिनिधित्व करे ।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध के उपरोक्त कार्यों को अन्तिम नहीं कहा जा सकता है। प्रबन्ध एक गतिशील धारणा है, अतः प्रबन्ध के नित नये कार्यों का उदय होना स्वाभाविक है। इस प्रकार प्रबन्ध की नये परिप्रेक्ष्य में नई कार्यप्रणाली का निर्धारण हो जाता है।

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Anjali Yadav

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