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ज्ञानिक प्रबन्ध से आप क्या समझते हैं ? वैज्ञानिक प्रबन्ध का विकास कब और क्यों हुआ ?

ज्ञानिक प्रबन्ध से आप क्या समझते हैं ? वैज्ञानिक प्रबन्ध का विकास कब और क्यों हुआ ?
ज्ञानिक प्रबन्ध से आप क्या समझते हैं ? वैज्ञानिक प्रबन्ध का विकास कब और क्यों हुआ ?

वैज्ञानिक प्रबन्ध से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Scientific Management? 

वैज्ञानिक प्रबन्ध से आशय (Meanings of Scientific Management)

वैज्ञानिक प्रबन्ध शब्द ‘विज्ञान’ और ‘प्रबन्ध’ के संयुक्त योग से बना है। विज्ञान का आशय ऐसे प्रयोगों से है जो हमारे साधारण ज्ञान में वृद्धि करें तथा प्रबन्ध का आशय ऐसी क्रिया से है जो किसी कार्य को सुव्यवस्थित ढंग से संचालित करने के लिये की जाती है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि किसी कार्य को व्यवस्थित ज्ञान की सहायता से सुव्यवस्थित रूप से चलाना ही वैज्ञानिक प्रबन्ध है ताकि निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हो सके। वैज्ञानिक प्रबन्ध हमें औद्योगिक समस्याओं के समाधान की वैज्ञानिक विधि बताता है। इसकी कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

श्री एफ० डब्ल्यू टेलर के अनुसार, ” वैज्ञानिक प्रबन्ध यह जानने की कला है कि तुम व्यक्तियों से क्या कराना चाहते हो तथा यह देखना कि वे सबसे उचित व सस्ते ढंग से कार्य करते हैं, प्रबन्ध कहलाता है।”

एच० एस० पर्सन के शब्दों में, “वैज्ञानिक प्रबन्ध से तात्पर्य ऐसे संगठन से है जो परम्परा अथवा ऐसी नीतियों, जिनका निर्धारण मनमाने रूप में या गलती करो और सुधारो की विधि के अनुसार हो, की अपेक्षा वैज्ञानिक अन्वेषण एवं विश्लेषण से निकाले गये सिद्धान्तों एवं नियमों पर आधारित हो ।”

शेल्डन के शब्दों में, “वैज्ञानिक प्रबन्ध किसी उद्योग में उसके प्रबन्धकों द्वारा निर्धारित योजना को इस प्रकार चलाना है, जिससे सुविधापूर्वक उसके उद्देश्य की पूर्ति की जा सके।”

मार्शल के अनुसार, “वैज्ञानिक प्रबन्ध बड़े व्यापार के संचालन की एक रीति है, जिससे कर्मचारियों की कार्यक्षमता बढ़ाकर उनके उत्तरदायित्व की सीमा को कम करते हैं तथा उनके साधारण शारीरिक परिश्रम का कुशल अध्ययन करके उनको अनुकूल आदेश देते हैं।”

वैज्ञानिक प्रबन्ध का प्रादुर्भाव व विकास (Evolution and Development of Scientific Management)

वैज्ञानिक प्रबन्ध न कोई अन्वेषण है और न एक स्थायी वस्तु ही। इसमें भी समयानुसार परिवर्तन होते रहते हैं। इसमें परम्परागत प्रणाली का कोई स्थान नहीं हैं। इसमें एकमात्र लक्ष्य श्रम-व्यय को घटाना तथा यन्त्रों को अधिकतम उपयोग करते हुए कार्यक्षमता में वृद्धि करना है, ताकि कम-से-कम उत्पादन-मूल्य में अधिकतम वस्तुओं का उत्पादन हो सके।

इस पद्धति की विचारधारा सर्वप्रथम अमेरिका के श्री एफ. डब्ल्यू. टेलर ने प्रस्तुत की। इसलिए उन्हें इस विचारधारा का प्रवर्तक कहा जाता है। टेलर महोदय ने अपना जीवन सन् 1878 में अमेरिकन गिटबैल स्टील कम्पनी में एक सामान्य श्रमजीवी के रूप में आरम्भ किया, किन्तु क्रमशः प्रगति करते-करते 6 वर्ष के उपरान्त, अर्थात् सन् 1884 में उसी कम्पनी में मुख्य इंजीनियर बन गये। अपने अनुभव से वे इस निर्णय पर पहुँचे कि श्रमिकों की उत्पादन क्षमता बहुत कम है, जिसको बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग अनिवार्य है। सन् 1895 में उन्होंने ‘भागिक दर पद्धति’ (A Piece Rate System) पर एक निबन्ध लिखा, जिसमें उन्होंने श्रमिकों की कार्यक्षमता तथा वेतन की वृद्धि पर प्रकाश डाला। इसके बाद सन् 1903 में उन्होंने ‘दुकान का प्रबन्ध’ (Shop Management) पर निबन्ध लिखा। इसके पश्चात् सन् 1911 में उन्होंने एक निबन्ध ‘वैज्ञानिक प्रबन्ध’ के नाम से प्रकाशित किया। परन्तु सन् 1915 में टेलर की मृत्यु के पश्चात् वैज्ञानिक आन्दोलन धीमा पड़ गया।

सन् 1918 में रूस में लेनिन द्वारा इसको अपनाया गया और यह आदेश प्रसारित किया कि हमको अपने उद्योगों में टेलर के अध्ययन तथा शिक्षा को प्रसारित करना चाहिए तथा उसकी विधिवत् क्रियाओं को पूर्णरूप से अपनाना चाहिए। सन् 1920-30 की विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी ने व्यापारियों एवं उद्योगपतियों की जड़ें हिला दी। सन् 1930 में श्रमिकों के विरोध के कारण इनकी प्रगति में बड़ी बाधा पड़ी। इंग्लैण्ड ने उसको उसी प्रकार से स्वीकार किया। इसके पश्चात् इसको यूरोप के अन्य देशों, एशिया तथा जापान में अपनाया गया। वैज्ञानिक प्रबन्ध के मार्गदर्शकों में सर्वश्री गैण्ट, गिलब्रेथ, एच. एस० पर्सन, एच० इमर्सन, मौरिस, कुक, एच० पी० कैण्डाल, फेयोल आदि विख्यात इंजीनियर तथा विद्वान हैं।

टेलर द्वारा प्रतिपादित 14 सिद्धान्त अथवा वैज्ञानिक प्रबन्ध की विशेषताएँ (लक्षण)

एफ० डब्ल्यू० टेलर ने वैज्ञानिक प्रबन्ध की व्यवस्था हेतु निम्नलिखित 14 सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया-

(1) कार्यानुमान का सिद्धान्त- प्रत्येक कार्य को सम्पन्न करने के पूर्व उसका सही अनुमान लगाया जाना चाहिए क्योंकि इसके अभाव में यह मालूम नहीं किया जा सकता कि कर्मचारी अपनी पूर्ण योग्यतानुसार कार्य कर रहे हैं अथवा नहीं। कार्यानुमान नियोजन (या योजना) विभाग द्वारा लगाया जा सकता है।

(2) सामयिक परीक्षणों का सिद्धान्त- यह सिद्धान्त समय अध्ययन, गति अध्ययन तथा थकान अध्ययन जैसे सामयिक परीक्षणों की आवश्यकता पर बल देता है। बिना प्रयोग के वैज्ञानिक आधार नहीं बन सकता। प्रयोगों द्वारा श्रमजीवियों की विभिन्न क्रियाओं को जाँचा जाता है और उनका विश्लेषण किया जाता है, जिससे उनमें सुधार करने और कार्यक्षमता को बढ़ाने की सम्भावना का ज्ञान हो। श्री टेलर के अनुसार कार्य का ठीक-ठीक अनुमान करने के लिए तीन प्रकार के प्रयोग करने चाहिए।

(i) समय अध्ययन – समय के सम्बन्ध में यह अध्ययन किया जाता है कि श्रमिकों द्वारा दी जाने वाली प्रत्येक प्रकार की क्रिया में कितना समय लगता है। इसके लिए टेलर ने ‘स्टॉप वॉच’ का प्रयोग किया। उसने . समस्त क्रिया को कई भागों में बाँट लिया और फिर प्रत्येक विभाग में लगने वाला समय नोट किया। इस प्रयोग में ऑपरेटर अपनी घड़ी तथा चार्ट लेकर ऐसे स्थान पर बैठता है, जहाँ से वह मजदूरों को देख सके परन्तु मजदूर उसे न देख सकें। आपरेटर प्रत्येक क्रिया में लगने वाले समय को एक चार्ट पर नोट करता जाता है । उदाहरणार्थ, यदि कच्चा लोहा गाड़ी में लादने के समय का अध्ययन करना हो तो इस क्रिया के निम्न भाग किये जा सकते हैं— (i) लोहे को जमीन से उठाने में लगने वाला समय, (ii) लोहे को लेकर गाड़ी तक जाने में लगने वाला समय, (iii) लोहे को गाड़ी में फैकने में लगने वाला समय, और (iv) खाली हाथ वापस आने में लगने वाला समय ।

(ii) गति अध्ययन— किसी कार्य को करने की सर्वश्रेष्ठ रीति का पता लगाना ‘गति अध्ययन’ कहलाता है । प्रत्येक कार्य को करने श्रम कार्य को करने की सर्वश्रेष्ठ गुलाने पड़ते हैं। शरीर का यह हिलाना-डुलाना जितना अधिक होगा, श्रमजीवी को थकान उतनी ही अधिक अनुभव होगी तथा समय भी उतना ही अधिक लगेगा। अतः वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा कम करने की एक ऐसी विधि अपनानी चाहिए, जिससे शरीर में कम-से कम हरकत हो।

(iii) थकान अध्ययन- लगातार काम करने से श्रमजीवी थक जाते हैं और उनकी कार्यक्षमता भी घट जाती है। अतः टेलर ने प्रत्येक क्रिया का सूक्ष्म रूप से अध्ययन करके यह मालूम किया कि उसमें थकान कब और कैसे लगती है तथा इसे कैसे दूर किया जाय। थकान को दो प्रकार से कम किया जा सकता है-प्रथम, काम के बीच आराम की व्यवस्था करके, और दूसरे कार्य-भार की उचित मात्रा का नियन्त्रण करके। इस सम्बन्ध में ठीक-ठीक निर्णय केवल प्रयोग द्वारा प्रत्येक कार्य के सम्बन्ध में किया जा सकता है।

(3) कार्य नियोजन का सिद्धान्त— टेलर के मतानुसार, यह वैज्ञानिक प्रबन्ध का हृदय है। उन्होंने नियोजन हेतु योजना विभाग स्थापित करने पर बल दिया है।

(4) वैज्ञानिक चयन एवं प्रशिक्षण का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनसार व्यक्ति के अनुरूप कार्य तथा कार्य के अनुरूप व्यक्ति का चयन किया जाना चाहिए। “एक अकुशल कर्मचारी सदैव अपने उपकरणों से झगड़ता है” शीर्षक कहावत इस सिद्धान्त के महत्व को दर्शाती हैं।”

(5) कार्यों के वैज्ञानिक विभाजन का सिद्धान्त- इसे सही व्यक्ति को सही कार्य का सिद्धान्त भी कहते हैं।

(6) सामग्री के वैज्ञानिक चयन व उपयोग का सिद्धान्त — इस सिद्धान्त के अनुसार कच्चे माल तथा अन्य सामग्री के लिए पहले से प्रमाप निर्धारित कर लिये जाते हैं तथा उन प्रमापों के आधार पर ही सामग्री का क्रय व उपयोग किया जाता है ।

(7) उन्नत व आधुनिक यन्त्रों व उपकरणों के उपयोग का सिद्धान्त- यह सिद्धान्त वैज्ञानिक यन्त्रीकरण पर बल देता है तथा आधुनिक यन्त्रों व उपकरणों की सामयिक जाँच, निरीक्षण मरम्मत, आदि पर बल देता है।

(8) प्रमापीकरण का सिद्धान्त— प्रमापीकरण के परिणामस्वरूप कार्य का मूल्यांकन निश्चित लक्ष्यों के आधार पर किया जा सकता है एवं लागतों में कमी, किस्म में सुधार तथा कार्यक्षमता में वृद्धि सम्भव होती है।

(9) कुशल लागत लेखा प्रणाली का सिद्धान्त- कुशल लागत लेखा प्रणाली के संचालन हेतु अनुभवी एवं योग्य लागत लेखपाल नियुक्त करने पर भी यह सिद्धान्त बल देता है।

(10) प्रेरणात्मक मजदूरी प्रणाली का सिद्धान्त- टेलर ने विभेदात्मक इकाई मजदूरी पद्धति को अपनाने की बात कही है जिसके अनुसार निर्धारित समयावधि में काम समाप्त करने वाले कर्मचारियों की ऊँची दर से तथा न करने वालों की नींची दर से परितोषण देने की व्यवस्था है।

(11) उत्तम कार्य दशाओं का सिद्धान्त— इसके पालन से संस्था के प्रति कर्मचारियों का लगाव पैदा होता है तथा श्रम प्रबन्ध के मध्य मधुर सम्बन्ध बने रहते हैं।

(12) प्रबन्ध में अपवाद का सिद्धान्त- इसके अनुसार उच्च प्रबन्धकों का ध्यान केवल उन परिस्थितियों की ओर आकृष्ट किया जाना चाहिए जो कि अपवादस्वरूप उत्पन्न हो रही हैं अथवा हो सकती हैं।

(13) मानसिक क्रान्ति का सिद्धान्त – पारस्परिक वैमनस्यता तथा भेदभाव की खाई को पाटना एवं एक, पारस्परिक समझ का निर्माण करना इस सिद्धान्त का सार है। वैज्ञानिक प्रबन्ध की योजना को तब ही सफल बनाया जा सकता है, जबकि श्रमिकों के दृष्टिकोण में और साथ ही मालिकों के दृष्टिकोण में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन होकर सद्भावना बने। तब ही पारस्परिक सहयोग बढ़कर वैज्ञानिक प्रबन्ध का उद्देश्य पूर्ण होगा ।। श्रमिकों को भी समझना चाहिए कि वैज्ञानिक प्रबन्ध की योजना उनके अहित में नहीं है, अपितु इसके फलस्वरूप उनकी कार्यक्षमता बढ़ेगी, वस्तु के उत्पादन व्यय कम होंगे और किस्म सुधरेगी। ऐसा होने से माँग बढ़ेगी और परिणामस्वरूप उनको अधिक रोजगार और अधिक वेतन मिलेगा। मालिकों को भी श्रमिकों के दृष्टिकोण को सर्वदा सामने रखना चाहिए। उनको चाहिए कि श्रमिकों के कष्टों को दूर करने का प्रयत्न करें, उन्हें योजना भली प्रकार समझा दें, उनको पर्याप्त वेतन दे और कार्यक्षमता बढ़ने पर अधिक मजदूरी का भी आश्वासन दें। ऐसे मधुर परिवर्तन को ही मानसिक क्रान्ति की संज्ञा दी जाती है।

(14) क्रियात्मक संगठन का सिद्धान्त- टेलर ने प्रबन्धकीय स्तरों के संगठन में विशिष्टीकरण के सिद्धान्त का विस्तार करने का प्रयास किया था। इसे ‘Eight Boss Scheme’ अथवा ‘Functional Forem on ship’ भी कहते हैं।

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Anjali Yadav

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