नियोजन से क्या आशय है?
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नियोजन का आशय (Meaning of Planning)
‘नियोजन’ का शाब्दिक अर्थ है किसी वांछित उद्देश्य की पूर्ति के लिए पहले से ही कार्यक्रम की रूपरेखा बनाना नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है। सामान्य, अर्थ में क्या करना है, कैसे करना है, किसे करना, कब करना है ? इन सब बातों का पूर्व निर्धारण ही नियोजन कहलाता है।
प्रबन्ध के सभी प्रमुख विचारकों ने नियोजन की निम्न परिभाषाएँ दी हैं-
मेरी के० नाइल्स के अनुसार, “एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यपथ के चयन एवं विकास करने का सचेतन प्रयास ही नियोजन है। यह वह आधार है, जिससे प्रबन्ध के भावी कार्य निकलते हैं।
कूण्ट्ज ओ डोनेल के अनुसार, “नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है; कार्य करने के मार्ग का सचेत निर्धारण है तथा निर्णयों को उद्देश्यों, तथ्यों तथा पूर्वनिर्धारित अनुमानों पर आधारित करना है।”
नियोजन की विशेषताएँ (Characteristics of Planning)
नियोजन की प्रमुख विशेषताओं से उसकी प्रकृति को समझने में बड़ी सहायता मिलती है-
(1) सतत प्रक्रिया- केवल एक बार योजना तैयार करने से नियोजन कार्य समाप्त नहीं होता। बदलती परिस्थितियों के अनुसार उसमें आवश्यक परिवर्तन और समायोजन किये जाने चाहियें। एक योजना की समाप्ति के पूर्व ही आगामी योजना तैयार हो जानी चाहिए। इस प्रकार नियोजन एक सतत रूप से गतिशील प्रक्रिया है ।
(2) भविष्य के बारे में- नियोजन सदैव भावी समय के सम्बन्ध में ही किया जाता है; चाहे भविष्य बहुत निकट का हो या सुदूर भविष्य हो। भूतकाल के बारे में कोई नियोजन सम्भव नहीं है।
(3) पूर्वानुमानों पर आधारित – बिना पूर्वानुमानों के नियोजन असम्भव है। भूत और वर्तमान तथ्यों के आकलन के आधार पर भविष्य सम्बन्धी प्रवृत्तियों का पहले से अनुमान आवश्यक है, ताकि जोखिमों को कम से कम किया जा सके और सम्भावनाओं का अधिकतम लाभ उठाया जा सके।
(4) प्राथमिकता- नियोजन अन्य सभी प्रबन्ध कार्यों की आधारशिला है। सर्वप्रथम नियोजन प्रक्रिया ही आरम्भ होती है और फिर प्रबन्ध के अन्य कार्य किये जाते हैं।
(5) सर्व-व्यापकता- नियोजन समस्त व्यवसायों एवं छोटे-बड़े संगठनों में सभी प्रकार के प्रबन्धकों द्वारा प्रत्येक स्तर पर सम्पादित किया जाने वाला कार्य है। केवल उच्च प्रबन्धक ही नहीं, पर्यवेक्षक भी नियोजन कार्य करते हैं। जहाँ नियोजन नहीं, वहाँ प्रबन्ध नहीं हो सकता है।
(6) बौद्धिक प्रक्रिया- नियोजन कोई शारीरिक कार्य नहीं है, बल्कि बौद्धिक क्रियाओं का कार्य है। यह सही सोच-विचार का कार्य है।
(7) चयनात्मक स्वरूप- यदि किसी कार्य को करने का केवल एक ही रास्ता हो, तो नियोजन की कोई आवश्यकता ही नहीं होगी, क्योंकि अपरिहार्य को अपनाना ही है। वस्तुतः अनेक विकल्पों की विद्यमानता ही नियोजन की आवश्यकता को जन्म देती है। सम्भव विकल्पों में से श्रेष्ठतम का चयन किया जाता है। इस प्रकार नियोजन की प्रकृति चयनात्मक होती है।
(8) लोचपूर्ण- नियोजन लोचपूर्ण होना चाहिए, ताकि उसमें परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन किया जा सके।
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