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नीतियाँ (Policies)
प्रबन्ध में नियोजन की नीतियाँ – नियोजन नीति-निर्धारण का कार्य भी करता है। नीतियाँ वे सामान्य विवरण अथवा सहमतियाँ (Understandings) होती हैं जो कि व्यावसायिक उपक्रम के कार्यों अथवा निर्णयों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करती हैं, वे बारम्बार उत्पन्न होने वाले प्रश्नों का उत्तर देती हैं। हैरोल्ड कूण्ट्ज एवं ओ डोनैल के अनुसार, “नीतियाँ वे सामान्य विवरण हैं जो निर्णय लेने में प्रबन्धकों के चिन्तन का मार्गदर्शन करते हैं। जॉर्ज आर० टैरी के अनुसार, “नीति एक मौखिक, लिखित अथवा गर्भित सीमा रचना है जो सामान्य सीमाओं एवं निर्देशन को स्थापित करता है जिसके अन्तर्गत प्रबन्धकीय क्रियायें सम्पन्न की जाती हैं।” उदाहरणतः व्यावसायिक उपक्रम की नीतियों के कुछ प्रमुख उदाहरण निम्न हैं— (i) प्रयोग में आने वाला कच्चा माल देशी हो अथवा विदेशी; (ii) उच्च पदों की पूर्ति संस्था के ही कर्मचारियों की पदोन्नति द्वारा की जाय अथवा बाहर से व्यक्तियों को लेकर की जाय; (iii) माल का विक्रय केवल नकद ही किया जाय अथवा उधार भी; (iv) माल का विक्रय अंकित मूल्य पर ही किया जाय अथवा कुछ छूट दी जाय : (v) माल का विक्रय देश की सीमाओं के अन्दर ही किया जाय अथवा बाहर भी बेचा जाय; (vi) वस्तुओं का निर्माण भारतीय प्रमाप संस्था द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर किया जाय अथवा निजी प्रमाप स्थापित किया जाय; (vii) वेतन की न्यूनतम एवं अधिकतम दरें कितनी हों तथा उनमें अधिकतम अन्तर कितना हो; (viii) उत्पादन का आकार छोटा हो अथवा बड़ा। व्यावसायिक नीतियाँ उपक्रम के लक्ष्य की प्राप्ति का मार्गदर्शन का कार्य करती है।
नीतियों की विशेषताएँ अथवा गुण (Characteristics or Qualities)
जॉन जी० ग्लोवर के अनुसार एक श्रेष्ठ नीति में निम्नलिखित विशेषतायें होती हैं- (i) नीति स्पष्ट, लिखित तथा सरलता के समझ में आने वाली होनी चाहिए। (ii) नीति संस्था के उद्देश्यों के अनुरूप होनी चाहिए। (iii) नीति व्यावहारिक होनी चाहिए। (iv) नीति लोचदार होने के साथ-साथ स्थायी भी होनी चाहिए। (v) सभी सम्भावित, दशाओं के लिए पर्याप्त एवं समुचित होनी चाहिए। (vi) नीति तथ्यों एवं ठोस निर्णय पर आधारित हो । (vii) नीति आर्थिक सिद्धान्तों, सरकारी काननों तथा जनहित के अनुरूप होनी चाहिए। (viii) नीति विस्तृत होनी चाहिए। (ix) नीति वर्तमान एवं भावी क्रियाओं के लिए आधार प्रस्तुत करने वाली होनी चाहिए। (x) इसे अपने सम्पूर्ण कार्यक्षेत्र की समस्याओं को स्पष्ट करना चाहिए।
नीति निर्माण के उद्देश्य (Purpose)
नीति निर्माण के प्रमुख उद्देश्य निम्न हैं- (i) इस बात को सुनियोजित करना की नियोजित कार्य से विचलन नहीं होगा। (ii) क्रियाओं की निरन्तरता सुनिश्चित करना । (iii) भावी नियोजन के सम्बन्ध में विचार करने के लिए मार्ग निश्चित करना । (iv) नीति निर्धारण का क्षेत्र निर्धारित करना ।
नीतियों का वर्गीकरण— नीतियों को निम्न पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है,
(अ) आधारभूत वर्गीकरण— ये नीतियाँ उच्च प्रबन्ध द्वारा बनायी जाती हैं तथा कर्मचारी उनका अनुकरण करते हैं। ये उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होती हैं।
(ब) बाहर से लादी हुई नीतियाँ – कुछ नीतियाँ बाहर से लादी जाती है; जैसे-चेम्बर ऑफ कॉमर्स का निर्णय, सरकारी नीति (जैसे-उपक्रम द्वारा निर्मित वस्तु का अधिकतम मूल्य निश्चित किया जाना) आदि।
(स) याचनायुक्त नीति – इसकी उत्पत्ति उस समय होती है जबकि संस्था के ही कर्मचारी अपने अधिकारियों के समक्ष याचना करते हैं अथवा ऐसी समस्यायें उपस्थित करते हैं जिनके निवारण हेतु पिछली नीतियों में विवरण नहीं दिया गया था। इनकी सुनवाई के उपरान्त उपक्रम द्वारा पुनः नीतियाँ बनाई जाती हैं।
(द) क्रियात्मक नीतियाँ- क्रियात्मक नीतियों का आशय प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्रों के लिए बनायी गई। नीतियों से है; जैसे-उत्पादन नीति, वित्तीय नीति, साख नीति, विपणन नीति, सेविवर्गीय नीति आदि ।
(य) संगठनात्मक स्तर के अनुसार नीतियाँ- संगठनात्मक स्तर पर बनाई गई नीतियों को निम्न तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है— (1) उच्च प्रबन्ध द्वारा उपयोग में ली जाने वाली आधारभूत नीतियाँ । (2) उच्च प्रबन्धकों द्वारा उपयोग में ली जाने वाली सामान्य नीतियाँ। (3) विभागीय नीतियाँ
अल्फर्ड एवं बीटी ने व्यावसायिक नीतियों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया है— (i) शीर्ष प्रबन्ध की नीतियाँ (ii) उच्च मध्यम प्रबन्ध की नीतियाँ। (iii) मध्यम प्रबन्ध की नीतयाँ (iv) फोरमैन की नीतियाँ । (v) परिचालन दल की नीतियाँ । (vi) विक्रय नीतियाँ (vii) उत्पादन नीतियाँ । (viii) अनुसन्धान की नीतियाँ । (ix) वित्तीय नीतियाँ । (x) लेखापाल सम्बन्धी नीतियाँ।
नीतियों का महत्व
नीतियों का निर्णय उच्चस्तरीय प्रबन्धकों द्वारा किया जाता है। इनके आधार पर (i) प्रबन्धकीय समस्याओं का समाधान किया जाता है; (ii) निर्णयन में एकरूपता बनी रहती है; (iii) पक्षपात होने की समस्या नहीं रहती : (iv) क्रियाओं में क्रमबद्धता बनी रहती है; (v) मनमानी लगभग समाप्त हो जाती है; (vi) कार्य से विचलन की सम्भावनायें लगभग समाप्त हो जाती है; (vii) भावी नियोजन के सम्बन्ध में विचार करने का मार्ग निश्चित होता है; (viii) संस्था की ख्याति में वृद्धि होती है; (ix) क्रियाओं में एकरूपता आती है; तथा (x) प्रबन्धकीय कार्य सरल हो जाता है।
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