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निर्णय लेने की प्रक्रिया | Process of Decision in Hindi

निर्णय लेने की प्रक्रिया | Process of Decision in Hindi
निर्णय लेने की प्रक्रिया | Process of Decision in Hindi

निर्णय लेने की प्रक्रिया (Process of Decision)

निर्णय लेने की विधियों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

(I) पराम्परागत विधि, (II) वैज्ञानिक विधि

(1) परम्परागत विधि— निर्णय लेने की यह विधि लक्षणात्मक निदान विधि पर आधारित है। जिस प्रकार प्राचीन समय में चिकित्साशास्त्री अपने अनुभव के आधार पर रोगों के कुछ निश्चित लक्षण ज्ञात करके उनके आधार पर इलाज किया करते थे, ठीक उसी प्रकार व्यावसायिक प्रबन्धक भी इस विधि के अन्तर्गत अपने अनुभव के आधार पर समस्याओं को हल करने के तरीके खोज लेते हैं तथा उन्हीं के द्वारा व्यावसायिक समस्याओं का समाधान करते हैं। निर्णय लेने की यह विधि कुछ लक्षणों पर आधारित अवश्य ही हो, परन्तु इसके पीछे वैज्ञानिक विश्लेषण का आधार तनिक भी नहीं होता तथा इस बात पर भी पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता कि केवल अनुभव के द्वारा ही व्यावसायिक समस्या का समाधान सफलतापूर्वक किया जा सकता है । अतः आज के इस वैज्ञानिक युग में परम्परागत विधि को अपनाकर उसकी सत्यता पर विश्वास कर लेना अपने आपको धोखा देने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

(II) वैज्ञानिक विधि (निर्णयन के विभिन्न चरण) – वैज्ञानिक विधि के अन्तर्गत व्यावसायिक प्रबन्धक किसी भी कार्य के सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिये निम्नलिखित प्रक्रिया अपनाते हैं-

(1) समस्या को परिभाषित करना- निर्णय लेने की वैज्ञानिक पद्धति के अन्तर्गत सबसे पहला कार्य समस्या को स्पष्ट करना होता है। क्योंकि किसी भी बीमारी का इलाज उसी समय सम्भव है, जबकि बीमारी का ठीक-ठाक पता लग जाय यदि व्यावसायिक क्षेत्र में समस्या का स्पष्टीकरण किये बिना भी उसको दूर करने के उपाय अपनाये जाते हैं, तो संस्था को इसका लाभ न हो सकेगस। उदाहरण के लिए, उत्पादन में कमी होने के कारण कच्चे माल की कमी अथवा मशीनों की गड़बडी कहा जा सकता है, परन्तु केवल इसी अनुमान के आधार पर उत्पादन बढ़ाने के प्रयत्न केवल अटकलबाजी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहे जा सकते, क्योंकि उत्पादन घटने के पीछे केवल दो कारण नहीं, अपितु कर्मचारियों की कार्यक्षमता में कमी अथवा प्रबन्धकीय नियन्त्रण की कमी भी हो सकती है। अतः निर्णय लेने की वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार सबसे पहले समस्या के सही रूप को समझना आवश्यक होता है तभी उसके सम्बन्ध में कोई निर्णय लिया जाना सम्भव है।

(2) प्रतिबन्धक घटकों की खोज- प्रबन्धविदों ने ‘प्रतिबन्धक घटक’ (Limiting Factor ) नामक अवधारणा प्रदान की है। किसी समस्या के बीज घटक या सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूल घटक को ही प्रतिबन्धक घटक कहते हैं। अन्य घटक उसके अनुपूरक एवं सहयोगी घटक होते हैं। प्रतिबन्धक घटक को केन्द्रीय घटक के रूप में पहचाना जाना चाहिए। इसकी पहचान से समस्या की सही व्याख्या सम्भव है।

एक मोटर वाहन अन्य दृष्टियों से अच्छी स्थिति में है फिर भी अभी वह चल नहीं सकता है। ज्ञात होता है कि उसमें पेट्रोल नहीं है परन्तु पेट्रोल तो कल भरवाया था। खोज करने पर ज्ञात होता है कि उसका पेट्रोल टैंक फूटा हुआ है। यहाँ पैट्रोल टैंक फूटा होना, एक प्रतिबन्धक घटक है।

(3) समस्या का विश्लेषण करना- समस्या का सही रूप निर्धारित करने के बाद इसका गहन विश्लेषण किया जाता है। इस विश्लेषण के अन्तर्गत समस्या की प्रकृति, उसके कारण एवं उनके उत्तरदायी व्यक्तियों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त की जाती हैं। व्यावसायिक रूप में समस्या के गहन विश्लेषण में उससे सम्बन्धित तथ्यों की जानकारी प्राप्त करना बड़ा कठिन होता है। अतः जो तथ्य उपलब्ध न हो उनके सम्बन्ध में अनुमानित सूचनाओं से ही कार्य चलाना पड़ता है। समस्या के विश्लेषण द्वारा सर्वश्रेष्ठ निर्णयों तक पहुँचने में प्रबन्धकों को बड़ी आसानी हो जाती हैं, क्योकि उन्हें अपना ध्यान समस्याओं के केवल उन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित करना होता है, जहाँ सुधार की आवश्यकता है।

(4) विभिन्न वैकल्पिक हलों पर विचार करना- किसी समस्या के निदान के लिये विभिन्न विकल्प उपलब्ध हो सकते हैं। व्यावसायिक प्रबन्ध सभी सम्भावित विकल्पों के सम्बन्ध में विचार करते हैं, जैसे-यदि संस्था में उत्पादन की मात्रा निरन्तर घटती जा रही हो और इसका कारण कर्मचारी प्रशिक्षण की कमी हो तो इसके लिये निम्नलिखित विकल्पों पर विचार किया जा सकता है— (i) वर्तमान कर्मचारियों को प्रशिक्षण देना, (ii) नये प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति करना तथा पुराने कर्मचारियों को हटा देना, (iii) ऐसी स्वचलित मशीनों की स्थापना करना जिनमें कर्मचारियों की आवश्यकता ही न पड़े। अन्तिम निर्णय लेने से पूर्व इन सभी विकल्पों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये क्योंकि ये विकल्प ही सही निर्णय लेने की भूमिका तैयार करते हैं।

(5) सीमित करने वाले घटक का सिद्धान्त अपनाना- जहाँ किसी समस्या के सभी विकल्पों के हलों पर विचार किया जाना व्यावहारिक न हों, वहाँ इस सिद्धान्त की सहायता द्वारा केवल महत्वपूर्ण घटकों पर ही ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है। इस सिद्धान्त की सहायता द्वारा केवल महत्वपूर्ण घटकों पर ही ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी समस्या के मूल घटकों पर ही प्रबन्ध अपना ध्यान केन्द्रित करता है तथा आवश्यक एवं कम महत्वपूर्ण घटकों को छोड़ दिया जाता है।

(6) सर्वप्रथम विकल्प का चुनाव करना – विभिन्न विकल्पों पर विचार करने के पश्चात् सर्वश्रेष्ठ विकल्पों का चुनाव करने के लिए उनका तुलनात्मक मूल्यांकन किया जाता है, जिसमें निम्नलिखित तथ्य आंके जाते हैं— (i) प्रत्येक सम्भावित हल द्वारा प्राप्त होने वाले लाभ एवं हानियों का मूल्यांकन; (ii) प्रत्येक विकल्प में लगने वाले प्रयत्नों की मात्रा (iii) वर्तमान परिस्थितियों में प्रत्येक विकल्प की उपयुक्तता आदि। वैकल्पिक हलों में सर्वप्रथम का चुनाव करने के लिये निम्नलिखित तरीकों का प्रयोग भी किया जा सकता है—

(i) भूतकालीन अनुभव के आधार पर – भूतकालीन अनुभव वैज्ञानिक कसौटियों पर सही उतर ही जायेंगे, यह आवश्यक नहीं परन्तु अनुभव मनुष्य का सबसे बड़ा शिक्षक एवं मार्गदर्शक हाता है। प्रत्येक प्रबन्धक केवल अपने ही ‘अनुभव के आधार पर निर्णय न लेकर अपने से पहले प्रबन्धकों के अनुभव का भी लाभ उठा सकता है, क्योंकि जो अनुभव समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं, उनके सम्बन्ध में यह मानकर चला जाता है कि भविष्य में भी उनसे निश्चित रूप में सफलता मिलेगी। इस सम्बन्ध में कुछ आलोचकों ने अपने विचार प्रकट करते हुये कहा है कि भूतकालीन घटनाओं को समझना एवं उनके सही कारणों का विश्लेषण करना एक बड़ा कठिन कार्य है और साथ ही यह भी आवश्यक नहीं कि भविष्य में वे ही परिस्थितियाँ बनी रहेंगी, जो कि भूतकाल में रही है। अतः निर्णय भूतकालीन अनुभव के आधार पर भले ही किये जाये परन्तु उनमें भावी घटनाओं के पूर्वानुमान की महत्ता को नहीं भुला दिया जाना चाहिये।

(ii) प्रयोगों के आधार पर- विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ होते हैं, उसी का चुनाव करने के लिए प्रत्येक विकल्प को व्यावहारिक रूप देकर उसके परिणामों की परख की जाती है, तथा जिस विकल्प के परिणाम सर्वश्रेष्ठ होते हैं, उसी का चुनाव कर लिया जाता है, परन्तु इस प्रणाली का प्रयोग काफी महंगा पड़ता है, क्योंकि इसमें श्रम एवं धन का काफी अपव्यय होता है।

(iii) वैकल्पिक हलों के विश्लेषण के आधार पर- इस विधि के अन्तर्गत प्रत्येक विकल्प का गहन अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाता है तथा जो हल समस्त दृष्टिकोण से श्रेष्ठ प्रतीत हो उसी का चुनाव कर लिया जाता है। विभिन्न विकल्पों का तुलनात्मक मूल्यांकन करने के लिए अनेक सांख्यिकीय एवं गणितीय विधियों का उपयोग किया जाता है ताकि श्रेष्ठतम निर्णयों तक पहुँचाया जा सके।

(7) निर्णय को कार्यान्वित करना— निर्णय लेने के पश्चात् उसे कार्य रूप प्रदान करना आवश्यक होता है। इसके लिए उन सभी व्यक्तियों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है जो इसके कार्यान्वयन में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से भाग लेते हैं। अतः सभी सम्बन्धित व्यक्तियों को निर्णय की सूचना यथा समय दी जानी चाहिये तथा उनकी स्वीकृति प्राप्त कर लेनी चाहिये ताकि वे उसे अपना ही निर्णय समझकर सफल बनाने में टीम भावना के साथ कार्य करें।

(8) निर्णय में सुधार करना- प्रबन्ध द्वारा लिये गये निर्णय पूर्ण रूप से सही हों, यह आवश्यक नहीं। इनमें समय एवं परिस्थितियों के अनुसार सुधार की आवश्यकता भी पड़ सकती है। अतः निर्णयों में रह जाने वाली त्रुटियाँ अथवा समय एवं परिस्थिति में आने वाले परिवर्तनों के कारण निर्णयों में सुधार के लिए भी प्रयत्नशील रहना चाहिये।

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Anjali Yadav

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