निर्णयन के सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए ।
निर्णयन सिद्धान्त (Principles of Decision Making)
निर्णय लेना इतना सरल कार्य नहीं है जितना कि प्रायः समझा जाता है। वर्तमान जटिल एवं परिवर्तनशील परिस्थितियों ने इस कार्य को और जटिल बना दिया है। जो निर्णय लिये जाते हैं, वे सही एवं उचित होने चाहिएँ । इसके लिए निम्नलिखित सिद्धांतों को ध्यान में रखना आवश्यक है-
(1) उचित व्यवहार का सिद्धान्त (Principle of Reasonable Behaviour) – इस सिद्धान्त का स्पष्ट आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति पहले मानव और उसके बाद कर्मचारी है। मानव होने के नाते वह सामान्यतः उचित प्रकार से व्यवहार करता है तथा यह आशा भी करता है कि व्यक्ति भी उसके साथ का व्यवहार करेंगे। यद्यपि मन चंचल होता है एवं मनोदशाएँ भी परिवर्तनशील होती हैं, किन्तु मनौवैज्ञानिक दृष्टि से मनुष्य के सामान्य आचरण एवं उसकी क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं का आसानी से पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी योग्य व्यक्ति का पदावनयन (demotion) कर दिया जाए, तो क्या प्रतिक्रिया होगी। यदि किसी गर्भवती महिला कर्मचारी का अवकाश स्वीकार न किया जाए तो उस पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा आदि प्रबन्धकों को निर्णय लेते समय मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर समस्या का समाधान इस प्रकार करना चाहिए जिससे कि उसके द्वारा लिए गए निर्णय की कोई भयंकर प्रतिक्रिया न हो अतः उसके समस्त उचित व्यवहार के सिद्धान्त पर आधारित होने चाहिए।
(2) व्यक्तिगत हित का सिद्धान्त (Principle of Individual Interest)- इस सिद्धान्त के अनुसार निर्णय लेते समय हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि निर्णय से कर्मचारियों के व्यक्तिगत स्वार्थ, उद्देश्य या हितों पर इसका बुरा प्रभाव न पड़े। प्रत्येक व्यक्ति के उद्देश्यों को आर्थिक एवं अनार्थिक दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। कुछ व्यक्ति आर्थिक उद्देश्यों की प्राप्ति को सर्वाधिक महत्व देते हैं तो कुछ अनार्थिक उद्देश्यों की प्राप्ति की। व्यक्ति इन दोनों उद्देश्यों में से सर्वप्रथम उस उद्देश्य की पूर्ति करना चाहता है जिससे उसे अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त होती है। इस बात को ध्यान में रखकर ही निर्णय लिए जाने चाहिएँ ।
(3) अनुपात का सिद्धान्त (Principle of Proportion)- उत्पादन के साधन सीमित होते हैं। यह सिद्धान्त इस बात की ओर संकेत करता है कि सीमित साधनों से अधिकतम परिणामों की प्राप्ति के लिए उपलब्ध साधनों का अनुपातिक समायोजन किया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में उत्पादन के विभिन्न उपलब्ध साधनों का सामायोजन इस अनुपात में करना चाहिए जिससे अधिकतम परिणामों की प्राप्ति हो सके। इस सिद्धान्त के अनुकरण से संस्था के समस्त उपलब्ध साधनों में एक श्रेष्ठतम संयोजन की स्थापना की जा सकती है, साधनों के दुरुपयोग को रोका जा सकता है तथा उत्पादकता एवं लाभदायकता को अधिकतम किया जा सकता है। यह सिद्धान्त व्यावसायिक निर्णयों के क्षेत्र में सर्वोत्तम विकल्प के चयन में मार्गदर्शन का कार्य करता है।
(4) समय का सिद्धान्त (Principle of Timing) – व्यवसाय में समय को धन माना जाता है। अतः यह आवश्यक है कि प्रबन्धक के समस्त कार्य जैसे नियोजन, संगठन, स्टाफिंग, संचालन नियंत्रण आदि, समय पर किए जाने चाहिए। इस प्रकार यदि किसी साधन विशेष की पूर्ति उपयुक्त समय पर नहीं की जाती तो उत्पादन का कार्य रुक जाता है। इसके साथ ही सभी साधनों का पूर्व संग्रह करना भी अलाभप्रद हो सकता है। ऐसा करने में केवल मुद्रा ही नहीं फँसती वरन् विविध साधनों को रखने की भी समस्या पैदा होती है। अतः निर्णयों में समयानुकूलता का सिद्धान्त इस बात की चेतावनी देता है कि सही समय पर संस्था के पास सही अनुपात व मात्रा में सभी साधन उपलब्ध होने चाहिए।
(5) गतिशीलता का सिद्धान्त (Principle of Dynamics) – ‘परिवर्तन प्रकृति का नियम है। आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक सभी क्षेत्रों में निरन्तर परिवर्तन होते आए हैं और होते रहेंगे। फलतः एक विशेष परिस्थिति एवं काल में लिया गया निर्णय सदैव उसी रूप में लागू नहीं हो सकता। एक उपक्रम के लक्ष्यों में परिवर्तन, कर्मचारियों की मनोवृत्ति, आन्तरिक परिस्थितियों एवं श्रम संघों की मनोवृत्ति में परिवर्तन, राजकीय नीति में परिवर्तन, बाह्य परिस्थितियों में सम्मिलित होता है। गतिशीलता का सिद्धान्त प्रबन्धकों का ध्यान उन परिवर्तनों की ओर आकर्षित करता है तथा यह चेतावनी भी देता है कि उनके अनुरूप निर्णयों को समायोजित करते रहना चाहिए जिससे कि संस्था को भावी विकास योजनाएँ विपरीत रूप से प्रभावित न हों।
(6) सीमित घटक का सिद्धान्त (Principle of Limiting Factor ) – इस सिद्धान्त के अनुसार कुछ ऐसे तत्व होते हैं, जिनका प्रभाव किसी समस्या पर सबसे अधिक पड़ता है। हमें किसी समस्या को हल के लिए उचित विकल्प का निर्णय लेने से पूर्व इन्हीं घटकों की जानकारी करनी चाहिए, अन्यथा वे निर्णय अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने में बाधक तत्व प्रमाणित हो सकते हैं।
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