निर्णयन का क्या महत्व है ?
निर्णयन का महत्व (Importance of Decision Making)
सभी व्यवसायों में प्रत्येक क्षेत्र में निर्णयन की क्रिया का अपना विशेषतः महत्व होता है क्योंकि व्यवसाय के प्रत्येक क्षेत्र में निर्णय लेना आवश्यक होता है। इस संदर्भ में मैलविन टी० कोपलेण्ड का यह कथन उल्लेखनीय है कि “प्रशासन मुख्य रूप से निर्णय लेने की प्रक्रिया है और निर्णय लेने का अधिकार और यह देखना कि उसके अनुसार कार्य हो रहा है या नहीं यह उत्तरदायित्व है व्यावसायिक उपक्रम चाहे छोटा हो अथवा बड़ा हो, सबकी स्थिति में परिवर्तन होता रहता है, कर्मचारियों में बदलाव होता रहता है और अनेक आकस्मिक घटनाएं भी घटित होती रहती हैं लेकिन पहियों को चालू रखने और उसकी क्रियाओं को चालू रखने के लिए निर्णय लेना अनिवार्य होता है।
निर्णयन के महत्व के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किए जाते हैं-
(1) प्रबन्ध का महत्वपूर्ण कार्य- निर्णयन प्रबन्ध के अन्य कार्यों-नियोजन, संगठन, समन्वय और नियन्त्रण में अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। अर्नेस्ट डेल का यह कथन सत्य प्रतीत होता है। कि “प्रबन्धकीय निर्णयों का अभिप्राय उन निर्णयों से है जो कि सदैव सभी प्रबन्धकीय क्रियाओं उदाहरणार्थ – नियोजन, संगठन, नियन्त्रण, निर्देशन, कर्मचारियों की भर्ती, नव प्रवर्तन और प्रतिनिधित्व के कार्यों में लिए जाते हैं।” अतः प्रबन्धक को समय-समय पर किसी-न-किसी प्रकार कोई-न-कोई निर्णय अवश्य लेना पड़ता है।
(2) व्यावसायिक नीतियों का निर्धारण- व्यावसायिक नीतियों के निर्धारण में निर्णयन का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि जब भी कोई व्यावसायिक नीति अपनाई जाती है तब उससे सम्बन्धित अनेक प्रकार के निर्णय लिए जाते हैं। इन निर्णयों का सम्बन्ध व्यवसाय के विभिन्न विभागों एवं उपविभागों से होता है। अतः इस कार्य में पूर्ण सावधानी बरती जाती है।
(3) प्रबन्धक की योग्यता का मापदण्ड- एक प्रबन्धक द्वारा लिए गए निर्णय उसकी योग्यता, कुशलता और चतुराई के मापदण्ड माने जाते हैं। जब किसी प्रबन्धक के निर्णय तत्कालीन परिस्थितियों में खरे उतरते हैं, तब उसे सफल प्रबन्धक माना जाता है और यदि ये निर्णय असंगत बैठते हैं तो प्रबन्धक को एक असफल, अयोग्य या अदूरदर्शी माना जाता है। अतः एक प्रबन्धक का प्रबन्ध कौशल पूर्णरूपेण निर्णय की क्रिया पर निर्भर रहता है।
(4) प्रबन्ध और निर्णयन सहगामी है- व्यावसायिक प्रबन्ध एवं निर्णयन एक-दूसरे के सहगामी हैं। अतः इन्हें एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है क्योंकि ये दोनों ही कार्य साथ-साथ चलते हैं। प्रो० साइमन ने तो यहाँ तक कहा है कि “प्रबन्ध एवं निर्णयन कोई अलग कार्य नहीं हैं, अपित एक-दूसरे के पर्याय हैं” यदि यह कहा जाए तो किसी प्रकार भी अनुचित नहीं होगा कि प्रबन्ध बिना निर्णय के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता !
(5) आधुनिक तकनीक एवं परिवर्तनों को लागू करना- समय परिवर्तनशील है और आधुनिक समय में अनेक वैज्ञानिक आविष्कार हुए है। अतः इन वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण नई-नई तकनीकों को जन्म मिला है जिन्हें व्यवसाय में लागू करने से अनेक लाभ हो सकते हैं। अतः नहीं तकनीक एवं परिवर्तनों को लागू करने के लिए निर्णयन का कार्य आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य है।
(6) सार्वभौमिक एवं सर्वव्यापी क्षेत्र- निर्णयन का क्षेत्र भी प्रबन्ध के क्षेत्र की भाँति सार्वभौमिक एवं सर्वव्यापी है अत: जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें हम बिना निर्णय लिए एक कदम भी आगे बढ़ सकें।
(7) निर्णय साध्य और साधन दोनों से सम्बन्धित हैं- एक व्यवसाय में परिस्थितियों के अनुसार साध्य और साधन दोनों के बारे में निर्णय लिए जाते हैं।
उपरोक्त के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि ‘निर्णय प्रबन्ध की आत्मा’ है। इस सम्बन्ध में पीटर एफ० डूकर का यह कथन उल्लेखनीय है कि ‘एक प्रबन्धक जो भी करता है, वह निर्णयन के द्वारा ही करता है।’ (Whatever a manager does, he does through making decisions)
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