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50+ Mahabharata Katha in Hindi-महाभारत की कहानियाँ
50+ Mahabharata Katha in Hindi-महाभारत की अद्भुत कहानियाँ- कृष्ण की बुआ कुंती, कर्ण का जन्म, पाण्डव और कौरव, पाण्डु का देहावसान, भीम के साथ छल, द्रोण, द्रोण और द्रुपद, राजकुमारों पर प्रभाव, गुरु और गुरुदक्षिणा, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर इत्यादि.
कृष्ण की बुआ कुंती
यदुवंश के प्रसिद्ध राजा शूरसेन श्रीकृष्ण के दादा थे। शूरसेन के फुफेरे भाई कुंतीभोज का कुंती राज्य पर शासन था। कुंतीभोज निःसंतान थे। इसलिए शूरसेन ने अपनी पहली संतान पृथा, अपनी पुत्री को कुंतीभोज को दे दिया था। पृथा का लालन-पालन कुंती राज्य में होने के कारण उसका नाम कुंती हो गया। वसुदेव कुंती के भाई और शूरसेन के पुत्र थे। अतः रिश्ते में कुंती कृष्ण की बुआ थीं। कृष्ण को अपनी बुआ से बहुत प्रेम था। समय के अंतराल में कुंती का विवाह पाण्डु से हुआ था। कुंती और पाण्डु के पुत्र पाण्डव कहलाए थे। कृष्ण वसुदेव के पुत्र थे। फलतः पाण्डव कृष्ण के फुफेरे भाई थे। एक बार दुर्वासा ऋषि कुंतीभोज के महल में पधारे। एक वर्ष तक कुंती ने पूर्ण भक्ति भाव से उनकी सेवा करी। ऋषि गद्गद् हो गए। उन्होंने आर्शीवाद स्वरूप कुंती को कुछ गुप्त मंत्र दिए; जिसके जाप के द्वारा वह अपने मनपसंद देवता का आवाहन कर उनसे दिव्य पुत्र प्राप्त कर सकती थी।
कर्ण का जन्म
दुर्वासा ऋषि से वरदान पाकर कुंती अति प्रसन्न थी। उसके मन में मंत्र का प्रभाव देखने की जिज्ञासा थी। एक दिन सूर्य उदित हो रहे थे। कुंती ने उन्हीं का ध्यान कर मंत्र पढ़ा… तभी चकाचौंध करने वाली सूर्य की किरणों के साथ स्वयं सूर्य भगवान प्रकट हुए और कहा, “मैं आदित्य हूँ। तुमने मेरा आवाहन किया इसलिए मैं तुम्हें पुत्र दान करने आया हूँ।” यह कहकर उन्होंने एक बच्चा उसकी ओर बढ़ाया। उस सुंदर बच्चे की छाती पर सुनहरा कवच तथा कानों में सुनहरा कुंडल था। कुंती बच्चे को पाकर अत्यंत प्रसन्न थी और उसे लगातार चूम रही थी। शीघ्र ही कुंती को अपने कुँआरेपन का आभास हुआ। किसी को दुर्वासा के वरदान का पता नहीं था … इस बच्चे को रखने से उसकी बदनामी होगी। यह सोचकर लोक निंदा के भय से उसने बच्चे को एक पेटी में बंद कर, बड़ी सावधानी से, गंगा में बहा दिया। बहती हुई पेटी कहीं दूर अधीरथ नामक सारथी को मिली। अधीरथ और उसकी पत्नी राधा निःसंतान थे। पेटी के शिशु को वे घर ले आए। ईश्वर का प्रसाद मानकर, उसे अपने पुत्र के रूप में वे पालने लगे। उन्होंने उसका नाम कर्ण रखा। कर्ण असाधारण बालक था। उसमें जन्मजात योद्धा के सभी गुण थे।
पाण्डव और कौरव
कुंती का विवाह पाण्डु के साथ हुआ था पर किसी आप के कारण पाण्डु से संतान की उत्पत्ति नहीं हो सकती थी। तब कुंती ने ऋषि दुर्वासा के वरदान से मंत्र का जाप किया और क्रमशः धर्मदेव, वायुदेव और इन्द्रदेव का आवाहन किया। फलतः उसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन नामक तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई। जब माद्री को (पाण्डु की दूसरी पत्नी) पाण्डु के श्राप तथा कुंती के वरदान का पता चला तो उसने कुंती से मंत्र सीख लिया। माही ने उसी मंत्र के जाप से अश्विन कुमारों का आवाहन किया जिससे उसे नकुल और सहदेव नामक जुड़वां पुत्रों की प्राप्ति हुई। पाण्डु के सभी पुत्र पाण्डव कहलाए। एक बार ऋषि व्यास हस्तिनापुर पधारे थे। गांधारी ने अत्यंत भक्ति भाव से ऋषि की सेवा की। आशीर्वाद स्वरूप गांधारी की सौ पुत्रों तथा एक पुत्री की इच्छा पूर्ण हुई थी। गांधारी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन के जन्म पर जंगल के जानवर चिल्लाने लगे थे… धरती कांपने लगी थी और आकाश काले बादलों से घिर गया था। भविष्यवाणी हुई थी कि बालक की प्रवृत्ति दुष्ट होगी और वंश के लिए दुर्भाग्यसूचक होगा। गांधारी के सौ पुत्र कौरव कहलाए।
पाण्डु का देहावसान
एक दिन महाराजा पाण्डु वन में शिकार के लिए गए हुए थे। वहीं एक ऋषि दंपती हिरण के रूप में विहार कर रहे थे। पाण्डु ने हिरण के जोड़े को देखकर उसपर तीर चला दिया और तीर सीधे उन्हें जा लगा। हिरण रूपी ऋषि ने मरते-मरते पाण्डु को श्राप दे दिया। दुःखी मन से पाण्डु हस्तिनापुर लौटे और राज्य का कार्यभार भीष्म और विदुर को सौंपकर सपत्नीक वन चले गए। कुती को दुर्वासा से मिले वरदान के कारण ही उनके पांचों पुत्रों का जन्म वन में ही हुआ और वे तपस्वियों के संग पलने लगे। महाराजा पाण्डु कई बरस बन में रहे। श्राप के कारण ही माद्री की ओर आकर्षित होने से उनकी मृत्यु वन में हो गई। माद्री इस दुःख को सह न सकी और उसने भी अपने प्राण त्याग दिए। दुःखी कुंती और पांचों पाण्डवों को ऋषि मुनियों ने समझा-बुझाकर शांत किया और हस्तिनापुर ले जाकर भीष्म के सुपुर्द कर दिया। उस समय युधिष्ठिर सोलह वर्ष के थे।
भीम के साथ छल
कौरव और पाण्डव हस्तिनापुर में साथ-साथ रह रहे थे। पाण्डु पुत्र भीम सबसे बलिष्ठ और शरारती था। वह दुर्योधन और उसके भाइयों को तंग किया करता था। दुर्योधन भीम से ईर्ष्या करता था। सभी बालक कृपाचार्य से अस्त्र विद्या के साथ-साथ अन्य विद्या भी सीख रहे थे। यहां भी सदा पाण्डव बाजी मार लिया करते थे। दुर्योधन पाण्डवों को नीचा दिखाने का कोई भी अवसर नहीं चूकता था। एक बार कौरवों ने भीम को नदी में डुबोकर मारने की योजना बनाई जल क्रीड़ा का प्रबंध कर कौरवों ने पाण्डवों को न्योता दिया। सबने साथ मिलकर खूब जल क्रीड़ा करी । दुर्योधन ने छल से भीम के भोजन में विष मिला दिया। थक हारकर सभी सो गए पर भीम का नशा अत्यंत गहरा था। दुर्योधन ने लताओं से उसके हाथ पैर बांधकर उसे नदी में बहा दिया। भीम बहता हुआ दूर चला गया। नदी में नागों का बसेरा था। नागों का नेता आर्यक भीम को उठाकर नागराज वासुकी के पास ले गया। वासुकी ने भीम को पहचानकर आर्यक से भीम के शरीर का विष पीने के लिए कहा। वस्तुतः आर्यक भीम का नाना था। वासुकी के आशीर्वाद से भीम के शरीर में सैकड़ों हाथियों का बल आ गया और वह ठीक होकर घर वापस आ गया।
द्रोण
द्रोण महर्षि भारद्वाज के पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता के पास वेद-वेदान्तों का अध्ययन किया और बाद में धनुर्विद्या भी सीखी। पांचाल नरेश का पुत्र द्रुपद भी द्रोण के साथ ही भारद्वाज आश्रम में शिक्षा पा रहा था। दोनों में गहरी मित्रता थी। कभी-कभी उत्साहित होकर द्रुपद द्रोण से कहा करता था कि राजा बनने पर वह द्रोण को आधा राज्य दे देगा। शिक्षा समाप्त होने पर द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन से हो गया। उनका अश्वत्थामा नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ। द्रोण अत्यंत गरीब थे। उन्हें पता लगा कि परशुराम अपनी सारी संपत्ति वितरित कर वन-गमन की तैयारी कर रहे थे। दान प्राप्ति की इच्छा से द्रोण परशुराम के पास गए। परशुराम ने द्रोण से कहा, “ब्राह्मण श्रेष्ठ! आपको देने के लिए मेरा शरीर और धनुर्विद्या ही बची है।” तब द्रोण ने उनसे अस्त्रों का प्रयोग तथा रहस्य सिखाने की प्रार्थना करी। परशुराम ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर उन्हें धनुर्विद्या की पूरी शिक्षा दी।
द्रोण और द्रुपद
कुछ समय बाद, पिता के देहावसान के पश्चात् द्रुपद ने पांचाल की राजगद्दी संभाली। यह समाचार पाकर द्रोण अत्यंत प्रसन्न हुए। दरिद्रता से परेशान पत्नी ने द्रोण को द्रुपद के पास जाने की सलाह दी। उन्हें बचपन में गुरु के आश्रम में हुई द्रुपद की बातें याद आई। बड़ी आशा के साथ द्रोण राजा द्रुपद के पास पहुँचे और बोले, “मित्र द्रुपद, मुझे पहचानते हो न ? तुम्हारे बचपन का मित्र द्रोण हूँ…।” ऐश्वर्य के मद में चूर द्रुपद को द्रोण का यह व्यवहार बुरा लगा। क्रोधित होकर द्रुपद ने कहा, “ब्राह्मण, मुझे मित्र कहने का तुम्हें साहस कैसे हुआ? मित्रता सदा बराबरी में होती है। क्या राजा और दरिद्र प्रजाजन की मित्रता कभी हुई है?” द्रुपद की कठोर वाणी द्रोण को भीतर तक चुभ गयी। द्रोण लज्जित हुए और क्रोधित भी। मन ही मन उन्होंने अभिमानी राजा को सबक सिखाने का दृढ़ निश्चय किया और हस्तिनापुर चले आए।
राजकुमारों पर प्रभाव
एक दिन हस्तिनापुर के राजकुमार नगर के बाहर गेंद खेल रहे थे तभी उनकी गेंद कुएं में गिर पड़ी। युधिष्ठिर ने गेंद को निकालने का बहुत प्रयत्न किया। गेंद तो नहीं निकली पर उसकी अंगूठी भी कुएं में गिर पड़ी। सभी राजकुमार वहां इकट्ठे थे। तभी द्रोण ने वहां पहुँचकर कहा, “क्षत्रिय कुमारों, कहो तो मैं गेंद निकाल दूं।” द्रोण ने एक सींक उठाकर मंत्र पढ़कर उसे पानी में फेंका। सींक तीर की तरह गेंद में लगी। वे मंत्र पढ़कर सींक डालते गए और तीरों की लड़ी बनती चली गई। आखिरी सिरा जब कुएं की जगत तक आ पहुँचा तब द्रोण ने गेंद खींचकर निकाल दिया। आश्चर्यचकित राजकुमार खुशी से उछलने लगे। यह चमत्कार देख उन्होंने युधिष्ठिर की अंगूठी भी निकालने की विनती करी । द्रोण ने तुरंत एक बाण का संधान किया और वह कुएं से अंगूठी निकाल लाया। यह अत्यंत अचंभित करने वाला चमत्कार था। राजकुमारों ने द्रोण का परिचय जानना चाहा। प्रभावित हुए राजकुमारों से द्रोण ने कहा, “राजकुमारों, भीष्म पितामह को सारी घटना बताना और उनसे मेरा परिचय लेना। “
गुरु और गुरुदक्षिणा
राजकुमारों से सारी घटना सुनकर भीष्म ने तुरंत समझ लिया कि हो न हो वे सुप्रसिद्ध आचार्य द्रोण ही होंगे। उन्होंने राजकुमारों की अस्वशिक्षा द्रोणाचार्य की देख रेख में पूरी करने का निश्चय किया। उन्होंने द्रोण को बुलवाया, स्वागत किया और राजकुमारों को गुरु द्रोण से शिक्षा लेने का आदेश दिया। राजकुमारों की शिक्षापूर्ण होने पर द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा स्वरूप पांचालराज द्रुपद को कैद कर लाने को कहा। वे सभी पांचाल गए और द्रुपद की गायों को हांक लाए। यह सब द्रुपद को युद्ध के लिए उकसाने की चाल थी। कौरवों से युद्ध करने के लिए द्रुपद ने अपनी सेना एकत्रित की। कौरव दुर्योधन की देख रेख में द्रुपद की सेना से युद्ध कर रहे थे जबकि पाण्डव द्रुपद को बंदी बनाना चाहते थे। द्रुपद का ध्यान जब कौरवों की ओर गया तब अर्जुन ने द्रुपद को रथ से गिरा दिया और भीम ने उसे रस्सी से बांध दिया। वे उसे द्रोणाचार्य के पास ले गए। द्रोणाचार्य ने उसे छोड़ने के बदले आधा राज्य मांगा। द्रुपद मान गए। द्रोण ने कहा, “अब हम दोनों बराबर हैं… अब हम दोनों मित्र हो सकते हैं।” द्रुपद का गर्व तो चूर हो गया पर द्रोण से बदले की भावना उनके जीवन का लक्ष्य बन गई।
सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर
धनुर्विद्या में निपुण द्रोणाचार्य कुरु राजकुमारों के गुरु थे। उन्होंने धनुर्विद्या की सारी बारीकियां सभी राजकुमारों को सिखाई थीं फिर भी कुछ विशेष बातें अपने पुत्र अश्वत्थामा के लिए बचाकर रख रखी थीं। अर्जुन की सम्पूर्ण निष्ठा अपने गुरु में थी। वह उनसे सभी कुछ सीखने के लिए सदा तत्पर रहता था। इसी कारण वह हर पल अपने गुरु की सेवा में उनके साथ ही रहा करता था। उसकी भक्ति को देखकर द्रोणाचार्य उसे सब कुछ सिखाने को बाध्य हो गए थे। एक दिन सुबह सवेरे द्रोणाचार्य नदी में स्नान करने गए। तभी अप्रत्याशित रूप से एक मगरमच्छ ने उनका पैर पकड़ लिया। दर्द के कारण द्रोण छटपटा उठे और सहायता के लिए पुकारने लगे। अर्जुन भागा हुआ गया और उसने सीधा मगरमच्छ के मुंह के भीतर तीर मारा। द्रोण अर्जुन से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसकी सराहना करी। अर्जुन की निष्ठा देखकर द्रोण ने कहा कि वह अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाएंगे।
अर्जुन सव्यसाची और गुडाकेश कहलाए
धनुर्विद्या में अर्जुन की बहुत अधिक रुचि थी। वह रात-दिन धनुर्विद्या के अभ्यास में लगा रहता था और छोटी-छोटी बारीकियों को भी ध्यानपूर्वक देखा करता था। प्रत्येक चुनौती को स्वीकार कर उसका सामना करता था। एक दिन रात में भोजन करते समय उसने देखा कि अंधेरे में भी उसका हाथ, बिना किसी चेष्टा के आराम से मुंह में भोजन पहुँचा रहा था। यह देखकर उसे लगा कि क्यों न रात के अंधकार में निशाना लगाने का अभ्यास किया जाए… फलत: अपनी निद्रा त्यागकर उसने रात्रि में धनुष चलाने का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया। दिन के समय भी वह आंखों पर पट्टी बांधकर निशाना साधने लगा। निद्रा पर विजय प्राप्त करने के कारण अर्जुन ‘गुडाकेश’ कहलाया। अर्जुन ने बाएं हाथ से तीर चलाने में भी निपुणता प्राप्त की थी। फलतः वह ‘सव्यसाची’ कहलाया। अर्जुन दोनों हाथों से धनुर्विद्या में निपुण था।
लक्ष्य पर ध्यान
एक दिन द्रोणाचार्य ने पेड़ पर एक लकड़ी का तोता लटका दिया। अपने शिष्यों को बुलाकर उन्होंने तोता दिखाया और उसकी आंख में निशाना साधने के लिए कहा। उन्होंने युधिष्ठिर से पूछा, “तुम्हें पेड़ पर क्या दिख रहा है?” “एक तोता गुरुजी।” भीम से यही सवाल पूछे जाने पर उसने कहा. “मुझे फल, तोता और तोते के सिर पर आकाश दिख रहा है।” दुर्योधन ने कहा, “हरे हरे पत्तों के बीच एक तोता दिख रहा है।” इसी प्रकार सभी ने कुछ-कुछ उत्तर दिए। अर्जुन ने अपनी बारी आने पर कहा, “मुझे तोते की आंख दिखाई दे रही है।” प्रसन्न होकर द्रोण ने कहा, “बाण चलाओ।” अर्जुन का बाण सीधा तोते की आंख में जाकर लगा। द्रोण ने तब अपने शिष्यों को समझाया, “लक्ष्यभेदी होने के लिए तुम्हारा ध्यान बस केवल तुम्हारे निशाने पर होना चाहिए। तुम्हारा ध्यान इतना गहरा हो कि तुम्हें और कुछ दिखाई ही न दे… बिलकुल अर्जुन की भांति।”
एकलव्य की गुरुदक्षिणा
एकलव्य नामक एक गरीब लड़का जंगल में रहता था। धनुर्विद्या सीखने की इच्छा से वह द्रोण के पास गया पर उन्होंने उसे विद्या देने से मना कर दिया। फिर भी वह हतोत्साहित नहीं हुआ। उसने द्रोणाचार्य की मिट्टी की एक प्रतिमा बनाई और उसे ही सामने रखकर धनुष चलाने का अभ्यास करने लगा। एक बार जब वह अभ्यास कर रहा था तभी एक कुत्ता आकर जोर-जोर से भौंकने लगा। एकलव्य ने बिना उसे घायल किए हुए तीरों से उसका मुंह भर दिया। कुत्ता भागता हुआ उधर गया जिधर द्रोणाचार्य राजकुमारों को शिक्षा दे रहे थे। अर्जुन ने अचंभित होकर द्रोणाचार्य से कहा, “गुरु जी ! यह व्यक्ति जो भी है धनुर्विद्या में अति प्रवीण है।” द्रोणाचार्य उसे देखने गए। एकलव्य अभ्यास कर रहा था। द्रोणाचार्य ने उसे तुरंत पहचान लिया और उसके गुरु से मिलना चाहा। एकलव्य ने मिट्टी की प्रतिमा की ओर इशारा कर दिया। हाथ जोड़कर उसने कहा, “गुरु जी, मुझपर आपकी गुरुदक्षिणा उधार है।” द्रोणाचार्य ने कहा, “यदि ऐसा है तो अपना दाहिना अंगूठा दे दो।” अचंभित एकलव्य ने सिर झुकाया और अपना अंगूठा गुरु को गुरुदक्षिणा में दे दिया।
कर्ण और परशुराम
परशुराम बहुत ही अच्छे धनुर्धर थे। कर्ण उन्हीं से धनुर्विद्या सीखना चाहता था पर परशुराम ब्राह्मणों को छोड़कर और किसी को शस्त्र विद्या नहीं सिखाते थे। कर्ण ने उनसे असत्य कहा और ब्राह्मण बनकर शिक्षा लेने लगा। एक दिन परशुराम कर्ण की जांघ पर सिर रखकर सो रहे थे। एक काला बिच्छू कर्ण की जांघ के नीचे घुस गया और काटने लगा। कर्ण को बहुत पीड़ा हुई और लहू की धारा बहने लगी। गुरु की निद्रा भंग न हो यह सोचकर कर्ण जरा भी हिला डुला नहीं। खून के गीलेपन से परशुराम की नींद खुली। उन्होंने देखा कि कर्ण की जांघ से खून बह रहा है। वह तुरंत समझ गए कि कर्ण ब्राह्मण न होकर एक क्षत्रिय है… एक क्षत्रिय ही इतना दर्द सह सकता था। क्रुद्ध होकर परशुराम ने श्राप देते हुए कहा, “तुमने मुझसे असत्य कहा… जो विद्या तुमने सीखी है वह अंत समय में काम न आएगी ऐन वक्त पर तुम उसे भूल जाओगे और रथ का चक्का धरती में फंस जाएगा। मेरी सिखाई शस्त्र विद्या को भी तुम भूल जाओगे।”
कौशल प्रदर्शन
कौरव और पाण्डवों ने कृपाचार्य और द्रोणाचार्य से अस्त्र शस्त्र की शिक्षा पायी थी। निपुणता प्राप्त करने की खुशी में एक भारी समारोह रखा गया जिसमें सभी ने अपने कौशल का प्रदर्शन किया। तरह-तरह के खेल और करतब हुए। सभी ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। तीरंदाजी में अर्जुन का कोई मुकाबला नहीं था। दर्शक दंग थे। यह सब देख दुर्योधन ईर्ष्या से जल उठा। प्रतियोगिता चल ही रही थी कि कर्ण ने रंगभूमि में प्रवेश कर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बताया। द्रोणाचार्य ने जो-जो अर्जुन ने किया था उसे करने की चुनौती दी। कर्ण ने सब कर दिखाया। उसकी कुशलता से अभिभूत सारथी अधीरथ ने रंगभूमि में आकर अपने पुत्र कर्ण को गले लगा लिया। यह देखकर भीम चिल्लाया, “एक सारथी का पुत्र हम क्षत्रियों की बराबरी कैसे कर सकता है… उसे सारथी ही रहना चाहिए।” पाण्डव या कौरव किसी को यह पता नहीं था कि कर्ण कुंती का ज्येष्ठ पुत्र है। दुर्योधन कर्ण से बहुत प्रभावित हुआ। उसने कहा, “कर्ण एक महान धनुर्धर है और आज से मेरा मित्र और अंग देश का राजा है…” यह कहकर वहीं रंगभूमि में दुर्योधन ने उसका राज्याभिषेक कर दिया।
लाक्षागृह
दिन प्रतिदिन युधिष्ठिर और पाण्डवों की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही थी। प्रजा उन्हें बहुत पसंद करती थी। यह सब देख कर दुर्योधन को और भी ईर्ष्या होने लगी थी। उसे लगने लगा था कि युधिष्ठिर कहीं राजगद्दी का अधिकारी न हो जाए… यही विचार कर उसने अपने मामा शकुनी के साथ मिलकर पाण्डवों को खत्म करने का षड्यंत्र रचा। उनके राज्य में वारणावत में एक सालाना मेला लगता था जिसमें राजपरिवार सम्मिलित होता था । दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को पाण्डवों को उस मेले में भेजने के लिए राजी किया। पाण्डव धृतराष्ट्र की बात कभी नहीं टालते थे। वे वारणावत जाने के लिए खुशी-खुशी तैयार हो गए। इधर दुर्योधन ने अपने मंत्री पुरोचन को बुलाकर गुप्त मंत्रणा की और एक क्रूर योजना बनाई। वहां पाण्डवों के ठहरने के लिए सन, घी, मोम, तेल, लाख, चरवी आदि शीघ्र जलने वाली चीजों से एक अत्यंत सुंदर महल बनवाया गया। दीवारों पर रंग भी ऐसा जो शीघ्र आग पकड़े। कमरे में रखी प्रत्येक वस्तु शीघ्र ज्वलनशील थी। पाण्डवों को वहीं ठहराया गया। रात में उनके सोते में लाक्षागृह में आग लगा देने की योजना थी जिससे सभी जलकर भस्म हो जाएँ और किसी को संदेह भी न हो।।
पाण्डव बच निकले
पांचों पाण्डव माता कुंती के साथ वारणावत के लिए चल पड़े। विदुर को गुप्तचरों से दुर्योधन के कुचक्र का पता लग चुका था। पाण्डवों को विदा करते समय विदुर ने युधिष्ठिर को सांकेतिक भाषा में चेतावनी दे दी थी। दुर्योधन की बुरी नीयत के बारे में जानकर सबके मन उदास और चिंतित हो गए थे। वारणावत के लोग पाण्डवों के आगमन से बहुत प्रसन्न हुए। लाख का भवन ‘शिवम्’ तैयार हो चुका था। पुरोचन ने सबका भव्य स्वागत किया और भवन में ठहराया। युधिष्ठिर ने ध्यान से देखा तो पता लग गया कि घर ज्वलनशील पदार्थों से बना था। वे सब सचेत होकर रहने लगे। इतने में विदुर का भेजा हुआ सुरंग बनाने वाला कारीगर आया और गुप्त रूप से उसने भवन से नदी तक एक सुरंग बना दी। पुरोचन भवन के द्वार पर ही एक कमरे में रहकर सब पर दृष्टि रखता था। पाण्डव भी चौकस रहते थे। एक दिन आधी रात के समय भीम ने भवन में आग लगा दी और गुप्त सुरंग से माता तथा भाइयों के साथ भाग निकला। पाण्डवों के जल जाने के समाचार से जनता में हाहाकार मच गया। पाण्डव नदी के पास पहुँचे। विदुर की भेजी नाव में बैठकर वे राज्य की सीमा से पार चले गए।
भीम हिडिम्ब युद्ध
लाक्षागृह से सुरंग से बच निकलने के पश्चात् पाण्डव नदी पार कर वन में पहुँचे। अत्यधिक थकान और प्यास के कारण सबकी आंख लग गई। भीम पहरा देने लगा। वन में रहने वाले राक्षस हिडिंब ने मानव गंध पाकर अपनी बहन हिडिंबा को शिकार लाने भेजा। भीम के रूप को देखकर हिडिंबा भीम पर अनुरक्त हो गई। अपनी माया से उसने सुंदरी का रूप धरा और भीम के पास आई। भीम वन में एक सुंदरी को देखकर हैरान था। उसने उससे उसका परिचय पूछा। दोनों बात कर ही रहे थे कि उसका भाई हिडिंब आ पहुँचा। भीम और हिडिंब में युद्ध हुआ और हिडिंब मारा गया। हिडिंबा ने भीम से विवाह करना चाहा। कुंती की रजामंदी से दोनों का विवाह हो गया। कुछ समय बाद भीम और हिडिम्बा के मिलन से एक महापराक्रमी बालक पैदा हुआ। वह शीघ्र ही बढ़ता हुआ जवान हो गया। उसके सिर पर बाल नहीं थे। घट अर्थात् घड़े के आकार का सिर और उत्कच अर्थात् केशहीन… इसी कारण उसका नाम घटोत्कच पड़ा। उसने भीम को आश्वासन दिया था कि बुलाए जाने पर वह तुरंत उसकी सेवा में उपस्थित होगा।
बकासुर वध
लाक्षागृह से जीवित बच निकलने के बाद पाण्डवों ने ब्राह्मणों का वेष धरा और चलते चलते एकचक्र गांव में पहुँचे। एक ब्राह्मण परिवार ने उन्हें आश्रय तथा भोजन दिया। रात में उन लोगों ने ब्राह्मण परिवार के रोने और बातचीत करने की आवाज सुनी। कुंती ने जाकर उनसे उनकी परेशानी का कारण पूछा। ब्राह्मण ने बताया, “यहां वन में बकासुर नामक दैत्य रहता है। गांव वाले प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति को प्रतिदिन भोजन स्वरूप उसके पास भेजते हैं जिससे वह सब तहस नहस न करे। कल मेरी बारी है।” कुंती ने उसे शांत रहने के लिए कहा और सहायता का वचन दिया। उसने कहा कल उसका एक पुत्र जाएगा। कुंती ने भीम को दैत्य का भोजन लेकर भेजा। भीम जंगल पहुँचकर बकासुर के लिए गाड़ी भरकर लाया गया भोजन स्वयं बैठकर खाने लगा। इस बात से क्रोधित बकासुर ने भीम पर आक्रमण कर दिया। जोरदार युद्ध हुआ। भीम ने उसकी हड्डी पसली तोड़कर उसे मार डाला। इस प्रकार बकासुर वध से गांव वालों की समस्या का सदा के लिए अंत हो गया।
पाण्डवों का स्वयंवर के लिए प्रस्थान
एकचक्र नगरी में पाण्डव ब्राह्मणों के वेश में जीवन बिता रहे थे। इधर पांचाल नरेश की कन्या द्रौपदी के स्वयंवर की तैयारियां होने लगीं। एकचक्र नगरी के ब्राह्मण इस सूचना से बड़े प्रसन्न हुए और दान प्राप्ति की इच्छा से स्वयंवर में जाने की तैयारी करने लगे। पाण्डव भी उनके साथ हो लिए। स्वयंवर के लिए बड़ा सुंदर मण्डप बना हुआ था। चारों ओर राजकुमारों के रहने की व्यवस्था थी। देश-विदेश से राजा और राजकुमार पधारे थे। प्रतियोगिता कठिन थी । मंगलगान से दिशाएं गूंज रही थीं। मण्डप के बीचोंबीच एक बहुत बड़ा खंभा लगा था। उसके ऊपर चक्र में सोने की एक छोटी मछली घूम रही थी। नीचे जल से भरा पात्र रखा था। वहीं एक बड़ा सा धनुष भी रखा। था। घूमती हुई मछली की आंख में जल में प्रतिविम्ब देखकर जो भी तीर मारने में सफल होता वही द्रौपदी से विवाह का अधिकारी होता। तभी मण्डप में घोड़े पर सवार राजकुमार धृष्टद्युम्न और पीछे हाथी पर सवार द्रौपदी आयी।
द्रौपदी का स्वयंवर
द्रौपदी बहुत ही सुंदर राजकुमारी थी। उसकी योग्यता और गुणों की चर्चा दूर-दूर तक फैली हुई थी इसीलिए सभी उससे विवाह के इच्छुक थे। द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने मण्डप में घोषणा करी, “खंभे के ऊपर घूमती हुई मछली की परछाई नीचे जल में देखकर उसकी आंख में जो भी तीर मारेगा वही मेरी बहन द्रौपदी से विवाह का अधिकारी होगा।” कई राजा और राजकुमार सामने आए पर असफल रहे। शिशुपाल, जरासंध, शल्य, दुर्योधन तक असफल रहे। तब अर्जुन अपनी जगह से उठा। प्रभु का ध्यान कर उसने धनुष उठाया, डोरी चढ़ाई और घूमती हुई मछली की आंख में निशाना लगा बाण छोड़ दिया। तीर सीधा मछली की आंख में लगा। द्रौपदी ने आगे बढ़कर अर्जुन को वरमाला पहना दिया। लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न था। राजकुमारों में हलचल मच गई। विरोध हुआ कि ब्राह्मण के लिए तो स्वयंवर की रीति नहीं होती। श्रीकृष्ण, बलराम और कुछ राजा शोर मचाने वालों को समझा रहे थे तब तक अर्जुन द्रौपदी को लेकर अपने घर चल दिया। अर्जुन की सत्यता जानने के लिए धुष्टद्युम्न भी चुपचाप उसके पीछे चल दिया।
द्रौपदी और उसके पांच पति
पाण्डव अपनी मां के साथ एक गरीब कुम्हार के घर में रह रहे थे। स्वयंवर के पश्चात् सभी भाई द्रौपदी के साथ अपनी मां के पास आए। पाण्डव भिक्षाटन पर ही जीवित थे। भिक्षा लेकर जब सभी भाई लौटते थे तब मां कहती थी, “जो भी लाए हो पांचों आपस में बांट लो।” उस दिन भी युधिष्ठिर ने कहा, “मां, देखो हम क्या लाए हैं!” कुंती घर के काम में व्यस्त थी। उसने सोचा कि ये सब भिक्षा लाए होंगे। प्रतिदिन की तरह उसने कहा, “जो भी लाए हो आपस में बांट लो।” मां ने यह क्या कह दिया… सभी भाई सकते में आ गए। जब कुंती ने एकदम शांति देखी तब सिर उठाकर देखा और उसे अपनी भूल का अहसास हुआ। पाण्डव अपनी मां की इच्छा का अनादर नहीं कर सकते थे। इसी कारण पांचों पाण्डव द्रौपदी के पति कहलाए। धृष्टद्युम्न ने वापस जाकर आंखों देखा हाल द्रुपद को बताया। द्रुपद के बुलावे पर पांचों भाई माता कुंती और द्रौपदी के साथ राज-भवन पहुँचे। युधिष्ठिर ने द्रुपद को अपना सही परिचय दे दिया। सबकी सम्मति से द्रौपदी के साथ पांचों पाण्डवों का विवाह हो गया।।
विदुर पाण्डवों को वापस लाए
द्रौपदी के स्वयंवर का समाचार हस्तिनापुर पहुँचा तो महात्मा विदुर अत्यंत प्रसन्न हुए। वह धृतराष्ट्र के पास दौड़े गए और उन्हें पाण्डवों के जीवित होने तथा स्वयंवर की सूचना दी। धृतराष्ट्र भीतर से सहम गए पर ऊपर से शांत रहे। दुर्योधन को जब पता चला तो उसके मन की ईर्ष्या और प्रबल हो गई तथा दवा हुआ और पुनः जाग उठा। भीष्म पितामह प्रसन्न थे। धृतराष्ट्र को भीष्म पितामह तथा आचार्य द्रोण ने सलाह दी. “लाक्षागृह काण्ड के बाद नगर में तरह-तरह की बातें हो रही हैं। सभी तुम्हें दोषी ठहराते हैं। पाण्डवों को वापस बुलाकर आधा राज्य देने से कुल का कलंक मिट जाएगा।” विदुर ने भी भीष्म तथा द्रोण के विचार को सही बतलाते हुए अपनी सहमति दी। धृतराष्ट्र ने सोच-विचार कर पाण्डु पुत्रों को आधा राज्य देकर संधि कर लेने का निश्चय किया और पाण्डवों को द्रौपदी तथा कुंती सहित सादर लिवा लाने के लिए विदुर को पांचाल देश भेजा। विदुर का अनुरोध सुनकर द्रुपद के मन में शंका हुई। उन्हें धृतराष्ट्र पर विश्वास नहीं था। तब विदुर ने कुंती को समझा-बुझा कर हस्तिनापुर लौटने के लिए सहमत किया।
राज्य का बंटवारा
विदुर कुंती और द्रौपदी के साथ पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर पहुँचे। हस्तिनापुर में पाण्डवों का जोरदार स्वागत हुआ। गलियों में पानी छिड़का गया, रंग-बिरंगे फूल बिछाए गए। सारा नगर सजाया गया था। पाण्डवों को देखकर लोगों के आनन्द का पारावार न था । पाण्डवों को आधा राज्य देकर यथाविधि युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया गया। युधिष्ठिर को आशीर्वाद देते हुए धृतराष्ट्र ने कहा, “पुत्र युधिष्ठिर, भैया पाण्डु की भांति तुम भी यशस्वी बनो, अपने राज्य का विस्तार करो। तुम्हारे पिता पाण्डु मेरा कहा कभी नहीं टालते थे। तुमसे भी वही आशा है। मेरे बेटे दुरात्मा हैं। साथ रहने से वैर बढ़ सकता है इसलिए खांडवप्रस्थ को अपनी राजधानी बनाकर वहीं से राज करना । खांडवप्रस्थ हमारे प्रतापी पूर्वजों की राजधानी रही है। हमारे वंश की पुरानी राजधानी खांडवप्रस्थ को पुनः बसाने का यश और श्रेय तुम्हें प्राप्त हो।” धृतराष्ट्र के वचनों को शिरोधार्य कर युधिष्ठिर ने सिर झुकाया। खाण्डवप्रस्थ निर्जन वन बन चुका था। पाण्डवों ने अपने परिश्रम से उसे पुनः बसाने का निर्णय किया।
कृष्ण और गोवर्धन
स्वयं नारायण ने कृष्ण के रूप में असुरों के संहार तथा धर्म की स्थापना के लिए, देवकी और वासुदेव के पुत्र के रूप में मथुरा में जन्म लिया था। उनका लालन-पालन वृंदावन में यशोदा और नंद ने किया था। बचपन में उन्होंने कई असुरों का वध किया। वृंदावन में प्रति वर्ष इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए भव्य यज्ञ किया जाता था जिससे राज्य को वृष्टि और समृद्धि मिले। कृष्ण ने कहा कि बादलों को रोककर हमें वर्षा तो गोवर्धन पर्वत देता है अतः हमें उसकी पूजा करनी चाहिए। वृंदावन वासी कृष्ण से सहमत हुए, गोवर्धन की पूजा की गई। इन्द्र रुष्ट हो गए और मूसलाधार बारिश से वृंदावन में बाढ़ लाने का निश्चय किया। कृष्ण ने अपनी कानी उंगली पर छतरी की तरह गोवर्धन पर्वत को उठा लिया और वृंदावन वासी तथा पशुओं को पर्वत के नीचे आश्रय लेने के लिए कहा। आश्चर्यचकित इन्द्र समझ गए कि यह बालक साधारण बालक न होकर अवश्य ही नारायण का अवतार है।
कंस वध और द्वारका गमन
भविष्यवाणी के कारण कंस ने कई बार अपने भांजे कृष्ण को मरवाने की चेष्टा करी थी। पर हर बार जो भी कृष्ण को मारने जाता वह स्वयं मारा जाता था। कंस ने कृष्ण को मारने के लिए मथुरा बुलाया और मदमस्त हाथी से कुचलवाने का प्रयास किया। कृष्ण ने पहले हाथी और फिर कंस को ही मार डाला। अपने माता-पिता, देवकी और वसुदेव, को कारागार से मुक्त करवाकर अपने नाना उग्रसेन को कैद से बाहर निकाला और मथुरा का राजा बना दिया। मगध नरेश जरासंध कंस का श्वसुर था। कंस का मारा जाना उसे बहुत बुरा लगा और वह श्रीकृष्ण का शत्रु बन बैठा। श्रीकृष्ण से बदला लेने के लिए उसने मथुरा पर सत्रह बार हमला किया। मथुरा की प्रजा बेचारी लड़ते-लड़ते थक चुकी थी। तंग आकर कृष्ण ने विश्वकर्मा से एक नया नगर बसाने का अनुरोध किया। रातों रात विश्वकर्मा ने द्वारका नामक अति सुंदर नगरी का निर्माण किया। कृष्ण अपनी प्रजा को लेकर मथुरा से द्वारका चले गए।
रेवती बलराम विवाह
द्वारका कभी एक द्वीप था जहां राजा ककुदमी का शासन था। उनकी पुत्री रेवती विवाह योग्य हो गई थी। वे उसका विवाह किसी सुयोग्य वर से करना चाहते थे। दुर्भाग्यवश उन्हें धरती पर ऐसा कोई सुयोग्य वर नहीं मिला। तब वह ब्रह्मा जी की सलाह लेने अपनी पुत्री के साथ ब्रह्मलोक चले गए। ब्रह्मा जी ने राजा ककुदमी को सलाह दी कि रेवती का विवाह कृष्ण के बड़े भाई बलराम से करा देना चाहिए। ब्रह्मा जी की सलाह मानकर राजा ककुदमी ने बलराम से मिलकर रेवती के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। बलराम ने रेवती को देखा। वह कद में बहुत ही ऊँची थी। बलराम ने अपने हल के अग्रभाग से रेवती के सिर को छुआ तथा चेहरे को उठाया। रेवती का कद छोटा होकर सामान्य हो गया। बलराम इस विवाह के लिए सहमत हो गए। दोनों का विवाह हो गया। ककुदमी ने प्रसन्नतापूर्वक यादव वंश को द्वारका दे दिया।
बलराम का क्रोध
वत्सला और अभिमन्यु परिणय सूत्र में बँध गए थे। उन दोनों के विवाह से दुर्योधन क्रोधित हो गया था। उसने इसे अपना अपमान समझा। पहले दुर्योधन कृष्ण के पुत्र सांबा के साथ अपनी पुत्री लक्ष्मणा का विवाह करने के लिए राजी था पर अब उसने मना कर दिया। सांबा ने लक्ष्मणा का अपहरण कर उससे विवाह करना चाहा किन्तु दुर्योधन ने उसे पकड़कर बंदी बना लिया बलराम ने दुर्योधन से सांबा को छोड़ने के लिए कहा पर दुर्योधन ने बलराम तथा उनके पूरे वंश को अपशब्द कहा। नाराज होकर बलराम ने अपना रूप बढ़ाया। वह आकाश तक ऊँचे हो गए। उन्होंने अपने हल का अग्र भाग हस्तिनापुर की धरती में फँसाया और उसे खींचते हुए समुद्र की ओर जाने लगे। हस्तिनापुर वासी त्राहि-त्राहि कर उठे। दुर्योधन घबरा गया और अपने किए हुए के लिए बलराम से क्षमा याचना करने लगा। दुर्योधन का मित्र तथा गदा युद्ध का शिक्षक होने के कारण बलराम ने उसे क्षमा कर हस्तिनापुर छोड़ दिया। तब जाकर दुर्योधन सांबा और लक्ष्मणा के विवाह के लिए तैयार हुआ।
सत्यभामा- कृष्ण विवाह
कंस को मारकर कृष्ण ने यह सिद्ध कर दिया था कि वह यादवों के वंशज तथा देवकी वसुदेव के पुत्र थे। अभी भी कुछ यादव उन्हें अपने वंश का नहीं मानते थे। एक बार प्रसेनजित नामक एक यादव शिकार करने गया हुआ था। वह वापस नहीं आया। प्रसेनजित के परिवार को लगा कि कृष्ण ने मणि चुराकर प्रसेनजित को मार डाला है। कृष्ण सत्य सामने लाना चाहते थे। वह स्वयं प्रसेनजित को ढूंढने गए। उन्होंने उसके क्षत-विक्षत शरीर को जंगल में पाया। उसके गले की स्यमंतक मणि गायब थी। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि प्रसेनजित एक शेर के द्वारा मारा गया था और मणि को एक भालू ले गया था, जिसे उन्होंने वापस दिलवाया। प्रसेनजित का परिवार अपने व्यवहार पर बहुत शर्मिन्दा हुआ। भाई सत्यजित ने तब क्षतिपूर्ति स्वरूप अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह कृष्ण के साथ कर उन्हें स्यमंतक मणि भी उपहार में दे दी।
खाण्डवप्रस्थ ‘इन्द्रप्रस्थ’ बना
कुरु वंश की पुरानी राजधानी खाण्डवप्रस्थ अब तक घने वन में परिवर्तित हो चुकी थी। कृष्ण और अर्जुन ने यह हाल देखकर निश्चय किया कि इसे जलाकर नया नगर बसाया जाए। अर्जुन ने अग्निदेव का आवाहन किया। अग्नि देव ने प्रकट होकर अर्जुन से कहा, “मुझे इस वन को खाने दो…. घी खाते-खाते बहुत दिन हो गए… मैं अपनी शक्ति और तेज खो चुका हूँ।” अर्जुन सहमत हो गया और अग्निदेव ने पूरे वन को अपनी चपेट में लेना प्रारम्भ कर दिया। इन्द्र को जब इसका पता चला तब उन्होंने वर्षा देव वरुण को अग्नि बुझाकर खाण्डवप्रस्थ के जन्तुओं को बचाने भेजा। अर्जुन ने तुरंत अपने बाणों से एक बड़ा छाता तैयार कर दिया। अंततः इन्द्र ने अपनी हार मान ली और कहा, “अर्जुन, तुम जीते! अब यह धरती तुम्हारी है।” अर्जुन ने कहा, “पिता जी ! आपके आशीर्वाद से इसी धरती पर मैं स्वर्ग बनाऊँगा।” इस प्रकार अर्जुन ने अपने पिता इन्द्र के सम्मान में उस धरती का नया नाम ‘इन्द्रप्रस्थ’ रखा।
अर्जुन को गाण्डीव मिला
अर्जुन की प्रार्थना पर अग्निदेव की कृपा से खाण्डवप्रस्थ वन पूरी तरह भस्म हो चुका था। अग्निदेव की क्षुधा शांत हो गई थी और उनकी आभा भी वापस लौट आई थी। कार्य पूरा हो जाने पर वह स्वयं प्रकट हुए। अर्जुन ने उन्हें सादर नमन कर आभार व्यक्त किया। आशीर्वाद स्वरूप अग्निदेव ने वरुण देव की सहायता से अर्जुन को दिव्य धनुष गांडीव तथा तीरों से भरे दो तरकस दिए। यह दिव्य धनुष बड़ा ही विशेष था। इसमें 108 दिव्य प्रत्यंचा थी जिसमें एक लाख धनुष जितनी शक्ति थी। तीरों से भरे दो तरकस थे जिनमें कभी न समाप्त होने वाले तीर थे। इस शक्तिशाली दिव्य गाण्डीव के कारण अर्जुन की शक्ति कई गुणा बढ़ गई. थी। इन विशेष शस्त्रों के कारण ही अर्जुन बाद में कई महान योद्धाओं को पराजित कर पाया था। कुरुक्षेत्र युद्ध में इनसे अर्जुन को बहुत सहायता मिली थी।
मायासुर और माया महल
जब खाण्डवप्रस्थ अग्नि की चपेट में था तब किसी तरह माया नामक असुर अग्नि से बच निकलने में सफल हो गया। उसने अर्जुन और कृष्ण से प्राणदान मांगा और सहायता का वचन दिया। मायासुर बहुत ही अच्छा शिल्पकार था। कृष्ण ने बाद में उसे इन्द्रप्रस्थ बनाने की जिम्मेदारी सौंपी। विश्वकर्मा की सहायता से सुंदर उद्यान तथा मार्गों का निर्माण हुआ। मायासुर ने मयसभा नामक भ्रमित करने वाला एक भव्य महल बनाया। पाण्डवों का महल इन्द्रजाल जैसा था। इसकी जमीन पानी की अनुभूति देती थी। उसमें जड़ी हुई मछलियां जीवित मछली का भ्रम पैदा करती थीं। सुनहरी दीवारें और गलियारे कीमती रत्न जड़ित थे। महल के चारों ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष थे जिनमें सदा फूल खिलते थे। वातावरण अत्यंत सुगंधित था। सरोवर में असली तथा नकली दोनों प्रकार के पुष्प तथा मछलियां थीं। महल में कड़ी सुरक्षा का प्रबंध था। ऐसे सुन्दर महल के निर्माण में लगभग एक वर्ष का समय लगा था। परिणामस्वरूप कौरवों की ईर्ष्या कई गुणा बढ़ गई थी।
अर्जुन-हनुमान मुलाकात
इन्द्रप्रस्थ में सब कुशल मंगल था। एक दिन अर्जुन ने अपने मित्र कृष्ण से मिलने के लिए द्वारका जाने का निश्चय किया। रास्ते में एक नदी मिली। उसे पार करना था। उसने प्रभु राम के विषय में सोचा और बोला, “यदि राम जैसे महान् धनुर्धर समुद्र पर पुल बना सकते हैं तो मैं क्यों नहीं बना सकता?” पेड़ पर बैठे हनुमान ने यह सुना। उछलकर नीचे आए और अर्जुन से कहा, “राम ने तो पत्थर का पुल बनाया था… तीरों का पुल तो बंदर का भार भी नहीं सह सकता है।” अत्यंत गर्व के साथ अर्जुन ने कहा, “तुम सोचते हो मैं नहीं कर सकता?” अर्जुन ने तीरों का पुल बना दिया। हनुमान ने जैसे ही पैर रखा वह टूट गया। अर्जुन कितना भी मजबूत पुल बनाता पर वह टूट जाता। कई बार ऐसा हुआ। उधर से जाते हुए एक संयासी ने कहा, “पुल बनाते समय अर्जुन तुम राम कृष्ण का नाम लो।” इस बार अर्जुन ने वैसा ही किया। हनुमान ने पैर रखा पर वह नहीं टूटा। तब हनुमान ने अर्जुन को अपना असली रूप दिखाया। अर्जुन ने उनसे अपने गर्व के लिए क्षमा याचना की।
अर्जुन ऐरावत लाया
अपनी संतान की सुरक्षा तथा लंबी उम्र के लिए एक बार कुंती और गंधारी ने एक विशेष पूजा करने का निश्चय किया। इसमें उन्हें हाथी की पूजा करनी थी। कुती ने पूजा के लिए कुम्हार को मिट्टी का हाथी बनाने के लिए कहा जबकि गांधारी ने सोने का हाथी बनवाया। यह देख अर्जुन को माँ के लिए बहुत बुरा लगा। उसने अपने पिता इन्द्र देव का आवाहन किया और कहा, “पिताजी, क्या आप माँ की पूजा के लिए अपने दिव्य हाथी ऐरावत को भेज सकते हैं?” इन्द्र ने कहा, “अवश्य पुत्र, किन्तु ऐरावत धरती तक आयेगा कैसे?” उसी समय अर्जुन ने अपने तीरों की वर्षा स्वर्ग की ओर कर दी जिसके परिणाम स्वरूप हवा में ही स्वर्ग से धरती तक एक पुल का निर्माण हो गया। इसी पुल के सहारे ऐरावत धरती पर आ गया और कुंती ने अपनी विशेष पूजा सम्पन्न करी। गांधारी तथा शेष सभी इस अचम्भे को देखते ही रह गए।
द्रौपदी क्यों पूजी जाती है?
एक दिन की बात है, अर्जुन और भीम ने देखा कि युधिष्ठिर सोई हुई द्रौपदी के चरण स्पर्श कर रहे थे। यह देखकर उन्हें अत्यंत आश्चर्य हुआ। उन्होंने युधिष्ठिर से इसका कारण जानना चाहा। उत्तर देने के लिए युधिष्ठिर ने उन्हें रात्रि में आने के लिए कहा। रात में दोनों भाई युधिष्ठिर के पास गए। युधिष्ठिर उन्हें अपनी कुटिया के पास के वट वृक्ष के पास ले गए। वहाँ उन्होंने कई देवों को पेड़ से देवी का आवाहन करते हुए देखा। थोड़ी ही देर में पेड़ से एक देवी प्रकट हुई। वह और कोई नहीं वरन् स्वयं द्रौपदी ही थी। देवताओं ने उसे बड़े सम्मान के साथ सोने के सिंहासन पर बैठाया और फूलों से उसकी पूजा-अर्चना की। यह सब अपनी आँखों से देखने पर अर्जुन और भीम को विश्वास हो गया कि द्रौपदी वस्तुतः मानव रूप में एक देवी ही थी और देवी होने के कारण की वह पूजी जाती थी।
अर्जुन – चित्रांगदा विवाह
इन्द्रप्रस्थ की ओर से मैत्री का संदेश लेकर अर्जुन मणिपुर गया था। वहाँ की राजकुमारी चित्रांगदा अर्जुन को देखते ही उस पर मोहित हो गई। अर्जुन ने पहले तो विवाह से मना किया पर मणिपुर के राजा ने जब अर्जुन के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा तब अर्जुन ने उसे स्वीकार कर लिया। फलतः चित्रांगदा के साथ उसका विवाह हो गया। चित्रागदा और अर्जुन का वभ्रुवाहन नामक एक पुत्र हुआ। अपने पुत्र को चित्रांगदा ने सभी युद्ध कलाओं में पूर्णतः निपुण कर दिया था। अपने पिता अर्जुन की भाँति वह भी अत्यंत वीर और साहसी था। विवाह के समय राजा ने यही शर्त रखी थी कि चित्रांगदा का पहला पुत्र मेरा उत्तराधिकारी होगा। इसलिए वभ्रुवाहन का पालन-पोषण मणिपुर में ही हुआ था। वभ्रुवाहन बड़ा होकर मणिपुर का राजा बना। अपने नाना के पश्चात् उसने ही राजकाज संभाला।
अर्जुन और अप्सरा
अपनी शक्तियों को बढ़ाने के उद्देश्य से घूमता घूमता अर्जुन एक आश्रम में पहुँचा। वहाँ ऋषियों ने उसे कर्णधाम, सौभद्र, भरद्वाज, अगस्त्य और पौलुमा नामक पवित्र सरोवरों के विषय में बताया कि इनमें स्नान करने वाला व्यक्ति पवित्र हो जाता है। पर चिंता का विषय यह है कि उन सभी में एक-एक मगरमच्छ रहता है और किसी को भी अंदर नहीं जाने देता है। अर्जुन ने मगरमच्छों से निपटने का निश्चय किया। उसे उसकी पत्नी नाग राजकुमारी उलुपी ने वरदान दिया था कि उसे जलचर कोई हानि नहीं पहुँचाएँगे। सर्वप्रथम अर्जुन अगस्त्य सरोवर में गया। मगरमच्छ बाहर आया। दोनों में जमकर युद्ध हुआ। अंततः मगरमच्छ ने अपनी हार स्वीकार कर ली। वस्तुतः वह एक श्रापित अप्सरा थी। अर्जुन से हारकर वह श्राप मुक्त हो गई थी। अप्सरा ने अर्जुन का धन्यवाद किया तथा अन्य सरोवरों में मगरमच्छ रूपधारी अपनी अन्य सखियों को भी श्राप मुक्त करने का अनुरोध किया जिन्हें ध्यानमग्न ऋषियों का ध्यान भंग करने के कारण श्रापित होना पड़ा था। अर्जुन ने सभी अप्सराओं को श्रापमुक्त कराकर पवित्र सरोवर को फिर से मनुष्यों के लिए पवित्र और सुरक्षित कर दिया।
राजसूय यज्ञ का विचार
प्रतापी पाण्डव इन्द्रप्रस्थ में न्याय पूर्वक राज्य भार संभाल रहे थे। युधिष्ठिर के भाइयों की इच्छा राजसूय यज्ञ करने की हुई जिससे युधिष्टिर को सम्राट् पद प्राप्त हो। इसी संबंध में सलाह करने के लिए युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को द्वारका संदेश भेजा। श्रीकृष्ण तुरंत इन्द्रप्रस्थ आए। उन्होंने कहा, “मगध देश के राजा जरासंध ने कई राजाओं को जीतकर अपने अधीन कर रखा है। शिशुपाल जैसा शक्ति सम्पन्न राजा भी उसके अधीन है जरासंध से तंग आकर मुझे द्वारका जाना पड़ा। उसके वध के पश्चात् ही राजसूय यज्ञ सम्भव है।” युधिष्ठिर ने यह सुनकर राजसूय यज्ञ का विचार त्याग देना ही श्रेयस्कर समझा। श्रीकृष्ण ने पुनः कहा, “जरासंध ने कई राजाओं को कैद कर रखा है। उनकी संख्या सौ हो जाने पर वह पशुओं की जगह उन राजाओं का वध कर यज्ञ का अनुष्ठान करेगा। ऐसे अत्याचारी को मारना ही न्यायोचित है।” श्रीकृष्ण की बात सबकी समझ में आ गई और अंत में जरासंध के वध पर सबकी सम्मति बनी।
जरासंध – भीम युद्ध
कंस के श्वसुर जरासंध से युद्ध करने की जगह श्रीकृष्ण ने उससे द्वन्द्व-युद्ध की सलाह दी। श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन ने वल्कल धारण कर ब्राह्मण वेष धरा और मगध देश के लिए रवाना हो गए। जरासंध ने कुलीन अतिथि समझकर उनका स्वागत किया। पुनः जब जरासंध अतिथियों से मिलने गया तब इन पर उसे कुछ शंका हुई। इन्होंने अपना असली रूप प्रकट कर दिया। कृष्ण ने कुश्ती के लिए उसे ललकारा और प्रतिद्वन्द्वी चुनने को कहा। जरासंध ने भीम को चुना। शिव जी के वरदान के कारण जरासंध अजेय था। कई दिनों तक लगातार कुश्ती चली। भीम जरासंध को दो भागों में फाड़ता पर दोनों भाग जुड़ जाते और वह जीवित हो उठता था। असहाय भीम ने कृष्ण की ओर देखा। अंत में कृष्ण ने एक तिनका उठाकर उसे दो भागों में फाड़ा और उन्हें विपरीत दिशा में फेंका। भीम ने इशारा समझ लिया। उसने जरासंध को दो भागों में फाड़ा और शरीर के दोनों टुकड़ों को विपरीत दिशा में फेंक दिया जिससे वह जुड़ नहीं पाया और उसका अंत हो गया। तत्पश्चात् सभी बंदी राजाओं को मुक्त कराया गया। उन्होंने युधिष्ठिर की प्रभुता स्वीकार की।
कृष्ण और शिशुपाल
चेदि नरेश शिशुपाल श्रीकृष्ण का चचेरा भाई था। वह अत्यंत शक्तिशाली था पर श्रीकृष्ण से बहुत ईर्ष्या करता था। उसके जन्म के समय ही भविष्यवाणी हुई थी कि कृष्ण उसकी मृत्यु का कारण बनेंगे। शिशुपाल की मां ने कृष्ण से प्रार्थना की थी कि वह शिशुपाल को क्षमा कर दें। कृष्ण ने उनसे वादा किया था कि वह शिशुपाल को उसकी सौ गलतियों के लिए क्षमा कर देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में पाण्डवों ने कृष्ण की अग्रपूजा की। शिशुपाल ने इसका विरोध करते हुए कहा कि कृष्ण इस प्रतिष्ठा के अधिकारी नहीं हैं। उसने कृष्ण को अपशब्द, दुर्वचन और नीचा दिखाने की भरपूर चेष्टा करी। कृष्ण शिशुपाल की गलतियों को चुपचाप क्षमा करते रहे। सौ बार तक कृष्ण चुप थे पर एक सौ एकवीं बार उन्होंने अपना सुदर्शन चक्र उठाया और सबों के देखते-देखते ही वहीं शिशुपाल का अंत कर दिया। लोग आश्चर्यचकित देखते ही रह गए।
अर्जुन अपने पुत्र से लड़ा
बभ्रुवाहन अर्जुन और चित्रांगदा का पुत्र था। उसका मणिपुर पर शासन था। युधिष्ठिर के राजा बनने के पश्चात् पाण्डवों ने अश्वमेध यज्ञ करने को निश्चय किया। एक सफेद घोड़ा छोड़ा गया। विभिन्न राज्यों से होता हुआ घोड़ा जाने लगा। जिस राज्य से वह निर्विरोध गुजर जाता वह युधिष्ठिर के अधीन हो जाता। यदि कोई शासक उसका विरोध करता तो उसे युद्ध करना पड़ता। घूमता- घूमता घोड़ा मणिपुर पहुँचा । वभ्रुवाहन ने उसे पकड़ लिया। और अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा। जोरदार युद्ध हुआ। वभ्रुवाहन के बाण से अर्जुन की मृत्यु हो गई। अर्जुन की दूसरी पत्नी उलूपी ने तुरंत प्रकट होकर कहा, ” भीष्म पितामह की मृत्यु का कारण बनने की वजह से अर्जुन के भाग्य में यह मृत्यु लिखी हुई थी। भीष्म की माँ गंगा ने यह श्राप दिया था।” उलूपी ने ‘नागमणि’ की सहायता से अर्जुन को वापस जीवन-दान दिया।
शकुनी और दुर्योधन का षड्यंत्र
राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर का वर्चस्व और पाण्डवों का वैभव देखकर दुर्योधन का दुःख असह्य हो उठा था। अपने महल के कोने में वह चिंतित और उदास खड़ा था तभी उसके पास उसका मामा शकुनी आ खड़ा हुआ। मामा ने भांजे से उसके दुःख और उदासी का कारण पूछा। एक लंबी सांस लेकर दुर्योधन ने कहा, “चारों भाइयों के साथ युधिष्ठिर ठाठ से राज कर रहा है… सबके सामने शिशुपाल की हत्या हुई और कोई कुछ न बोला… किसी ने भी विरोध नहीं किया… क्षत्रिय राजाओं ने अपार संपत्ति युधिष्ठिर को भेंट दी… यह देखकर क्या दुःखी न होऊँ मामा?” दुर्योधन ने उनके विरुद्ध युद्ध छेड़ने की बात करी। मामा ने युद्ध की जगह चतुराई से काम लेने के लिए कहा। शकुनी ने कहा, “युधिष्ठिर को चौसर के खेल का बड़ा शौक है पर उसे खेलना नहीं आता है। खेलने का न्यौता देने पर क्षत्रियोचित धर्म मानकर युधिष्ठिर अवश्य खेलने आएगा। मैं चौसर का मंजा हुआ खिलाड़ी हूँ। तुम्हारी ओर से खेलकर उसका राज्य और ऐश्वर्य जीतकर मैं तुम्हें दे दूंगा।”
चौसर का आमंत्रण
दुर्योधन और शकुनी महाराज धृतराष्ट्र के पास गए। उन्होंने धृतराष्ट्र से युधिष्ठिर को चौसर के खेल के लिए बुलाने के लिए कहा। उस समय क्षत्रिय राजा द्वारा चौसर खेलने का निमंत्रण अस्वीकार करना क्षत्रिय धर्मविरुद्ध माना जाता था। धृतराष्ट्र पहले तो युधिष्ठिर को बुलाने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने दुर्योधन को समझाने की चेष्टा करी पर दुर्योधन और शकुनी की कुमंत्रणाओं का प्रभाव धीरे-धीरे धृतराष्ट्र पर पड़ने लगा और बेटे का आग्रह मानकर उन्होंने चौसर के खेल के आयोजन की अनुमति दे दी। महामंत्री विदुर इसके पक्ष में कतई नहीं थे। उन्होंने इससे वंश का नाश होने की चेतावनी दी और इस कुचाल को रोकने के लिए कहा। यह खेल आपसी मनमुटाव और झगड़े फसाद को जन्म देता है- यह भी समझाया पर पुत्र मोह से मोहित धृतराष्ट्र ने अंततः दुर्योधन की बात मान ली। शकुनी अपनी चाल में सफल हो गया। युधिष्ठिर को चौसर के खेल का आमंत्रण देने के लिए विदुर को भेजा गया।
चौसर का खेल
विदुर राजा की आज्ञा मानकर इन्द्रप्रस्थ गए। युधिष्ठिर को आमंत्रण देकर चौसर को सभी अनर्थों की जड़ बताया। पर आमंत्रण अस्वीकार करने से धृतराष्ट्र इसे अपमान न समझ लें यह विचारकर युधिष्ठिर खेलने के लिए तैयार हो गए और अपने भाइयों को लेकर हस्तिनापुर आए। मण्डप दर्शकों से खचाखच भरा था। द्रोण, भीष्म, कृपाचार्य, विदुर, धृतराष्ट्र, कर्ण सभी उपस्थित थे। यह खेल झगड़े की जड़ होगा यह जानते हुए भी वे उसे रोक न सके। दुर्योधन की ओर से शकुनी खेल रहा था। पहले रत्नों, सोने-चांदी, हाथी-घोड़ों, नौकर-चाकर की बाजी लगी। धीरे-धीरे युधिष्ठिर सेना, प्रजा, वस्त्र, आभूषण यहां तक कि एक-एक कर अपने भाइयों को भी हारते गए। पासे मानो शकुनी के इशारों पर चल रहे थे। शकुनी ललकारता रहा और विधि के वशीभूत युधिष्ठिर ने स्वयं को और फिर द्रौपदी की भी बाजी लगा दी और हार गए। शकुनी और कौरवों की प्रसन्नता का पारावार न था। दुर्योधन ने अपने सारथी प्रतिकामी को रनवास जाकर द्रौपदी को लाने भेजा।
द्रौपदी का अपमान
राजसूय यज्ञ करके राजाधिराज की पदवी को प्राप्त सम्राट् युधिष्ठिर की पटरानी द्रौपदी चौसर के खेल का परिणाम सुनकर अचेत सी हो गयी पर फिर शीघ्र ही संभलकर प्रतिकामी से जुए में हारने वालों से यह पूछने को कहा कि पहले वह अपने को हारे थे या मुझे? उत्तर मिलने पर ही वह मंडप में जाएगी। द्रौपदी की बात सुनकर झल्ला कर दुर्योधन ने अपने भाई दुःशासन को उसे लाने भेजा । दुःशासन ने सीधे द्रौपदी के कमरे में जाकर कहा, “सुंदरी, आओ। अब शर्म छोड़ो और कौरवों की बनकर रहो। हमने तुम्हें जीत लिया है। सभा में चलो, भाई ने बुलाया है।” द्रौपदी भीतर की ओर भागी पर दुःशासन उसके बाल पकड़कर बलपूर्वक सभा की ओर ले जाने लगा। सभा में उपस्थित वृद्धों से गंभीर स्वर में द्रौपदी ने कहा, “कुचक्र रचकर महाराज युधिष्ठिर को जाल में फंसाकर मुझे दांव पर लगवाया गया। पराधीन अपनी पत्नी की बाजी कैसे लगा सकता है। आप सब सत्य और न्याय को सामने रख मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए।” द्रौपदी की विकलता देखकर भीम सह न सका पर अर्जुन ने उसे रोक लिया। कर्ण ने पाण्डवों और द्रौपदी के कपड़े गहने सब उतारकर शकुनी को देने के लिए कहा।
द्रौपदी की गुहार
कर्ण की कठोर बातें सुनकर पांचों भाइयों ने अपने अंगोछे उतारकर सभा में फेंक दिए। दुःशासन द्रौपदी के पास जाकर उसकी साड़ी खींचने लगा। चारों ओर से निराश और बेआसरा होकर द्रौपदी ने आर्त स्वर में अपने प्रभु को पुकारा, “हे जगदीश ! हे प्रभु! मेरी लाज रख। मेरी आबरु अब तेरे ही हाथ है… हे दीनबंधु ! मुझे बचा लो… मेरी रक्षा करो। ” शोकविह्वल द्रौपदी हाथ जोड़े खड़ी थी। अद्भुत चमत्कार हुआ। दुःशासन द्रौपदी की साड़ी खींचता गया और साड़ी बढ़ती रही। देखते-देखते जमीन पर साड़ी का पहाड़ बन गया। हांफता हुआ दुःशासन थककर बैठ गया। यह दैवी चमत्कार देख सभा में कंपकपी फैल गयी। भीमसेन ने उठकर भयानक प्रतिज्ञा करी, “मैं आज शपथ लेता हूँ कि जब तक इस दुरात्मा दुःशासन की छाती चीरकर गरम खून से प्यास न बुझा लूं तब तक पितृ-लोक नहीं जाऊँगा।” उपस्थित लोगों के हृदय भय से थर्रा उठे। स्थिति की नाजुकता समझते हुए धृतराष्ट्र ने प्रेमपूर्वक द्रौपदी को पास बुलाकर सान्त्वना देते हुए कहा, “आज जो सभा में हुआ वह नहीं होना चाहिए था। तुम सब इन्द्रप्रस्थ जाने के लिए स्वतंत्र हो। “
पाण्डवों को वनवास
धृतराष्ट्र की बात सुनकर दुर्योधन आग बबूला हो उठा। जीती हुई बाजी वह किसी भी हालत में हाथ से नहीं जाने दे सकता था। प्रतिरोध करते हुए उसने कहा, “द्यूतक्रीड़ा में पाण्डवों ने स्वतः सब कुछ हारा है। इन सब पर अब मेरा अधिकार है। ये सब यहां से नहीं जा सकते। हां, आपकी आज्ञा का मान रखते हुए मैं इन्हें एक शर्त पर जाने दे सकता हूँ… पाण्डवों को अपना राज-पाट सभी छोड़कर बारह वर्षों के लिए वन जाना होगा और तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास करना होगा। यदि तेरहवें वर्ष में किसी भी तरह इनका पता लग गया तो इन्हें पुनः बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा। यदि यह प्रस्ताव मंजूर है तभी वे सब यहां से जा सकेंगे।” धृतराष्ट्र मौन रहे। सभा में किसी को कुछ कहने का साहस नहीं हुआ। शर्म से सभी की गरदन झुकी हुई थी। परिस्थिति की नाजुकता को समझते हुए तथा और कोई चारा न देख पाण्डव द्रौपदी को साथ लेकर वन की ओर चल दिये।
पाण्डवों की कृष्ण से ‘मुलाकात’
द्यूतक्रीड़ा के समय कृष्ण धन्तवक्र और शाल्व के साथ युद्ध कर रहे थे। शाल्व शिशुपाल का मित्र था। श्रीकृष्ण के हाथों अपने मित्र के मारे जाने की खबर पाकर वह क्रोध से भर उठा था और युद्ध कर रहा था। उसे मौत के घाट उतारने के बाद हस्तिनापुर में हुई घटनाओं की खबर श्रीकृष्ण को हुई और पाण्डवों तथा द्रौपदी के वन गमन का पता चला। श्रीकृष्ण तुरंत उनसे मिलने वन गए। श्रीकृष्ण को देखते ही बुझे हुए पाण्डवों के मन में जीवन का संचार हुआ। द्रौपदी ने उन्हें अपना दुखड़ा सुनाया। करुण स्वर में विलाप करती हुई द्रौपदी को श्रीकृष्ण ने बहुत समझाया और धीरज बंधाया। हर प्रकार से सहायता का वचन दिया। श्रीकृष्ण ने पाण्डवों से कहा कि यह समय हिम्मत हारने या विलाप करने का नहीं है। उन्हें दिव्यास्त्रों की प्राप्ति कर अपने आपको अधिक समर्थ बनाने की आवश्यकता है क्योंकि कौरव बिना युद्ध के राज्य वापस नहीं करेंगे। अर्जुन उनकी सलाह मानकर दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए हिमालय पर तपस्या करने चला गया। वहां वह महादेव का ध्यान कर तपस्या में लीन हो गया।
अर्जुन को पाशुपतास्त्र मिला
अर्जुन तपस्या में काफी समय से लीन था। एक दिन पिनाकपाणि महादेव जी शिकारी के रूप में उधर शिकार करते हुए आ निकले। वे एक जंगली सूअर का पीछा कर रहे थे। सूअर अर्जुन को सामने देख उस पर झपटा। अर्जुन ने अपने गांडीव से उस पर बाण चला दिया। उसी समय पिनाक तानकर महादेव जी ने भी सूअर पर तीर मारा। दोनों तीर एक साथ लगे, सूअर मर गया। अर्जुन और शिकारी दोनों उसे अपना शिकार बताने लगे। दोनों में लड़ाई होने लगी। अर्जुन के बाणों का शिकारी पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा था। उसके मुखमंडल पर प्रसन्नता थी। अर्जुन के तुणीर के सारे बाण समाप्त हो गए। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी और महादेव का ध्यान कर तलवार निकाल ली। तलवार टूट गयी और उसका दर्प चूर हो गया। उसे शिकारी में शिव दिखे। वह महादेव (शिकारी) के चरणों पर गिर पड़ा। उन्होंने अर्जुन को पाशुपत की विद्या और कई वरदान दिए । अर्जुन कृतार्थ हो गया।
अर्जुन को उर्वशी का श्राप
महादेव के स्पर्श से अर्जुन की शक्ति और कांति कई गुणा बढ़ गई थी। महादेव ने अर्जुन से कहा, “तुम देवलोक जाकर इन्द्र से मिल आओ।” यह कहकर महादेव अन्तर्धान हो गए अर्जुन को और इन्द्र का सारथी मातलि, देवराज का रथ लेकर सामने खड़ा दिखा। अर्जुन रथ पर सवार होकर इन्द्रलोक चल दिया। इन्द्र ने स्वर्ग में उसका स्वागत किया और कुछ समय वहां रहकर सुख लेने के लिए कहा। एक दिन अप्सरा उर्वशी ने अर्जुन को देखा। देखते साथ ही उर्वशी अर्जुन पर मोहित हो गई। उसने विवाह का प्रस्ताव रखा। पर अर्जुन ने विवाहित है कहकर प्रस्ताव ठुकरा दिया। उर्वशी क्रोधित हो उठी और उसने अर्जुन को स्त्री बनने का श्राप दे दिया। परेशान अर्जुन ने इन्द्र को यह बात बताई। उन्होंने श्राप में संशोधन करते हुए कहा, “अर्जुन, तुम मात्र एक वर्ष के लिए स्त्री बनोगे… तुम अपनी इच्छा से जब चाहो इसे अपना लेना ।” अर्जुन ने तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास के समय, वृहन्नला का रूप धरा और राजा विराट की पुत्री को नृत्य और संगीत की शिक्षा देता रहा।
घटोत्कच द्वारा पाण्डवों की सहायता
वनवास के समय, ऋषियों की सलाह पर पाण्डव गंदमादन पर्वत की ओर जा रहे थे। रास्ते में तेज हवाएं और बारिश के कारण ठंड से सब परेशान हो गए थे। रास्ता अत्यंत दुर्गम था। जब परेशानी असहय हो गई और द्रौपदी चल नहीं पा रही थी तब भीम ने अपने पुत्र घटोत्कच को याद किया। अपने दिए वचन के अनुसार घटोत्कच तुरंत प्रकट हुआ। भीम की परेशानी जानकर सहायता के लिए उसने अपने साथियों को भी बुला लिया। घटोत्कच ने माता द्रौपदी को अपने कंधे पर बिठाया और शेष सभी पाण्डव घटोत्कच के साथियों के कंधे पर बैठ गए। कुछ ही देर में घटोत्कच और उसके साथियों ने पाण्डवों को गंदमादन पर्वत पर पहुँचा दिया। घटोत्कच ने अपने पिता को दिए हुए अपने वचन को भली-भाँति निभाया और पाण्डवों की सहायता भी की।
भीम का गर्व चूर
एक दिन द्रौपदी एक सुंदर खुशबूदार फूल की ओर आकृष्ट हो गई। भीम उसकी तलाश में निकल पड़ा। चलते-चलते वह पहाड़ की घाटी में पहुँचा। बगीचे के बीच एक बंदर रास्ता रोके लेटा था। भीम ने कहा, “अरे ओ बंदर किनारे हट…” बंदर ने लेटे-लेटे कहा, “मैं अस्वस्थ हूँ। आराम कर रहा हूँ… हिल नहीं सकता। यदि तुम्हें जाना ही है तो मेरी पूंछ किनारे करके चले जाओ।” बंदर ने आगे जाने से भीम को मना किया और आगे के खतरों से अगाह किया। भीम ने अपना परिचय देकर शेखी बघारी और फिर पूंछ हटाने के लिए झुका। पूरी शक्ति लगाकर भी वह पूंछ को हिला भी नहीं पाया…. उठाना तो दूर की बात है। पहले तो भीम को बहुत आश्चर्य हुआ पर फिर उसका गर्व चूर हो गया और वह लज्जित अनुभव करने लगा। ध्यान से देखने पर वह अपने अग्रज, वायु देव के पुत्र हनुमान को पहचान गया। भीम ने अपनी धृष्टता के लिए हनुमान से क्षमा याचना की। हनुमान ने कहा, “युद्ध के मैदान में तुम्हारी गर्जना के साथ मेरी गर्जना मिलकर शत्रुओं का हृदय हिला देगी। युद्ध में अर्जुन के रथ की ध्वजा पर मैं सदा विद्यमान रहूँगा।”
अक्षयपात्र
वनवास के समय जीवन यापन करना पाण्डवों के लिए कठिन था। अतिथि सत्कार करना भी उनका धर्म था, वे उन्हें मना कैसे कर सकते थे…. एक दिन द्रौपदी ने कृष्ण से कहा, ” वासुदेव, यदि मैं अतिथि का सत्कार नहीं करूंगी तो पाप की भागी होऊँगी किन्तु इस परिस्थिति में मैं ऐसा कैसे कर सकती हूँ? हमारे खाने के लिए भी पर्याप्त भोजन नहीं है।” श्रीकृष्ण ने कहा, “द्रौपदी, सूर्यदेव की उपासना करो। वहीं तुम्हें आशीर्वाद देंगे।” द्रौपदी ने ध्यानमग्न होकर सूर्यदेव की उपासना करी। सूर्यदेव प्रकट हुए। द्रौपदी ने अपनी चिंता उन्हें बताई। सूर्यदेव ने द्रौपदी को आशीर्वाद स्वरूप अक्षयपात्र दिया और कहा, “यह एक दिव्य पात्र है। तुम जितने लोगों को भी चाहो इससे भोजन करा सकती हो। इसके भीतर भोजन तब तक समाप्त नहीं होगा जब तक तुम खाना खिलाना समाप्त न कर दो और स्वयं न खा लो।” इस प्रकार सूर्यदेव के दिए हुए अक्षय पात्र से द्रौपदी पाण्डवों तथा आगंतुकों की क्षुधा शांत करती थी।
कृष्ण ने की सहायता
स्वभाव से क्रोधित दुर्वासा ऋषि ने एक बार दुर्योधन की सेवा से प्रसन्न होकर उसे खूब आशीर्वाद दिया। पाण्डवों का अहित कराने की इच्छा से दुर्योधन ने दुर्वासा को वनवास भोग रहे पाण्डवों के पास भेज दिया। उसने सोचा कि पाण्डव वन में दुर्वासा तथा उनके शिष्यों को भोजन नहीं करा पाएंगे तो उन्हें दुर्वासा के कोप का भाजन बनना पड़ेगा। दुर्वासा दुर्योधन के आग्रह से अपने दस हजार शिष्यों के साथ पाण्डवों के पास गए। द्रौपदी को भोजन तैयार करने के लिए कहकर शिष्यों के साथ नदी में स्नान करने चले गए। दुर्भाग्यवश उस दिन भोजन समाप्त हो चुका था। द्रौपदी ने दुर्वासा के श्राप से बचाने के लिए कृष्ण से प्रार्थना करी । कृष्ण ने कहा, “अक्षय पात्र लाओ।” पात्र के भीतर कृष्ण को चावल का एक दाना और एक पत्ता मिला। उसे खाकर कृष्ण ने पेट पर हाथ फेरकर डकार लिया। सहदेव दुर्वासा को भोजन के लिए बुलाने गया था। स्नान कर बाहर निकलते ही दुर्वासा ने अपने पेट पर हाथ फेरा और डकार ली। उन सबकी क्षुधा अपने आप शांत हो गई थी। वहीं से दुर्वासा ने सहदेव से क्षमा याचना करी और सभी वापस चले गए।
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