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Complete Mahabharata Story In Hindi | सम्पूर्ण महाभारत की कथा

Complete Mahabharata Story In Hindi | सम्पूर्ण महाभारत की कथा
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Complete Mahabharata Story In Hindi | सम्पूर्ण महाभारत की कथा

Complete Mahabharata Story In Hindi | सम्पूर्ण महाभारत की कथा- दुर्योधन अपमानित हुआ, कृमिरा से मुठभेड़, नहुष की श्रापमुक्ति, जट से मुठभेड़, यक्ष प्रश्न, अज्ञातवास, कीचक, घटोत्कच ने अभिमन्यु और वत्सला की सहायता की, कौरव – विराट युद्ध, दुर्योधन की हार, विराट का भ्रम, उत्तरा का विवाह एवं मंत्रणा, अर्जुन के सारथी कृष्ण, मामा विपक्ष में, राजदूत के द्वारा संधि संदेश, सच्चा मित्र, शांतिदूत श्रीकृष्ण, कुंती का संदेश, बर्बरीक और कृष्ण, कुंती कर्ण से मिली, पाण्डवों और कौरवों के सेनापति,बलराम का युद्ध से इंकार, कर्ण की दानवीरता, भीष्म और कर्ण का मतभेद, विदुर का युद्ध से इंकार, मोहग्रस्त अर्जुन, गीता का ज्ञान, आक्रामक भीष्म, भीष्म शरशय्या पर, वैष्णवास्त्र, वैष्णवास्त्र की कथा, अभिमन्यु चक्र व्यूह में घुसा, जयद्रथ वध, द्रोणाचार्य का अंत, कर्ण मारा गया,दुर्योधन को माँ का आशीर्वाद, अर्जुन के रक्षक कृष्ण, कृष्ण को गांधारी का श्राप, इत्यादि.

दुर्योधन अपमानित हुआ

एक बार कौरव द्वैतवन के लिए रवाना हुए। दुर्योधन और कर्ण सोच रहे थे कि पाण्डवों को कष्ट में देखकर उन्हें खूब आनंद आएगा। उन्होंने पाण्डवों के आश्रम से थोड़ी ही दूर पर अपना डेरा डाला। शीघ्र ही कुछ गंधवों ने उन पर आक्रमण कर दिया। पहले आमने-सामने युद्ध हुआ। गंधर्व हारने लगे तो क्रुद्ध होकर उन्होंने मायावी युद्ध शुरु कर दिया। कौरव टिक न पाए। कर्ण का रथ चूर-चूर हो गया। वह भाग खड़ा हुआ। दुर्योधन को गंधर्वराज ने पकड़कर रस्सी से बांध दिया। फिर उसने विजय का शंखनाद किया। युधिष्ठिर ने नकुल सहदेव को हाल जानने भेजा। जब उन्होंने सारा हाल बताया तो युधिष्ठिर ने कहा, “चलो, चलकर उन्हें बचाएं।” बेमन से भीम और अर्जुन को जाना पड़ा। पाण्डवों को आया देख गंधर्वराज का क्रोध शांत हो गया और उसने कहा, “मैंने इन दुरात्माओं को शिक्षा देने के लिए यह सब किया था। यदि आपकी इच्छा है तो इन्हें मुक्त कर देता हूँ।” अपमानित कौरव लौट गए।

कृमिरा से मुठभेड़

अपने वनवास के समय वन में घूमते-घूमते पाण्डव काम्यक वन पहुँचे जहां मानव भक्षी राक्षस रहते थे। एक दिन अचानक एक खूंखार राक्षस उनके सामने आ खड़ा हुआ, बवंडर उठा और बिजली कड़कने लगी। भय से द्रौपदी मूर्च्छित हो गई। स्थिति थोड़ी स्थिर होने पर युधिष्ठिर ने उस राक्षस से पूछा, “तुम कौन हो? तुम्हें क्या चाहिए?” राक्षस ने कहा, “मैं बकासुर का भाई… कृमिरा हूँ। मेरे क्षेत्र में तुम्हारा स्वागत है…. वैसे, तुम हो कौन?” पाण्डवों ने उसे अपना परिचय दिया। भीम का नाम सुनकर गरजा, “ओह, मेरे भाई का हत्यारा भीम आखिर मुझे मिल ही गया… मैं कितना भाग्यशाली हूँ अब तुम मेरे हाथों से किसी भी हाल में बच नहीं सकते….” बातें हो ही रही थीं कि युधिष्ठिर ने भीम को इशारा किया। भीम और कृमिरा, दोनों में जमकर युद्ध हुआ। कृमिरा जरा कमजोर पड़ा। फुर्ती से भीम ने उसे उठाया और जोर से घुमाकर पटक दिया। फलतः उसका अंत हो गया।

नहुष की श्रापमुक्ति

एक दिन जंगल में शिकार करते समय एक बहुत बड़े अजगर ने भीम को पकड़ लिया। उसने भीम से पूछा, “क्या तुम युधिष्ठिर को जानते हो?” आश्चर्यचकित भीम ने उत्तर दिया, “जानता हूँ, किन्तु तुम क्यों पूछ रहे हो?” “मैं अमरावती का राजा नहुष हूँ। अनादर करने के कारण मुझे अगस्त्य ऋषि ने श्राप दे दिया था। मैं श्राप मुक्त तभी होऊँगा जब युधिष्ठिर मुझे ब्राह्मण के विषय में बताएगा…” भीम ने कहा, “युधिष्ठिर मेरा भाई है।” “तुम झूठ बोल रहे हो…” यह कहकर नहुष ने अपनी पकड़ और मजबूत कर दी। भीम चिल्लाया, “भाई, सहायता करो…” आवाज सुनकर युधिष्ठिर भागा आया। नहुष ने पूछा, “तुम कौन हो?” “मैं युधिष्ठिर हूँ।” ” फिर बताओ, ब्राह्मण कौन और क्या है?” “जिसने अनंत का ज्ञान प्राप्त कर लिया है… जो परम सत्य को जानता है… वही ब्राह्मण है…” युधिष्ठिर ने कहा। युधिष्ठिर के उत्तर से सन्तुष्ट होकर नहुष ने भीम को छोड़ दिया और स्वयं भी श्रापमुक्त होकर मानव रूप धारण कर लिया।

जट से मुठभेड़

पाण्डवों के वनवास की ग्यारह वर्ष की अवधि समाप्त हो चुकी थी। पाण्डवों ने हिमालय की ओर प्रस्थान किया। अर्जुन शक्ति संग्रह के लिए पहले से ही वहाँ तपस्या कर रहा था। उसे भी वहीं उन सभी से मिलना था। रास्ते में पाण्डव विश्राम कर रहे थे तभी जट नामक असुर ने युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और द्रौपदी को पकड़ लिया तथा जंगल की ओर भागने लगा। उनकी चीख सुनकर भीम की आँख खुली और वह भी उनके पीछे भागा। युधिष्ठिर ने जट से कहा, “यह तुम सही नहीं कर रहे हो। तुम पाप के भागीदार बनोगे और पशु या पक्षी के रूप में तुम्हारा पुनर्जन्म होगा।” यह सुनकर जट पल भर के लिए रुककर विचार करने लगा। तब तक भीम वहाँ आ चुका था। सारी स्थिति समझकर उसने जट को जोरों का घूसा मारा। फलत: उसकी मृत्यु हो गई और पाण्डव बच गए।

यक्ष प्रश्न

तालाब से पानी लाने गए अपने भाइयों की अवस्था देखकर मिटिर पहले विलाप करने लगे पर फिर मन कई शंकाओं से घिर गया। न शत्रु के पांव के निशान थे, न शरीर पर कोई घाव… कहीं ज विषयुक्त तो नहीं… यह विचारकर तालाब में उतरने लगे। तभी आवाज आई, “सावधान, तुम्हारे भाइयों ने मेरी बात न मानी, पानी पीया… यह तालाब मेरा है। पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दो फिर पानी पीयो । ” युधिष्ठिर समझ गए कि यह कोई यक्ष है। उन्होंने कहा, “आप प्रश्न करें।” प्र सूर्य किसकी प्रेरणा से उगता है? उ ब्रह्म की प्र. मनुष्य का साथ कौन देता है? उ. धैर्य प्र. किस चीज को गंवाकर मनुष्य धनी बनता है? उ० लालच को यक्ष ने कई प्रश्न किए। सबके सही उत्तर पाकर यक्ष ने कहा, “राजन्! मैं तुम्हारे एक भाई को जिला सकता हूँ… बताओ तुम किसे चाहते हो?” पल भर सोचकर युधिष्ठिर ने ‘नकुल’ का नाम लिया। कारण पूछने पर युधिष्ठिर ने कहा कि ऐसा करने से मेरी दूसरी मां माद्री का एक पुत्र तो जीवित रहेगा। इस पवित्र विचार से अभिभूत होकर यक्ष के रूप में आए युधिष्ठिर के पिता धर्मराज (धर्म तथा मृत्यु के देवता यम) स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने सभी भाइयों को जीवित कर दिया।

अज्ञातवास

तेरहवां वर्ष अज्ञातवास की अवधि व्यतीत करने के लिए युधिष्ठिर ने मत्स्य देश के राजा विराट के यहां जाने का निश्चय किया। गेरुआ वस्त्र पहनकर युधिष्ठिर ने संन्यासी का वेष धरा। वे कंक के नाम से विराट के दरबारी बन गए और राजा का मन चौपड़ खेलकर बहलाने लगे। भीमसेन वल्लभ नाम से रसोइयों का मुखिया बन गया। कभी-कभी पहलवानों से कुश्ती भी करता और हिंसक जन्तुओं को वश में करके राजा का दिल बहलाता था। अर्जुन वृहन्नला के नाम से राजकुमारी उत्तरा और उसकी सहेलियों को नृत्य-संगीत सिखाने लगा। नकुल ग्रंथिक नाम से घोड़ों को साधने, उनकी बीमारियों का इलाज करने और उनकी देखभाल करने लगा। सहदेव गाय-बैलों की देखभाल करता था। उसका नाम ततिपाल हो गया। पांचाली विराट की पत्नी सुदेष्णा की सेवा सुश्रूषा करती हुई रनिवास में सैरन्ध्री बन काम करने लगी।

कीचक

राजा विराट की पत्नी का भाई कीचक अत्यंत बलशाली और घमंडी था। राजा ने उसे सिर चढ़ा रखा था। सैरन्ध्री की सुंदरता से आकृष्ट होकर वह उसके साथ छेड़-छाड़ करने लगा। सैरन्ध्री ने फैला रखा था कि वह विवाहित है और उसके पति गन्धर्व हैं। बुरी नजर से देखने वालों को उसके पति का क्रोध सहना पड़ेगा। फिर भी कीचक न माना। पहले तो सुदेष्णा ने अपने भाई कीचक को बहुत समझाया पर अंत में वह भी चुप हो गई। एक रात मंदिरा लाने के बहाने सुदेष्णा ने सैरंध्री को कीचक के पास भेजा। कीचक ने सैरन्ध्री के साथ अभद्र व्यवहार करा तो वह सीधा भीम के पास गई। दोनों ने मिलकर उसे सबक सिखाने की योजना बनाई। अगले दिन सैरन्ध्री ने कीचक को नृत्यशाला में रात के अंधेर में बुलाया। वहां भीम पहले से ही चादर ओढ़े लेटा था। कीचक ने उसे ही सैरन्ध्री समझा। मल्लयुद्ध हुआ और कीचक को अपनी जान गंवानी पड़ी। सैरन्ध्री ने सबसे कहा, “मेरे गन्धर्व पति ने क्रोध में कीचक का अंत कर दिया।

घटोत्कच ने अभिमन्यु और वत्सला की सहायता की

अभिमन्यु कृष्ण की बहन सुभद्रा और अर्जुन का पुत्र था। वह एक महान् योद्धा था। बलराम की पुत्री वत्सला उससे अत्यंत प्रभावित थी तथा विवाह करना चाहती थी किन्तु बलराम ने उसका विवाह दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण कुमार से निश्चित कर दिया था। अभिमन्यु और वत्सला ने घटोत्कच से सहायता मांगी। वत्सला और लक्ष्मण के विवाह के दिन घटोत्कच ने वत्सला का रूप धर लिया। वह विवाह मण्डप में जाकर सीधा लक्ष्मण की बगल में बैठ गया। उसने धीरे से लक्ष्मण का हाथ पकड़ा और फिर उसने इतनी जोर से हाथ दबाया कि लक्ष्मण अचेत हो गया। वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देखकर अचंभित रह गए। बाद में लक्ष्मण ने कहा, “वत्सला में कुछ अदृश्य शक्ति है अतः वह उससे विवाह नहीं करना चाहता है।” इस प्रकार लक्ष्मण और वत्सला का विवाह न हो सका।

कौरव – विराट युद्ध

पाण्डव अपना अज्ञातवास मत्स्यराज विराट के पास व्यतीत कर रहे थे तभी त्रिगर्त के राजा सुशर्मा की सहायता लेकर दुर्योधन विराट की गायों को हाँक ले गया। विराट स्वयं को कौरवों से युद्ध करने में असमर्थ अनुभव कर रहे थे तब पाण्डवों ने (अर्जुन को छोड़कर) उन्हें अपनी सहायता देनी चाही। जब पाण्डवों के साथ विराट युद्ध के लिए गए हुए थे तब कौरव सेना शहर में प्रविष्ट हो गई। विराट का पुत्र उत्तर युद्ध के लिए तत्पर हो गया। बृहन्नला के रूप में अर्जुन उसका सारथी बना। पर उत्तर विशाल कौरव सेना को देखते ही काँपता हुआ वापस भागने लगा। वृहन्नला ने एक पेड़ के नीचे पहुँचकर रथ रोका और पेड़ के ऊपर देंगे हुए शव को उतारने के लिए कहा। वस्तुत: उस रूप में अर्जुन ने अपने अस्त्र-शस्त्र सुरक्षित रख रखे थे। भागते हुए राजकुमार तथा एक स्त्री सारथी को देखकर कौरव हँसकर दोहरे हुए जा रहे थे। वृहन्नला ने अपने एक ही वाण के संधान से पूरी सेना को सुला दिया। फिर उनके अपमान स्वरूप उत्तर से उनके ऊपर के वस्त्र उतरवा दिए।

दुर्योधन की हार

शंख देवदत्त की ध्वनि तथा टंकार सुनकर कौरव वीरों के कलेजे कांप उठे। द्रोण को लगा कि हो न हो यह अर्जुन ही है। दुर्योधन और कर्ण तो यही चाहते थे कि वे सामने आ जाएं और उन्हें पुनः वनवास भोगना पड़े। उनकी प्रसन्नता को देखकर भीष्म ने दुर्योधन को समझाया, “प्रतिज्ञा की अवधि कल ही पूरी हो चुकी है। प्रत्येक वर्ष में एक जैसे महीने नहीं होते… उसकी गणना सूर्य, चन्द्र और ज्योतिषियों के पंचांग के आधार पर होती है। हर पांचवें वर्ष के अंत में हमारे ज्योतिषी दो माह और जोड़ देते हैं। तब हमारा पंचांग सूर्य और चंद्र की गति से मेल खाता है। ” अंततः दोनों पक्षों के बीच भीषण संग्राम हुआ। हार-जीत का निर्णय कठिन होने पर अर्जुन ने मोहनास्त्र का प्रयोग किया। कौरव वीर अचेत होकर गिर पड़े। अर्जुन ने उत्तर को भेजकर सैनिकों का वस्त्र हर लिया जो कि उन दिनों जीत का प्रतीक माना जाता था। भीष्म ने सलाह दी कि इस समय सेना के लौट जाने में ही कौरवों की भलाई है। उनकी सलाह मानकर कौरव सेना लौट गई।

विराट का भ्रम

विजयी विराट का वापस लौटने पर खूब स्वागत हुआ। उत्तर को युद्ध के लिए गया जान विराट अत्यंत चिंतित हो उठे थे। कंक ने उन्हें ढांढस दिया कि वृहन्नला साथ में है अतः उत्तर की चिंता न करें, तो वे कंक पर बरस पड़े। उन्हें बृहन्नला की प्रशंसा एकदम पसंद नहीं आ रही थी। तभी उत्तर वापस लौट आया। वृहन्नला के साथ उत्तर को देख, उसे गले लगाकर विराट ने उसकी खूब प्रशंसा करी और उसे ही जीत का सेहरा बांधा। उत्तर को पाण्डवों की सत्यता का पता चल चुका था। उसने सारा श्रेय किसी देवकुमार को दिया। राजा विराट और उत्तर की विजय का उत्सव मनाने के लिए राजसभा हुई। पाण्डव. राजकुमारों के लिए नियुक्त आसन पर जा बैठे। अपने सेवकों को आसन ग्रहण किए देख विराट के आश्चर्य और क्रोध की सीमा न रही। पाण्डवों ने तब अपना परिचय विराट को दिया। विराट बहुत प्रसन्न हुए। वे अर्जुन से उत्तरा का विवाह करना चाहते थे पर अर्जुन ने उसे अपनी पुत्र वधू के रूप में स्वीकार कर लिया।

उत्तरा का विवाह एवं मंत्रणा

अज्ञातवास पूरा हो चुका था। पाण्डव विराट के ही राज्य में उपप्लव नामक नगर में जाकर रहने लगे। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं और मित्रों को बुलाने के लिए दूत भेजे। बलराम, श्रीकृष्ण, सुभद्रा, अभिमन्यु, राजा इन्द्रसेन, काशीराज, पांचालराज द्रुपद, शिखंडी, धृष्टद्युम्न, द्रौपदी के पुत्र सभी अपनी सेनाओं के साथ पधारे। शास्त्रोक्त विधि से अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात् विराट राज के सभा भवन में सभी आये हुए राजा मंत्रणा के लिए एकत्रित हुए। सभी की राय करके आगे की रणनीति तय करनी थी। सभा प्रारम्भ हुई। सभी ने अपनी-अपनी राय दी। श्रीकृष्ण संधि के पक्ष में थे। वे पाण्डवों को उनका राज्य या पाँच गाँव दिलवाना चाहते थे। श्रीकृष्ण की राय थी कि संधि हेतु किसी योग्य और शीलवान व्यक्ति को दुर्योधन को समझाने भेजा जाना चाहिए। बलराम युद्ध के पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था कि युधिष्ठिर ने अपनी मरजी से खेलकर सारी संपत्ति हारी अतः जो मिल जाए वही सुखप्रद होगी। सबकी सम्मति से दुर्योधन के पास संधि प्रस्ताव भेजने की सहमति हुई।

अर्जुन के सारथी कृष्ण

कृष्ण की नारायणी सेना अत्यधिक शक्तिशाली थी। जब युद्ध होना लगभग निश्चित हो गया तब सभी के मन में यह जिज्ञासा थी कि कृष्ण किसकी तरफ रहेंगे। उत्तरा के विवाह से द्वारका लौटकर श्रीकृष्ण विश्राम कर रहे थे। तभी दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही उनसे मिलने द्वारका आए। दुर्योधन उनके कक्ष में जाकर उनके सिर की ओर एक ऊँचे आसन पर बैठे गया। अर्जुन उनके पैर के पास खड़ा हो गया। आंख खुलने पर कृष्ण की दृष्टि सीधे अर्जुन पर पड़ी। उन्होंने पूछा, “कहो पार्थ, कैसे आना हुआ?” परेशान होकर दुर्योधन ने कहा, “कृष्ण, पहले मैं आया था. मुझसे पहले पूछिए कि मुझे क्या चाहिए।” कृष्ण ने कहा, “नहीं दुर्योधन, मेरी नजर पहले अर्जुन पर पड़ी थी।” अर्जुन ने हाथ जोड़कर कहा, “मधुसूदन, आप मेरे सारथी बन जाइए… मुझे आपके अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए।” यह सुनकर दुर्योधन ने चैन की सांस ली। उसे तो नारायणी सेना चाहिए थी… वह कृष्ण को लेकर क्या करता। उसने कृष्ण की नारायणी सेना मांग ली।

मामा विपक्ष में

राजा शल्य, नकुल सहदेव की मां माद्री के भाई थे। अपनी विशाल सेना के साथ वे पाण्डवों की सहायता करने उपप्लव की ओर चल पड़े। जहां भी सेना पड़ाव डालती उनका भव्य स्वागत होता। शल्य गद्गद् हो उठे। उन्होंने सोचा यह सब युधिष्ठिर का काम है। जब उन्होंने खातिरदारी करने वालों को पुरस्कृत करना चाहा तब पता लगा कि यह दुर्योधन का काम है। विपक्षी होकर भी इतना उदार…. असमंजस में शल्य पड़ गए। दुर्योधन ने उनसे अपने पक्ष में रहकर लड़ने के लिए कहा। शल्य मान गए। शल्य युधिष्ठिर से मिले और बताया कि कैसे धोखे से दुर्योधन ने उन्हें अपने पक्ष में कर लिया था। युधिष्ठिर ने उनसे पूछा, “ अवसर आने पर कर्ण आपको अपना ” सारथी बनाकर अवश्य ही अर्जुन को मारने की चेष्टा करेगा तब आप अर्जुन की रक्षा करेंगे या मृत्यु का कारण बनेंगे?” शल्य ने अर्जुन के प्राणों की रक्षा का वचन दे दिया और अपनी भूल के लिए क्षमा भी मांगी।

राजदूत के द्वारा संधि संदेश

कौरव और पाण्डव दोनों ही अपने मित्र राजाओं को संदेश भेजकर सेनाएं इकट्ठी करने में लगे हुए थे। पांचाल नरेश के पुरोहित दूत बनकर हस्तिनापुर धृतराष्ट्र की राज सभा में पहुँचे। उन्होंने पाण्डवों की ओर से संधि का प्रस्ताव रखते हुए धृतराष्ट्र से उनका हिस्सा देने की कृपा करने का निवेदन किया। भीष्म ने इसे न्यायोचित ठहराते हुए उन्हें राज्य वापस देने की सहमति दी पर कर्ण एकदम नाराज हो गया। स्थिति की नाजुकता को देखते हुए तब धृतराष्ट्र ने संजय को दूत बनाकर युधिष्ठिर के पास भेजा और कहलवाया कि वह युद्ध की बात नहीं करना चाहते हैं… मित्रता और शांति की इच्छा रखते हैं। यह सुनकर युधिष्ठिर अत्यंत प्रसन्न हुए और कहा कि “हमें हमारा राज्य मिल जाए तो हम सारे कष्ट भूल जाएंगे। हम भी शांति प्रिय हैं। दुर्योधन यदि हमें पांच गांव भी दे दे तो हम पांचों भाई उसी से संतोष कर लेंगे। में शांति के लिए भी तैयार हूँ और युद्ध के लिए भी।” संजय युधिष्ठिर का संदेश लेकर धृतराष्ट्र पास वापस गया।

सच्चा मित्र

सभी प्रकार की चर्चा हो चुकी थी। दुर्योधन अपनी जिद पर अड़ा हुआ था। वह पाण्डवों को उनका राज्य वापस नहीं देना चाहता था तब कृष्ण ने कौरवों को कमजोर करने के लिए उन्हें विभाजित करना चाहा। उन्होंने कर्ण से मुलाकात करके कहा, “कर्ण, तुम भली-भाँति जानते हो कि पाण्डवों को उनका राज्य नहीं देकर दुर्योधन अधर्म कर रहा है। यदि तुम उसके साथ युद्ध में भाग लेने से मना करो तो यह युद्ध रुक सकता है।” यह सुनकर कर्ण ने कहा, “नहीं वासुदेव, यह उचित नहीं है… यदि मैं दुर्योधन का साथ नहीं दूँगा तो मैं अपने साथ अधर्म करूँगा… वह मेरा मित्र है। ” ‘कृष्ण ने पुनः कहा, “पर कर्ण, क्या तुम जानते हो कि तुम अपने ही भाइयों के विरुद्ध लड़ोगे? यह सुनकर कर्ण अवाक् रह गया… उसे अभी तक यह नहीं पता था कि कुंती ही उसकी जन्म देने वाली माता हैं। स्वयं को संयत रखते हुए कर्ण ने शांति पूर्वक स्थिर भाव से कहा, “समय पड़ने पर मेरे लिए खड़े होने वाले मित्र को मैं जन्म देकर छोड़ने वाली माता के लिए नहीं छोड़ सकता… मैं दुर्योधन को धोखा नहीं दे सकता।”

शांतिदूत श्रीकृष्ण

सात्यकी को साथ लेकर श्रीकृष्ण शांति वार्ता करने हस्तिनापुर पहुँचे। धृतराष्ट्र के भवन में उनका राजोचित सत्कार हुआ। दुःखी विदुर से जब कृष्ण मिलने गए तब विदुर ने अपने मन की शंका रखी कि मदांध दुर्योधन से शांति की बात सम्भवतः निष्फल ही रहेगी। वह कुछ भी कर सकता है। कृष्ण ने सभा में दुर्योधन को समझाने की बहुत चेष्टा की, पाण्डवों के साथ हुए छल तथा द्रौपदी के साथ हुए दुर्व्यवहार की याद दिलाई पर दुर्योधन पर कोई असर नहीं हुआ। वह क्रोध में तमतमाता हुआ बाहर चला गया और साथियों के साथ मिलकर उसने राजदूत श्रीकृष्ण को पकड़ने का प्रत्यन किया। उसकी इस चेष्टा पर कृष्ण ने मुस्कराकर अपना विश्वरूप धारण किया। उनका आकार और तेज बढ़ता ही चला गया। कई चेहरे हो गए, मुंह से आग की लपटें निकल रही थी. .. ऐसा लगता था कि वह पूरे विश्व को ही निगल जाएंगे। धृतराष्ट्र की इच्छा पर कृष्ण के विश्वरूप के दर्शन के लिए उन्हें पल भर के लिए दृष्टि मिल गई थी। कृष्ण ने शांति स्थापना के लिए हर संभव प्रयत्न किया पर शांति स्थापना की अंतिम आशा जो थी वह भी समाप्त हो गई।

कुंती का संदेश

कुंती को यह सूचना मिली कि पाण्डवों को अपना राज्य वापस लेने के लिए कौरवों से युद्ध करना पड़ेगा। इस सूचना को पाकर कुंती न तो दु:खी हुई और नही हतोत्साहित। सभा से निकलकर कृष्ण सीधे अपनी बुआ कुंती से मिलने गए। कुशल मंगल पूछने के बाद उन्होंने सभा में घटित घटना का विवरण कुंती को सुनाया। कुंती ने कहा, “मेरे पांचों पुत्रों को मेरा शुभाशीर्वाद देकर कहना कि जिस उद्देश्य के लिए क्षत्रिय माताएं पुत्र जनती हैं उसकी पूर्ति का समय आ चुका है। उन्हें हिम्मत के साथ अपने बाहुबल पर भरोसा करना चाहिए। वे न तो झुकें और न ही निराश हों। जो उनका है उसके लिए उन्हें अवश्य लड़ना चाहिए, गर्व से सदा अपना सिर ऊँचा रखना चाहिए। दासता और अपमान के साथ दीर्घायु होने से कहीं अच्छा है अल्पायु पर यशस्वी जीवन….। मेरा संदेश उन्हें अवश्य दे देना। हे कृष्ण ! अब तुम्हीं मेरे पुत्रों के रक्षक हो।” कुंती को प्रणाम कर कृष्ण उनका संदेश लेकर चल पड़े।

बर्बरीक और कृष्ण

भीम का पौत्र तथा घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक एक वीर योद्धा था। महाभारत युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा से वह मात्र तीन बाण लेकर आ रहा था। ब्राह्मण के रूप में मिलकर कृष्ण ने उससे उसका प्रयोजन पूछा, प्रशंसा करी और कहा, “क्या तुम इस विशाल वृक्ष के सारे पत्तों में एक तीर से छेद कर सकते हो?” बर्बरीक ने एक तीर से सारे पत्तों में एक साथ छेद कर दिया। एक पत्ता कृष्ण ने पैर से दवा लिया था, तीर पैर के पास आकर रुका। बर्बरीक ने उन्हें पैर हटाने के लिए कहा जिससे तीर अपना काम पूरा कर सके। “तुम युद्ध में किसका साथ दोगे?” कृष्ण के पूछने पर बर्बरीक ने कहा हारने वाले का क्योंकि तभी वह अजेय रहेगा। कृष्ण ने फिर कहा, “जो संसार के लिए खतरनाक हो क्या तुम उसे नष्ट करने में मेरी सहायता करोगे?” बर्बरीक के हां कहते ही कृष्ण ने उसे दर्पण दिखाया। अपना प्रतिबिम्ब देखकर उसने कहा, “मैं मरने के लिए तैयार हूँ पर मेरी अंतिम इच्छा इस युद्ध को देखने की है।” बर्बरीक ने अपना अंत कर लिया। उसकी अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए कृष्ण ने उसका शीश एक ऊँचे पर्वत पर स्थापित करवा दिया। वहीं से उसने पूरा कुरुक्षेत्र युद्ध देखा था

कुंती कर्ण से मिली

युद्ध अवश्यम्भावी हो चुका था। सशंकित कुंती का मन ममता और क्षत्रियोचित संस्कार के बीच गोते लगा रहा था। व्याकुल कुंती अपने पुत्र कर्ण से मिलने गंगा किनारे गई। कर्ण प्रतिदिन की तरह संध्या वंदन कर रहा था। कुंती उसके पीछे उसका उत्तरीय अपने सिर पर रख खड़ी हो गई। जप पूरा होने पर कर्ण उसे देख विस्मित रह गया। उसने शिष्टतापूर्वक अभिवादन कर कहा, “राधा और सारथी अधीरथ के पुत्र कर्ण का आपको नमन है। आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा करू?” कुंती की आंखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। वह जानती थी कि कर्ण को सत्य का पता है। अनुनय करती हुई बोली, “कर्ण मुझे और दोषी मत ठहराओ… मातृसुख से तुम्हें वंचित करने के लिए मुझे क्षमा कर दो। मैं तुमसे विनती करती हूँ… अपने भाइयों के साथ युद्ध मत करो। ” कर्ण ने कहा, “नहीं, यह संभव नहीं है। मैं दुर्योधन का ऋणी हूँ। आप कुछ और चाहती हैं तो बताइए। ” कुंती ने कहा, “मुझे मेरे सभी पुत्र जीवित चाहिए।” विहसते हुए कर्ण ने कहा, ” आप पांच पुत्रों की माता हैं। युद्ध के पश्चात् भी आप पांच पुत्रों की माता ही रहेंगी… अर्जुन या मैं दोनों में से एक जीवित रहेगा।”

पाण्डवों और कौरवों के सेनापति

युद्ध होना तय हो चुका था। युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से सेना सुसज्जित कर व्यूह रचना बनाने के लिए कहा। पाण्डवों की विशाल सेना को सात हिस्सों में बांट दिया गया। द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखंडी, सात्यकी, चेकितान, भीमसेन- सात महारथी सात दलों के नायक बने। सबकी राय ली गई कि इन सबका सेनापति कौन बने। अंत में कृष्ण की सम्मति से धृष्टद्युम्न को सारी सेना का नायक बनाया गया। उधर कौरवों की सेना पाण्डवों से कई गुणा विशाल थी। उनके पास कई अक्षौहिणी सेना पाण्डवों से अधिक थी जिसमें कई वीर और महारथी थे। कौरव सेना का सेनापति भीष्म पितामह को बनाया गया। उन्होंने कर्ण को सेनापति बनाने का अनुरोध किया। कर्ण और भीष्म के विचार मेल नहीं खाते थे। उसने भी हठ पकड़ लिया कि भीष्म के रहते युद्ध भूमि में प्रवेश नहीं करेगा। दुर्योधन ने अच्छी तरह विचार कर भीष्म को ही सेना नायक नियुक्त किया।

बलराम का युद्ध से इंकार

युद्ध की तैयारी हो रही थी तभी अचानक बलराम पाण्डवों की छावनी में पधारे। सभी अत्यंत प्रसन्न हुए। बड़े बुजुर्गों को प्रणाम कर उन्होंने युधिष्ठिर के पास आसन ग्रहण किया। उन्होंने कहा, “सुन रहा हूँ कि कुरुक्षेत्र की समर भूमि में युद्ध छिड़ने वाला है… शांति की सभी चेष्टाएं व्यर्थ हो गई हैं…” यह कहते कहते उनका गला रुंध गया फिर कहा, “अब तो संसार का सत्यानाश होने वाला है। हमारे लिए तो पाण्डव और कौरव दोनों ही एक समान हैं। दोनों को मूर्खता करने की सूझी है। इसमें हमें बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं पर कृष्ण ने मेरी बात नहीं मानी। उसने तुम्हारे पक्ष में रहकर युद्ध में भाग लेना स्वीकार किया, उसके विपक्ष में मैं अब कैसे जाऊँ? भीम और दुर्योधन दोनों ही मेरे शिष्य हैं, मुझसे ही गदा युद्ध सीखा है। दोनों पर मेरा समान प्रेम है। इन्हें आपस में लड़ता मैं नहीं देख सकता। लड़ो तुम लोग… मैं तीर्थ करने जा रहा हूँ… अब संसार से विरक्त हो गया हूँ।” ईश्वर का ध्यान कर वह तीर्थ यात्रा पर निकल गए।

कर्ण की दानवीरता

कर्ण अत्यंत दानवीर था। किसी को भी अपने पास से खाली हाथ नहीं जाने देता था। देवराज इन्द्र को भय था कि कहीं अर्जुन कर्ण से हार न जाए। उसकी शक्ति क्षीण करने के लिए देवराज इन्द्र बूढ़े ब्राह्मण के वेष में अंग नरेश कर्ण के पास आए और उसके कवच और कुंडल भिक्षा में मांग लिया। कर्ण को सूर्य देव ने पहले ही सचेत कर दिया था कि इन्द्र ऐसी चाल चल सकते हैं। किन्तु दानी कर्ण किसी की मांग नहीं ठुकराता था। उसने ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र को पहचान लिया। फिर भी उन्हें निराश नहीं किया और अपना कवच और कुंडल दान में दे दिया। इन्द्र उसकी दानवीरता से चकित रह गए। प्रसन्न होकर उन्होंने कर्ण से मनचाहा वर मांगने के लिए कहा। कर्ण ने उनसे शत्रुओं का संहारक ‘शक्ति’ नामक अस्त्र मांगा। देवराज ने उसे कर्ण को देते हुए कहा, “जिस पर भी इसका प्रयोग करोगे वह अवश्य मारा जाएगा पर याद रखना, एक बार प्रयोग के बाद यह मेरे पास वापस आ जाएगा।”

भीष्म और कर्ण का मतभेद

भीष्म और कर्ण एक दूसरे को नापसंद करते थे। कुरुक्षेत्र के युद्ध में दोनों एक साथ युद्ध मैदान में भी नहीं आए थे। हुआ यों कि युद्ध से पहले वाले दिन कर्ण ने दुर्योधन से कहा, “मित्र, चिंता मत करो…. मैं अकेला ही पाण्डवों पर भारी हूँ।” भीष्म गर्व से भरी कर्ण की बात सुनकर हंस पड़े। कर्ण अपने सामने पाण्डवों को कुछ नहीं समझता था और भीष्म पाण्डवों के विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। वे कर्ण को सूत्रपुत्र ही कहा करते थे और एक सूत्रपुत्र उनकी बराबरी कैसे कर सकता था। उन्होंने कहा, “कर्ण, ऐसा मत कहो… यदि तुम इतने ही बलशाली हो तो वन में गन्धवों से लड़कर दुर्योधन को क्यों नहीं बचा पाए थे? अर्जुन ने जब दुर्योधन को मत्स्य राज्य में हराया था तब तुम कहां थे?” कर्ण चिढ़ गया और क्रोधित होकर बोला, “आप मेरी बेइज्जती कर रहे हैं। दुर्योधन, जब तक ये तुम्हारी सेना के सेनापति रहेंगे मैं युद्ध नहीं करूंगा।” दुर्योधन दोनों को चाहता था। उसने इशारे से उसे शांत रहने के लिए कहा। किन्तु भीष्म के जीते जी वह युद्ध में नहीं आया।

विदुर का युद्ध से इंकार

जब कृष्ण शांतिदूत बन कर हस्तिनापुर आए थे तब विदुर ने उन्हें अपने घर में ठहराया था। विदुर धृतराष्ट्र और पाण्डु के भ्राता होते हुए भी अत्यंत सादा जीवन व्यतीत करते थे। दुर्योधन जब शांति प्रस्ताव नहीं मान रहा था तब उसे समझाते हुए विदुर ने युद्ध की भयावहता बताई और उसे विनाशकारी बताया। उनकी बातों से चिढ़कर उसने विदुर को भला-बुरा कहना प्रारम्भ कर दिया। चूंकि कृष्ण विदुर के पास ठहरे थे इसलिए दुर्योधन ने उन पर अभियोग लगाते हुए कहा, “धोखेबाज, आप हमारे शत्रु के पक्षधर हैं… आपको शर्म आनी चाहिए।” विदुर इस अभियोग को सह न सके। क्रोध में विदुर ने अपना धनुष बाण उठा लिया। कृष्ण ने उन्हें रोककर दुर्योधन से कहा, ” उन्हें मत उकसाओ. युद्ध में तुम्हारा साथ नहीं देंगे।” “मुझे उनकी आवश्यकता भी नहीं है.” दुर्योधन ने कहा । धनुर्विद्या में अति कुशल विदुर ने कहा, “कृष्ण, आपने सही कहा। मैं दुर्योधन के लिए युद्ध नहीं करूंगा।”

मोहग्रस्त अर्जुन

कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरवों और पाण्डवों की सेना आमने सामने सज्जित खड़ी थी। अर्जुन रणक्षेत्र पहुँचा। उसने सारथी श्रीकृष्ण को दोनों सेनाओं के बीच रथ को ले चलने के लिए कहा। श्रीकृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ला खड़ा किया। अर्जुन ने चारों ओर दृष्टि डाली। भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, कृपाचार्य तथा चारों ओर बन्धु बान्धवों को खड़ा देख अर्जुन सोच में पड़ गया… क्या वह अपनों को ही मारने जा रहा है? पूज्य पितामह, गुरु तथा संबंधियों से युद्ध कर उनकी हत्या के विचार से ही वह कांप उठा। उसके हाथ पैर ठंडे होने लगे, गांडीव हाथ से छूट गया… उसे लगा मानो उसकी सम्पूर्ण शक्ति ही समाप्त हो गई थी। युद्ध के भीषण परिणाम, होने वाले रक्त-पात की कल्पना मात्र से वह सिहर उठा। वह अपने रथ पर निढाल सा बैठ गया और श्रीकृष्ण को युद्ध करने में अपनी असमर्थता बतलायी। अर्जुन पूरी तरह से मोह से होकर हिम्मत हार चुका था।

गीता का ज्ञान

अर्जुन को इस प्रकार निढाल देखकर उसी समय कृष्ण ने उसे गीता का उपदेश दिया। उन्होंने बताया, “तुम्हें सिर्फ और सिर्फ अपने कर्तव्य पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यह शरीर अनित्य और नाशवान है। आत्मा नित्य, अमर और अविनाशी है। उसे कोई मार नहीं सकता, न ही आग उसे जला सकती है। मनुष्य इस लोक में अपने प्रारब्ध कर्म के अनुरूप जीता मरता है। शरीर से आसक्ति करना व्यर्थ है। निरासक्त भाव से मनुष्य को अपना कर्तव्य कर्म करना चाहिए तथा फल की चिंता भी नहीं करनी चाहिए। फल ईश्वर के अधीन है। यदि तुम बिना युद्ध किये यहां से चले गए तो यह तुम्हारा तुम्हारे कर्तव्य से पलायन होगा, तुम कायर और भगोड़े कहलाओगे, लोग तुम्हारी खिल्ली उड़ाएंगे और तुम अपनी ही दृष्टि में गिर जाओगे। इन सबका मोह त्यागकर तुम अपने कर्म को करो। धीरे-धीरे अर्जुन के मन पर छाए मोह के बादल छंट गए और वह कृष्ण की शरण में जाकर युद्ध के लिए तत्पर हुआ।

आक्रामक भीष्म

समर भूमि में शंखध्वनि हुई, युद्ध प्रारम्भ हुआ और सूर्यास्त होते ही शंखध्वनि के साथ युद्ध की समाप्ति भी हुई। पहले दिन पाण्डव सेना की बहुत दुर्गति हुई। भीष्म पितामह अत्यंत आक्रामक थे। फिर भी दुर्योधन के मन में शंका रहती थी कि भीष्म पाण्डवों का पक्ष लेकर पूरे जी जान से युद्ध नहीं कर रहे। वह अपने व्यंग्य बाण से पितामह को आहत करता रहता था। तीसरे दिन दुर्योधन के तीखे व्यंग्य से आहत पितामह ने क्रोध में आकर प्रलंयकारी युद्ध किया। पाण्डव सेना भयभीत होकर तितर-बितर होने लगी। तब उन्हें रोकने अर्जुन आया। वह भी उन्हें रोक नहीं पा रहा था। श्रीकृष्ण और अर्जुन को भी बाण बींध गए। कृष्ण ने रथ चलाना छोड़ दिया और क्रोध में नीचे उतरकर, रथ का टूटा चक्र हाथ में लेकर भीष्म को मारने दौड़े। यह देख अर्जुन सन्न रह गया। भागकर उसने श्रीकृष्ण के पैर पकड़े और बोला. “माधव, रुष्ट न हों। मैं स्वयं युद्ध करूंगा, मेरी सुस्ती को क्षमा करें… आप शस्त्र न उठायें।” इस प्रकार श्री कृष्ण की शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा उसने टूटने से बचा ली।

भीष्म शरशय्या पर

युद्ध का दसवां दिन था। भीष्म अजेय थे। श्रीकृष्ण की सलाह पर अर्जुन ने शिखण्डी को अपने साथ ले लिया था। शिखण्डी के पीछे अर्जुन रथ पर था। युद्ध शुरु हुआ। शिखण्डी ने भीष्म पर वाण बरसाना प्रारम्भ कर दिया। भीष्म पल भर रुके…. एक स्त्री पर वह शस्त्र नहीं उठाना चाहते थे। तभी अर्जुन ने बाणों की झड़ी लगा दी। उनका पूरा शरीर बाणों से बिंध चुका था। भीष्म रथ से सिर के बल गिर पड़े। उनका शरीर भूमि से नहीं लगा। बाण एक ओर से घुसकर दूसरी ओर निकल आए थे.. लगता था वे शर शय्या पर लेटे हों। उनका सिर लटक रहा था। उन्होंने अर्जुन से सिर को सहारा देने के लिए कहा। अर्जुन ने तरकस से तीर निकालकर उसपर उनका सिर टिका दिया। पितामह को प्यास लगी थी। उन्होंने अर्जुन से पानी पिलाने को कहा। अर्जुन ने तुरंत धनुष तानकर भीष्म की दाहिनी बगल में पृथ्वी में तीर मारा और उसी क्षण वहां से जल का सोता फूट निकला। माता गंगा ने स्वयं आकर अपने पुत्र की प्यास शीतल जल से बुझाई। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान था। सूर्य के उत्तरायण होने तक वहीं पर भीष्म शरशय्या पर लेटे रहे।

वैष्णवास्त्र

युद्ध का ग्यारहवां दिन था। भीष्म शर शय्या पर पड़े थे। द्रोण कौरव सेना के सेनापति बन नेतृत्व कर रहे थे। दुर्योधन ने द्रोण से कहा, “आचार्य, युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने की चेष्टा करें।” दुर्योधन का कहा मानकर द्रोणाचार्य ने त्रिगर्त के सारथी संशप्तक को अर्जुन पर आक्रमण करने के लिए कहा। तत्पश्चात् द्रोणाचार्य ने प्राज्योतिष देश के राजा भगदत्त को निर्देश दिया, “अपने हाथियों की सेना के साथ भीम पर जाकर आक्रमण करो।” भीम को अकेला ही भगदत्त और उसकी सेना से मोर्चा लेता देखकर अर्जुन भी भीम का साथ देने आया हालांकि उसे संशप्तक के साथ भी युद्ध करना था। कृष्ण ने उससे कहा, “अर्जुन, एक-एक कर उनसे मोर्चा लो।” कृष्ण की बात मानकर अर्जुन ने पहले संशप्तक पर बाण का संधान कर उसे हराया और फिर भगदत्त की ओर बढ़ा। अर्जुन को अपनी ओर आता देखकर भगदत्त ने वैष्णवास्त्र छोड़ दिया। अर्जुन ने उसे काटना चाहा पर तब तक कृष्ण उसके सामने आ गए। वैष्णवास्त्र कृष्ण की छाती पर लगते ही फूलों की माला में परिवर्तित हो गया।

वैष्णवास्त्र की कथा

भगदत्त ने अर्जुन पर वैष्णवास्त्र का प्रयोग किया तब श्रीकृष्ण ने सामने आकर उसे अपने सीने पर ले लिया। आश्चर्यचकित अर्जुन ने कृष्ण से पूछा, “जनार्दन ! यह कौन सा अस्त्र है? शत्रु का चलाया अस्त्र अपने ऊपर लेना क्या आपके लिए उचित था?” अर्जुन के अभिमान को धक्का लगा था। श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा, “पार्थ! यह वैष्णवास्त्र था। यदि इसे मैं अपने ऊपर न लेता तो यह तुम्हारे प्राण लेकर ही छोड़ता। वह मेरी चीज थी और मेरे पास लौट आई।” अर्जुन ने परेशान होते हुए पूछा, “पर आपने ऐसा क्यों किया?” कृष्ण ने कहा, “भगदत्त को अपने पिता से यह अस्त्र प्राप्त हुआ था जो धरती देवी के पुत्र थे। जब मैंने कूर्म अवतार लिया था तब मैंने ही धरती देवी को आशीर्वाद स्वरूप इसे दिया था। यह इतना शक्तिशाली है कि मैं ही इसके तेज को सह सकता था।”

अभिमन्यु चक्र व्यूह में घुसा

तेरहवें दिन भी अर्जुन को ललकारते हुए संशप्तक दक्षिण दिशा की ओर ले गए। इधर द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना कर युधिष्ठिर पर धावा बोल दिया। द्रोण के वेग को रोकने में अभिमन्यु ही सक्षम था। वह चक्रव्यूह में प्रवेश करना जानता था पर बाहर निकलना नहीं । युधिष्ठिर ने कहा हम तुम्हारे पीछे चलेंगे। वह तो भीतर घुस गया किन्तु जयद्रथ ने रास्ता रोककर युधिष्ठिर को भीतर नहीं जाने दिया। अभिमन्यु अकेला ही भीतर घुसता चला गया। मार्ग में जो भी आता परलोक सिधार जाता। सभी हैरान थे। महाराजा शल्य, दुःशासन सभी असफल रहे। कर्ण ने द्रोण के कहने पर पीछे से अभिमन्यु पर हमला किया। उसके घोड़े और सारथी मारे गए। रथविहीन वीर बालक अभिमन्यु ढाल-तलवार लेकर कूद पड़ा। द्रोण और कर्ण ने एकसाथ आक्रमण कर तलवार और ढाल काट डाला। अभिमन्यु ने टूटे रथ का पहिया उठा लिया। वह चारों ओर से घिरा हुआ था। कब तक टिकता…. अंतत: घायल अभिमन्यु जीवन से हार गया।

जयद्रथ वध

युद्ध में अर्जुन के सोलह वर्षीय पुत्र अभिमन्यु को कौरवों ने घेरकर बड़ी ही निर्दयतापूर्वक मार डाला था। क्रोधित अर्जुन ने प्रतिज्ञा करी, “कल सूर्यास्त से पहले में जयद्रथ का वध कर दूंगा अन्यथा चिता में कूदकर प्राण दे दूंगा।” इस प्रतिज्ञा के कारण अगले दिन कौरवों ने जयद्रथ को अर्जुन से दूर रखा। शाम होने वाली थी। कौरव प्रसन्न थे कि जयद्रथ मरा नहीं, अब अर्जुन अपने प्राण दे देगा। तभी कृष्ण की माया से सूर्य ढक गए। सभी को सूर्यास्त का भ्रम हुआ और छिपा हुआ जयद्रथ अर्जुन के सामने आ गया। तभी सूर्य फिर प्रकट हो गए और कृष्ण ने अर्जुन से अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने को कहा। साथ ही अर्जुन को चेतावनी दी, “जयद्रथ का सिर जमीन पर न गिरने देना। जिसके हाथों इसका सिर पृथ्वी पर गिरेगा उसके सौ टुकड़े हो जाएंगे, ऐसा उसे वरदान है। ऐसा बाण मारना कि सिर उसी के पिता की गोद में गिरे।” तभी अर्जुन के तीर से उसका सिर आश्रम में बैठे उसके पिता वृद्धक्षत्र की गोद में जा गिरा। संध्या कर जब वह उठे तो जयद्रथ का सिर गोद से नीचे गिर पड़ा। उसी क्षण वृद्धक्षत्र के सौ टुकड़े हो गए।

अर्जुन द्वारा युद्ध के नियमों का उल्लंघन

जयद्रथ के द्वारा अभिमन्यु की मृत्यु ने पाण्डवों को हिलाकर रख दिया था। युद्ध के नियमों के पालन की सार्थकता अर्जुन की दृष्टि में समाप्त हो गई थी। भूरिश्रवा कौरवों की ओर से लड़ रहा था। उसके दादा सात्यकी के दादा (यादव वंश) से पराजित हुए थे। उनकी हार का बदला वह सात्यकी से लेना चाहता था। कुरुक्षेत्र के युद्ध को उसने अच्छा अवसर समझा। काफी देर तक दोनों एक दूसरे से लड़ते रहे। थका हुआ भूरिश्रवा सात्यकी को मारना ही चाहता था कि तभी अर्जुन ने वहाँ पहुँचकर उसके हाथों को काट डाला और सात्यकी को बचा लिया। भूरिश्रवा चिल्लाया, “अर्जुन, यह अध र्म हैं… मैं निहत्था हूँ तुम मुझ पर वार नहीं कर सकते…. तुम नियम का उल्लंघन कर रहे हो…’ पल भर भी देर किए बिना सात्यकी उछलकर खड़ा हुआ और उसने भूरिश्रवा को अंतिम गति प्राप्त करा दी। आसपास के सभी लोग अवाक् रह गए और उन्होंने अर्जुन और सात्यकी को बुरा-भला कहा।

द्रोणाचार्य का अंत

चौदहवें दिन भी भयंकर युद्ध हो रहा था। द्रोणाचार्य रौद्र रूप धारण किए लड़ रहे थे। उन्हें रोकना नामुमकिन था। कृष्ण ने सुझाया कि अश्वत्थामा मारा गया यह सुनकर द्रोण शोकग्रस्त होकर हथियार फेंक देंगे। पर ऐसा अधर्म कार्य कोई नहीं करना चाहता था। तब भीम ने अश्वत्थामा नामक हाथी को मार डाला और चिल्लाया, “अश्वत्थामा मारा गया।” द्रोण ने उसे अपना पुत्र समझा और विचलित हो गए। उन्हें पता था कि युधिष्ठिर सदा सत्य बोलेंगे। उन्होंने युधिष्ठिर से सत्य जानना चाहा। मन कड़ा कर युधिष्ठिर ने कहा, “हां, अश्वत्थामा मारा गया” और फिर अपराध बोध के कारण धीरे से कहा, “ मनुष्य नहीं हाथी’ तभी भीम तथा पाण्डवों ने जोरों का शंखनाद और सिंहनाद कर दिया। उस शोर में युधिष्ठिर के अंतिम वचन अनसुने रह गए। पुत्र विछोह से विरक्त होकर, अशक्त से द्रोण वहीं बैठ गए, शस्त्र हाथों से गिर पड़े। अवसर पाकर द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न तुरंत हाथ में तलवार लेकर उन पर झपटा और आचार्य का सिर धड़ से अलग कर दिया।

कर्ण मारा गया

द्रोणाचार्य के वध के पश्चात् कर्ण ने कौरव सेना के सेनापति का भार संभाला। अर्जुन और कर्ण के बीच घोर संग्राम छिड़ा हुआ था। कर्ण ने अर्जुन पर नागास्त्र छोड़ा। काले नाग की तरह जहर की आग उगलते तीर को आता देख कृष्ण ने रथ को पांव के अंगूठे से दबा दिया। रथ जमीन में पांच अंगुल घुस गया फलतः तीर अर्जुन का मुकुट ले उड़ा अर्जुन बच गया। क्रुद्ध अर्जुन ने बाणों की वर्षा शुरु कर दी। अचानक कर्ण के रथ का बाँया चक्का धरती में धंस गया। कर्ण ने अर्जुन को रथ का चक्का निकालने तक रुकने के लिए कहा। अर्जुन शायद रुकता पर तभी कर्ण का बाण अर्जुन को लगा। वह विचलित हो उठा। समय पाकर कर्ण चक्का निकालने नीचे उतरा। पर चक्का नहीं निकल पा रहा था। उसने परशुराम से सीखे मंत्रों का आवाहन करना चाहा पर वह भी श्रापवश याद नहीं आया। बिना पल भर भी देर किए अर्जुन ने बाण का संधान किया और कर्ण का सिर कटकर धरती पर आ गिरा।

कर्ण की असलियत का पता

कर्ण की मृत्यु हो चुकी थी। रात के अंधकार में युद्धभूमि में कुंती को देखकर युधिष्ठिर के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। युधिष्ठिर ने कहा, “माँ, आप यहाँ….” कुंती बुदबुदायी…. “कर्ण…”. क्रोधपूर्वक अर्जुन कहा. “कर्ण क्यों…?” ” क्योंकि वह मेरा सबसे बड़ा पुत्र था… तब मैं अविवाहित थी। दुर्वासा ने मुझे मंत्र दिया था जिसके द्वारा मैं जिस देवता को याद करती उससे मुझे पुत्र की प्राप्ति होती… उसे ही जांचने के लिए मैंने सूर्यदेव को याद किया था और मुझे कर्ण मिला था… अविवाहित होने के कारण लोक लाज से मैंने उसे त्याग दिया था… ” दुःखी स्वर में कुंती ने बरसों पुराना राज अपने पुत्रों को बता दिया। पाण्डवों को एक जोरदार झटका लगा। कुती ने पुनः कहा. “कर्ण इस बात को जानता था… और उसने मुझे वचन दिया था कि मैं सदा पांच पुत्रों की माता रहूँगी… या अर्जुन या मैं जीवित रहूँगा।” यह सुनकर पाण्डव अचंभित रह गए। अर्जुन को कर्ण की मृत्यु से पश्चात्ताप होने लगा। तभी कृष्ण ने अर्जुन को याद दिलाते हुए कहा कि यदि उसने कर्ण को छोड़ दिया होता तो न तो कौरवों की हार होती और न ही धर्म की रक्षा होती।

दुर्योधन को माँ का आशीर्वाद

विवाह के बाद से ही अपनी आंखें बंद रखने के कारण गांधारी की आंखों में तपस्या का तेज व्याप्त हो गया था। जब कौरव पुत्रों में दुर्योधन अकेला ही बच गया तब गांधारी ने उसे बुलाकर कहा, “दुर्योधन, स्नान कर निर्वस्त्र मेरे सम्मुख आओ। मैं अपनी दृष्टि तुम पर डालूंगी जिससे तुम्हारा शरीर शिला समान बनकर अजेय हो जाएगा।” दुर्योधन ने मां के कथनानुसार किया पर लज्जावश अपनी कमर के नीचे का भाग ढाँक लिया। गांधारी ने अपनी आंखें खोलीं और दृष्टि डाली। एक ज्योति पुंज उसकी आंखों से निकलकर दुर्योधन के शरीर में समा गया। उसके शरीर का निर्वस्त्र भाग शिला की तरह कठोर हो गया। चूंकि कमर के नीचे का भाग ढका हुआ था अतः उस पर तेज पुंज का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसी कारण भीम उसकी जांघ का भाग तोड़ पाने में सफल हुआ था और वही उसकी मृत्यु का कारण बना।

अर्जुन के रक्षक कृष्ण

युद्ध का अठारहवां दिन था, पाण्डवों की विजय हो चुकी थी। वे अपने इस निर्णायक विजय का उत्सव मनाने युद्ध क्षेत्र से वापस लौटे। सभी अपने-अपने खेमे में चले गए। अर्जुन अभी भी अपने रथ पर ही था। वह कृष्ण के रथ से उतरने की प्रतीक्षा कर रहा था। प्रथानुसार रथी के उतरने से पहले सारथी नीचे उतरता है। हठी अर्जुन स्वयं को अत्यंत कुशल धनुर्धर समझता था। उसका विश्वास था कि युद्ध में विजय उसके रण कौशल का परिणाम था। काफी देर तक कृष्ण के रथ से उतरने की उसने प्रतीक्षा करी। कृष्ण के बार-बार कहने पर अंततः वह उतरा। रथ की पताका पर हनुमान विराजे हुए थे। कृष्ण ने इशारे से उन्हें भी जाने के लिए कहा। उसके पश्चात् कृष्ण रथ से उतरे। उनके रथ से उतरते ही पूरा रथ धू-धू कर जल उठा। अर्जुन आश्चर्यचकित रह गया। अब उसे समझ आया कि जब तक कृष्ण रथ पर थे वह सुरक्षित था… कृष्ण की शक्तियों के कारण ही वह बचा हुआ था। वरना उसका रथ तो कब का जल चुका था।

अश्वत्थामा का प्रतिशोध

पिता को मारने के लिए पाण्डवों द्वारा रचे गए कुचक्र का पता जब अश्वत्थामा को चला तो वह क्रोध के मारे आपे से बाहर हो गया। घायल दुर्योधन के पास जाकर उसने दृढ़तापूर्वक प्रतिज्ञा करी कि आज रात में ही वह पाण्डवों के वंश का खात्मा कर देगा। वह आधी रात में पाण्डवों के शिविर में पहुँचा। उसके साथ कृपाचार्य और कृतवर्मा भी थे। उसने बड़ी ही निर्दयता से सोए हुए धृष्टद्युम्न, शिखण्डी तथा द्रौपदी के पुत्रों की एक-एक कर हत्या कर दी। इस कुकर्म के बाद उसने शिविर को आग के हवाले कर दिया। पूरा शिविर धू-धू कर जल उठा। चारों और हाहाकार मच गया। सोए सैनिक जागकर इधर-उधर भागने लगे तो उसने उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया। बाद में अश्वत्थामा को पता चला कि उसने भूलवश पाण्डवों की जगह रात के अंधेरे में द्रौपदी के पुत्रों की हत्या कर दी थी।

कृष्ण को गांधारी का श्राप

युद्ध की समाप्ति के पश्चात् कृष्ण युद्ध क्षेत्र में घूम रहे थे। उन्होंने औरतों को अपने पति पुत्र और पिता के शवों के पास विलाप करते देखा। गोधारी भी वहीं उन्हें सान्त्वना देने का प्रयत्न कर रही श्री और साथ ही अपने पुत्रों के लिए भी आंसू बहा रही थी। कृष्ण ने गांधारी के पास जाकर उसे नमन किया। कृष्ण को पहचानते ही गांधारी का रोष कृष्ण पर उमड़ पड़ा, “मेरे पुत्रों की मृत्यु तुम्हारे ही कारण हुई। तुम चाहते तो युद्ध रोक सकते थे पर तुमने ऐसा नहीं किया। परिणामस्वरूप कौरव वंश का नाश हो गया। मैं तुम्हें श्राप देती हूँ कि तुम्हारी भी एक पशु जैसी मृत्यु होगी और सारा वृष्णि वंश आपस में लड़कर नष्ट हो जाएगा।” मुस्कराते हुए कृष्ण ने कहा, “मां, आपने मेरा बोझ हल्का कर दिया। लालची और पापी होने के कारण मेरा वंश आपस में ही लड़े और एक दूसरे को मारते हुए नष्ट हो जाए। जहां तक मेरी मृत्यु का प्रश्न है… आपका श्राप मुझे आपके आशीर्वाद के रूप में स्वीकार है।” कृष्ण की बात सुनकर गांधारी थोड़ी संयत हुई पर पुत्र शोक कम नहीं हुआ।

धृतराष्ट्र का रोष

कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त हो चुका था। श्रीकृष्ण की सलाह पर पाण्डव. धृतराष्ट्र और गांधारी का आशीर्वाद लेने गए। कृष्ण ने भीम को धृतराष्ट्र से सावधान रहने के लिए कहा क्योंकि वह अपने सौ पुत्रों को खोने के कारण बहुत क्रुद्ध थे। अपने क्रोध को भीतर ही भीतर पीकर धृतराष्ट्र ऊपर से संयत रहे। उन्होंने सभी पाण्डवों को आशीर्वाद देकर भीम को गले लगाने के लिए पास बुलाया। भीम उनके पास जाना ही चाहता था पर कृष्ण ने इशारे से उसे रोक दिया। धृतराष्ट्र की दृष्टिहीनता का लाभ उठाकर कृष्ण ने भीम से लोहे का एक स्तम्भ उनके सामने खिसकाने के लिए कहा। उसे भीम समझकर धृतराष्ट्र ने इतनी जोर से दबाया कि लोहे का खंभा भी चूर गया और भीम बच गया। धृतराष्ट्र का सारा संचित क्रोध हो उनके इस रोष के रूप में बाहर आ गया था। गांधारी ने अपनी भावनाओं पर संयम रखने की भरसक चेष्टा करी। उसने आशीर्वाद तो दिया पर अपने आंसुओं की बाढ़ को रोक न सकी।

तीनों वृद्धों का अवसान

महाराज युधिष्ठिर के राज्य में धृतराष्ट्र और गांधारी जीवन के दिन काट रहे थे। उनका पूरा ध्यान रखा जाता था पर भीतर से धृतराष्ट्र का मन विरक्त हो चुका था। सांसारिक वस्तुओं से उनका मन हट गया था। वह बहुत उदास रहते थे। एक दिन उन्होंने युधिष्ठिर से वन जाने की अनुमति मांगी। लाख मना करने पर भी धृतराष्ट्र ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। धृतराष्ट्र और गांधारी वन को जाने लगे तो कुंती भी उनकी आंख और सहारा बनकर, उनकी सेवा करने के लिए उनके साथ हो ली। कुंती ने अपने पुत्रों को आशीर्वाद दिया और तीनों ने वन की ओर प्रस्थान किया। युधिष्ठिर अवाक् से खड़े देखते ही रह गए। तीन वर्ष वन में व्यतीत हो चुके थे। एक दिन जंगल में भीषण आग लग गई। धृतराष्ट्र ने भागने के लिए भी कहा पर गांधारी ने मना कर दिया। पूर्व की ओर मुख करके तीनों समाधिस्थ अवस्था में बैठ गए और दावानल में अपने शरीर की आहुति दे दी।

पाण्डवों का अंत

कई वर्षों तक हस्तिनापुर पर शासन करने के पश्चात् युधिष्ठिर ने परीक्षित को राजगद्दी पर बैठाया और अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ वन की ओर चल दिए। वे मंदार पर्वत की ओर बढ़ चले। उधर से ही स्वर्ग का मार्ग था। युधिष्ठिर ने सभी को याद दिलाते हुए कहा, “हममें से जो धर्म के पथ पर होगा वही अंततः स्वर्ग पहुँचेगा।” मार्ग में एक-एक कर सभी फिसलते गए। एकमात्र युधिष्ठिर बचे थे। एक कुत्ता उनके पीछे-पीछे आ रहा था। स्वर्ग के द्वार पर पहुँचने पर देवताओं ने उनका स्वागत करते हुए कहा, “तुम्हारा स्वागत है पर तुम्हारे साथ आने वाले कुत्ते का नहीं।” युधिष्ठिर ने पीछे मुड़कर कुत्ते को देखा। उसके प्रति दया भाव से भरकर युधिष्ठिर ने कहा, “यह काफी देर से मेरे पीछे आ रहा है… मैं भीतर तभी प्रवेश) करूंगा जब इसे भी अनुमति मिलेगी, अन्यथा नहीं। देवताओं ने मुस्कराकर कहा, “युधिष्ठिर, यह कुत्ता और कोई नहीं वरन् धर्म है जिसे इतने समय तक तुमने संभाले रखा है… आओ, भीतर आओ।”

गांधारी का श्राप फलीभूत

एक बार महर्षि विश्वामित्र, कण्व और नारद द्वारका गए। हुआ यों कि इन ऋषियों को आया देख कुछ वृष्णि बालकों को शरारत सूझी। उन्होंने अपने एक मित्र को स्त्री के रूप में सजाया, उसके पेट में मूसल छिपाकर उसे ऋषियों के पास ले जाकर बोले, “यह गर्भवती है। इसे लड़का होगा या लड़की?” ऋषियों ने उनकी शरारत समझकर बहुत अपमानित अनुभव किया । श्राप देते हुए बोले, # इस लड़के ने जो भी अपने वस्त्रों में छिपाया है वही इसके वंश के विनाश का कारण बनेगा।” बलराम तक यह बात पहुँची। उन्होंने मूसल को चूर करवाकर समुद्र में फिंकवा दिया। एक दिन कुछ वृष्णि समुद्र किनारे गए। नशे में धुत्त उन लोगों में किसी बात को लेकर झगड़ा शुरु हुआ। समुद्र किनारे उग आयी घास को उखाड़कर वे उसी से लड़ने लगे। वह समुद्री घास मूसल के चूर्ण से उगी थी। उसमें बहुत शक्ति थी। शीघ्र ही लड़ते-लड़ते वृष्णियों ने आपस में एक दूसरे को मार डाला फलतः वृष्णि वंश का विनाश हुआ। कुरुक्षेत्र में गांधारी का कृष्ण को दिया हुआ श्राप अब फलीभूत हुआ।

बलराम और कृष्ण का अंत

समुद्र किनारे एक छोटी सी बात पर लड़ते हुए जब वृष्णियों ने अपना अंत कर लिया तो बलराम इस दुःख को सहन न कर पाए। अत्यधिक शोक के कारण बलराम ने वहीं समाधि में बैठकर अपना शरीर त्याग दिया। उनके मुख से सर्प के रूप में अलौकिक ज्योति निकलकर समुद्र में विलीन हो गई। अपने बंधु-बांधवों के विनाश से दुःखी कृष्ण भी समुद्र के किनारे वन में विचर रहे थे। थककर वह एक वृक्ष के नीचे लेट गए। सोए हुए. कृष्ण को शिकारी ने दूर से हिरण समझकर धनुष तानकर तीर मारा। तीर कृष्ण के तलुए में लगा और उनकी मृत्यु उसी जख्म के कारण हुई। शिकारी ने तीर का अग्र भाग बलराम द्वारा फेंके गए मूसल के टुकड़े से ही बनाया था। गांधारी तथा ऋषियों का श्राप फलीभूत हो गया था। विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण का इस प्रकार अंत हुआ और वह पंचभूत द्वारा निर्मित अपना शरीर त्यागकर वैकुंठ अपने धाम वापस चले गए।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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