सूरदास वियोग शृंगार के विलक्षण कवि हैं? सिद्ध कीजिए।
शृंगार रस को रसराज माना जाता है। नवों रसों में यही रस प्रधान है। जहां पर नायिका नायक दोनों का परस्पर मिलन- प्रेमालाप, हास्य, विनोद आदि होता है, वहीं संयोग शृंगार होता है। वृन्दावन में कृष्ण और गोपियों का सम्पूर्ण जीवन क्रीड़ामय है और वह सम्पूर्ण क्रीड़ा संयोग पक्ष की है। संयोग सुख के जितने प्रकार के क्रीड़ाविधान हो सकते हैं, वे सब सूर ने लाकर इकट्ठे कर दिये हैं। सूरसागर में संयोग शृंगार का चित्रण प्रचुर मात्रा में हुआ है। जब तक कृष्ण गोकुल में रहे, वृन्दावन में यमुना के तट पर गोप गोपिकाओं के साथ क्रीड़ा और रासलीला मनाते रहे, तब तक उनकी ये लीलायें शृंगार के संयोग पक्ष के अन्तर्गत आती है।
राधा तथा कृष्ण को लेकर सूर ने शृंगार रस की अभिव्यक्ति की है। गोपियों एवं कृष्ण के प्रसंग में अलौकिकता का समावेश हुआ है। परन्तु राधा एवं कृष्ण का प्रेम पूर्णरूपेण मानवीय है।
सूर के प्रेम की उत्पत्ति में लिप्सा एवं साहचर्य दोनों के ही दर्शन होते हैं। बाल क्रीड़ा के सखी-सखा आगे चलकर यौवन क्रीड़ाओं में लिप्त हो जाते हैं। गोपियाँ तो इस तथ्य को उद्धव के सामने स्वयं ही स्वीकार करती हैं-
“लरिकाई को प्रेम कहाँ अलि कैसे छूटे || “
सूर का सूरसागर मानों रस सागर ही है। सूर ने अपने काव्य में अनोखे दिव्य रस अभिव्यंजना की है। रूप का आकर्षण बाल्यावस्था से ही आरम्भ हो जाता राधा और कृष्ण का मिलन इस प्रकार हुआ-
“खेलन हरि निकसे ब्रजखोरी ।
गये स्याम रवि तनया के तट, अंग लगत चंदन की खोरी॥
औचक ही देख तहँ राधा, नैन विशाल भाल दिये रोरी ।
सूर स्याम देखत ही रीझै, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी ॥ “
कृष्ण इस दर्शन को जीवन का सर्वस्व बनाना चाहते थे। अतः वे नाटकीय ढंग से सरलता तथा स्वाभाविकता के साथ राधा का परिचय पूछने लगते हैं-
बूझत स्याम कौन तू गोरी?
कहां रहत काकी तू बेटी? देखी नाहिं कबहूँ ब्रजखोरी ॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं, खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास रसिक सिरोमनि, बातन, भुरइ राधिका भोरी ॥
राधिका से परिचय पूछने के पश्चात् कृष्ण ने भी अपना परिचय दिया। मनमोहन कृष्ण राधा को अपने घर खेलने के लिए निमंत्रण देते हैं। यद्यपि राधा-कृष्ण दोनों ही अल्पवय हैं परन्तु दोनों के हृदय में प्रेम का अंकुर प्रथम मिलन में ही प्रस्फुटित हो गया है।
प्रथम सनेह दुहूँन मन जान्यौ
सैन-सैन कीन्ही सब बातें, गुप्त प्रीति शिशुता प्रगटान्यौ ॥
जो कहिए घर दरि तुम्हारौ बोलत सुनिए टेरि ।
तुमहिं सहि वृषभानु बाबा की प्रात साँझ इक फेर ।।
धीरे-धीरे दोनों एक दूसरे से समय निकाल कर मिलने लगे। मिलने पर वे दोनों प्रेम के अतिरेक में ऐसे बह जाते हैं कि एक दूसरे को जाने नहीं देना चाहते। इसी समय का एक दृश्य दृष्टव्य है
नन्दबबा की बात सुनौ हरि ।
मोहि छाँड़ि के कबहुँ जाहुगे ल्याऊँगी तुमको धरि॥
मेरी बाँह छाँड़ि दै राधा, करन ऊपर फट बातै।
सूर स्याम नागर-नागरि सौ करत प्रेम की बातें ॥
सूर ने संयोग शृंगार के चित्र बड़े ही मार्मिक ढंग से खींचे हैं। किशोरी राधा के विविध रूपों को उन्होंने अपनी लेखनी से सजाया है। मान के समय राधा का पश्चाताप मन्त्रमुग्ध कर देने वाला है-
मन पछितैहे फिरि रहि जैहै।
सुन सुन्दरि यह समौ गये ते, पुनि न सलिसहि जैहे ॥
शनैः शनैः प्रेम के प्रगाढ़ हो जाने पर राधा तथा कृष्ण साथ-साथ ही रहने लगते हैं। एक बार कृष्ण परिहास में दोहनी में दूध न दुहकर पास में ही खड़ी हुई राधिका के ऊपर ही दूध की धार फेकने लगते हैं-
धेनु दुहति अति ही रति बाढ़ी।
एकधार दोहनि पहुँचावत, एक धार जहँ प्यारी ढाँढ़ी ॥
प्रेम की प्रगाढ़ता के कारण दोनों का एक दूसरे के बिना रहना कठिन हो जाता है। राधा प्रतिदिन कृष्ण के यहाँ जाने लगती है। यशोदा को यह नित्य का आवागमन अच्छा नहीं लगता, वे राधा को डाँटती हुई कहती हैं-
बारि बारि तू जनि हया आवै ॥
राधा का वाक्चातुर्य भी कम नहीं हैं। वे यशोदा के प्रश्न का उत्तर देती हुई कहती हैं कि तुम अपने लाल को क्यों नहीं रोकती, वह ही मुझे यहाँ बुलाता है
“मैं का करौ सुतहिं नहिं बरजति, घर ते मोहि बुलावे।
मोसों कहत तोहि बिन देखे, रहत न मेरे प्रान॥”
एक बार राधा तथा कृष्ण साथ-साथ क्रीड़ा कर रहे थे। तभी यशोदा वहाँ आ गयी। मनमोहन कृष्ण इस प्रसंग को अत्यन्त चतुरता से छिपाने की चेष्टा करते हैं-
“नीवी ललित गहि जदुराई ।
कर सरोज सों श्रीफल परसत, तब जसुमति गइ आई ॥
ततछन कैरत रूदन मनमोहक, अरू ये सुधि उपजाई।
देखौ ढीठ देति नहीं माता, राखी गेंद चुराई॥”
धीरे-धीरे राधा और कृष्ण का प्रेम सारी ब्रजभूमि में प्रचलित हो गया। सारी गोपियाँ भी प्रेम के इस कार्य व्यापार को समझ गई थीं। एक स्थान पर गोपियों ने कहा है-
“राधा कान्ह एक भये दोऊ ।। “
वियोग शृंगार- जितनी सहृदयता से सूर ने शृंगार के संयोग पक्ष को सजाया-सँवारा है, उतनी ही कुशलता से वियोग शृंगार पर भी अपनी लेखनी चलाई है। वियोग वर्णन में भी उनकी दक्षता एवं तन्मयता देखने योग्य है।
कृष्ण गोपियों को छोड़कर मथुरा चले जाते हैं। कृष्ण के वियोग के क्षणों में गोपियों का ऐन्द्रिक सुख समाप्त होकर वासना का कर्दभ जल ही बन जाता है। कृष्ण जाने पर गोपियाँ चित्रलिखित सी खड़ी रह जाती हैं।
“रहीं जहाँ सो तहाँ सब ठाढ़ी।
हरि के चलत देखियत ऐसी मनहुँ चित्रालेखि काढ़ी ॥ “
मथुरा चले गोपियाँ कृष्ण को एक क्षण के लिए भी नहीं भूलतीं। संध्या समय जब कृष्ण गायें चग़कर वापस आते थे, उस समय की स्मृति उनके मन में बस गयी है-
“एहि बिरियाँ बन ते ब्रज आवते ।
दुरहि ते वह बेनु अधर धरि, बारम्बार बजावते ॥”
गोपियाँ कृष्ण के वियोग में अति कृशकाय हो गयी हैं। वे प्रत्येक समय कृष्ण के आगमन की बाट जोहती रहती हैं। भूल से भी उनकी आँखें पलक नहीं लगातीं-
“ऊधौ अँखियाँ अति अनुरागी।
इकटक रहत सदा मग जोवति, भूलेहु पलक न लागी ॥
कृष्ण के सानिध्य में जिन कुंजों से उन्हें आनन्द प्राप्त होता था, वियोग में वे ही दुःखदायी प्रतीत होती हैं-
“बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजै ।
तब ये लता लगत अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।
वृथा बहति जमुना खग बोलत, वृथा कमल फूलैं, अलि गुंजै।’
अपने वियोग में उन्हें किसी का भी सुखी रहना अच्छा नहीं लगता। फलना-फूलना भी सहन नहीं कर सकतीं। उसे उपालंभ देती हुई वे कहती हैं –
‘मधुवन तुम कत रहत हरे,
विरह वियोग स्याम सुन्दर के ठाढ़े कत न जरे॥”
सूरदास ने कृष्ण के वियोग में कहीं-कहीं प्राकृतिक पदार्थों को भी संतप्त दिखावा है-
“देखियत कालिन्दी अति कारी।
अहो पथिक! कहियो उन हरि सों, भई विरह जुर जारी ॥ “
संयोगकालीन सुख प्रदान करने वाली वस्तुयें वियोगावस्था में अत्यन्त दुःख प्रदान करती हैं। वर्षा की शीतल फुहारें जो संयोगावस्था में कामोत्तेजक थीं, वियोग की अवस्था में भाले और बाणों का काम कर रही हैं। काले-काले बादल घुमड़ कर मतवाले हाथियों का रूप धारण कर गोपियों को त्रस्त किये हुए हैं।
“देखियत कालिन्दी अति कारी।
अहो पथिक! कहियो उन हरि सों, भई विरह जुर जारी ॥ “
कृष्ण के वियोग में गोपियों की आँखों से दिन-रात आँसुओं की वर्षा होती रहती है।
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