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गोस्वामी तुलसीदास जी की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी के ही नहीं वरन् विश्व साहित्य के उन प्रतिनिधि रचनाकारों में हैं जिनका साहित्य कालजयी कहा जा सकता है। वे हिन्दी के ही नहीं, वरन् विश्व कवि के रूप में समादृत हैं। उनके काव्य में उनके युग तक प्रचलित समस्त काव्य रूपों एवं काव्य शैलियों का प्रयोग मिलता है और इस प्रकार वे युग के प्रतिनिधि रचनाकार तो सिद्ध होते ही हैं, विषय की व्यंजना और लोक चेतना की दृष्टि से वे युगान्तकारी कवि भी ठहरते हैं।
तुलसीदास का जीवन परिचय-तुलसी के जन्म स्थान के सम्बन्ध में भी पर्याप्त मतभेद हैं कुछ लोग तुलसी का जन्म बाँदा जनपद के राजापुर ग्राम में बताते हैं किन्तु कुछ विद्वान तुलसी के जन्म स्थान को उनकी निम्न पंक्ति के आधार पर सोरों (एटा) को मानते हैं। तुलसी का जन्म संवत् 1554 (सन् 1497 ई.) माना गया है। ‘शिवसिंह सरोज’ के रचनाकार ने तुलसीदास का जनम संवत् 1583 (सन् 1526 ई.) स्वीकार किया है तथा मीरजापुर के प्रसिद्ध रामभक्त पं. रामगुलाम द्विवेदी ने जनश्रुति के आधार पर तुलसीदास का जनम संवत् 1589 (सन् 1532 ई.) माना है।
माता-पिता एवं विवाह — इनका विवाह एक ब्राह्मण कन्या ‘रत्नावली’ से हुआ था। कहा जाता है कि ये अपनी अतिरुपवती पत्नी से अत्यधिक आसक्त थे। इस पर इनकी पत्नी ने एक बार इनकी घोर भर्त्सना इस प्रकार की थी-
अस्थि चर्म मय देह मम, तामें ऐसी प्रीति
ऐसी जो रघुनाथ में, होति न तब भव भीति ॥
निधन- तुलसी का निधन संवत् 1680 (सन् 1623 ई.) को वाराणसी में हुआ था उनके निधन के सम्बन्ध में यह दोहा प्रचलित है संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
साहित्यिक व्यविक्ता एवं कृतित्व
महाकवि तुलसीदास एक उत्कृष्ट कवि ही नहीं, महान लोकनायक तत्कालीन समाज के दिशा-निर्देशक भी थे। इनके द्वारा रचित महाकाव्य निम्नलिखित है—
1. रामचरित मानस- रामचरितमानस (रामायण) तुलसीदास जी का यह सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ काव्य है। यह आज भी हिन्दू जनता का कण्ठहार और सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ बना हुआ है। इसी ग्रन्थ के आधार पर तुलसी को महाकवि की महती पदवी से विभषित किया जाता है और उन्हें विश्वविश्रुत माना जाता है। इसके रचनाकाल का उल्लेख स्वयं कवि ने कर दिया है-
संवत् सोलह सौ इकतीसा । करौं कथा हरिपद धरि सीसा ।।
यह काव्य मुख्यतः दोहा-चौपाई में लिखा गया है। इसमें राम की कथा को सात काण्डों में विभक्त किया गया है। इसमें सभी रसों का प्रयोग सफलता के साथ किया गया है।
2. रामल्लानहछू (सं० 1643)- 20 सोहर छन्दों का छोटा सा ग्रन्थ है। बाबू श्यामसुन्दरदास ने इसका रचना काल संवत् 1639 माना है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने इसकी अधिक शृंगारिकता के कारण इसकी रचना मानस की रचना से 20 वर्ष पूर्व अर्थात् 1611 की मानी है। इसकी रचना तिथि के सम्बन्ध में ‘जानकी मंगल’ का विवेचन देखिये। मिश्रबन्धुओं ने इसके गोस्वामीकृत होने में सन्देह किया है। .
3. वैराग्य सन्दीपनी (सं. 1669 ) – यह 62 छन्दों का छोटा सा ग्रन्थ है। इसमें सन्त-महन्तों के लक्षण दिये गये हैं। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने इसे बहुत पहले (सं. 1625) का माना है। डॉ. श्यामसुन्दरदास इसको ‘विनयपत्रिका’ के साथ का रचा हुआ मानते हैं (अर्थात् 1636 का) तथा डॉ. बड़थ्वाल इसे 1640 के पूर्व का (अर्थात् 1639 या उससे भी पहले का) मानते हैं।
4. बरवै रामायण (सं. 1669 ) – इसमें बरवै छन्द में रामचरित लिखा गया है। सात काण्ड और 69 छन्द हैं। इसके भी तुलसीकृत होने में सन्देह किया जाता है। परन्तु इसमें राम के प्रति ईश्वर-भावना होने के कारण- “सीयराम पद तुलसी प्रेम बढ़ाय” यह सन्देह कम हो जाता है। डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने इसकी रचना-तिथि सं. 1662 और 1664 के बीच मानी है। अलंकारिकता के आधिक्य के कारण यह ग्रन्थ पहले का मालूम पड़ता है, किन्तु रहीम के अनुकरण में होने के कारण पीछे का ठहरता है
कवि रहीम बरवै रचे पठये मुनिवर पास।
लखि तेइ सुन्दर छन्द में रचना किए प्रकास ॥
5. पार्वतीमंगल ( सं. 1643)- इसमें शिव और पार्वती के विवाह का वर्णन है। इसकी छन्द संख्या 164 है। मिश्रबन्धुओं ने इसके भी तुलसीकृत होने में सन्देह किया है। इसमें जय संवत् का उल्लेख है-
जय सिद्ध संवत् फागुन सुदि पाँचें गुरु दिनु ।
आये बनि विरचेउ मंगल सुनि सुख छिनु-छिनु ।
जय संवत् सं. 1643 में पड़ा था। बाबा बेणीमाधवदास ने इसका रचनाकाल सं. 1669 माना है, किन्तु यह ठीक नहीं जान पड़ता। इसमें अरूण और हरिगीतिका छन्द है।
6. जानकीमंगल (सं. 1643 )- इसमें सीता की कथा कही गयी है। इसमें 216 छन्द हैं। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने इसको संवत 1621 की रचना माना है। ‘पार्वतीमंगल’ का ने रचनाकाल सं. 1643 निश्चित है। ‘गुसाईचरित’ में ‘नहछू’ और दोनों मंगलों का एक साथ निर्माण लिखा है- “मिथला में रचना किये, नहछु मंगल दोय”। इन तीनों के विषय एक होने के कारण इनका एक साथ रचा जाना सम्भव है। वेणीमाधवदास ने इन तीनो का उल्लेख सं. 1669 की घटनाओं के साथ किया है, और मिथिला में वे सं. 1640 में गये हैं। इसकी कथा बाल्मीकीय रामायण से प्रभावित है। बाल्मीकीय रामायण की भाँति इसमें भी परशुराम से राम की भेंट बारात के लौटते समय हुई है।
7. रामाज्ञा प्रश्न ( सं. 1669)- यह ग्रन्थ शकुन विचारने के लिये बनाया गया है। इसमें 949 दोहों के सात सर्ग हैं। विषय रामायण की ही रामकथा है। पं. गंगाराम ने यह ग्रन्थ ज्योतिषी लाभार्थ लिखा गया बतलाया जाता है। एक हस्तलिखित पुस्तक के आधार पर इसकी रचना का समय सं. 1655 बताया जाता है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त इसका रचनाकाल सं. 1626 के लगभग मानते हैं।
8. कवितावली (सं. 1765-1771)- इसका दूसरा नाम ‘कवित्त रामायण’ है। इसमें कवित्त, सवैया, घनाक्षरी, छप्पय और झूलना आदि छन्द उनकी संख्या 335 है। उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियों में ‘कवितावली’ और ‘हनुमान बाहुक’ एक ही में हैं। कुछ प्रतियों और सम्पादित ग्रन्थों में उन्हें अलंग-अलग रखा गया है। कवितावली’ में गोस्वामीजी के अन्तिम काल सम्बन्धी कुछ छन्द भी हैं। उनमें मीन की शनैश्चरी, रूद्रबीसी तथा महामारी का उल्लेख आया है। रूद्रबीसी का समय सं. 1665 से 1685 तक माना गया है। मीन की शनैश्चरी रूद्रबीसी के साथ सं. 1665 से 1671 तक रही। इस कारण इसका रचनाकाल सं. 1665-71 तक ठहरता है। इसके कुछ छन्द मृत्यु के समय तक बने होंगे। ‘कवितावली’ के छन्दों की शैलीगत प्रौढ़ता से भी स्पष्ट हो जाता है कि यह कवि की उत्तरकालीन कृति है। गुसाईचरित में इसका कोई संवत् नहीं दिया है। उसमें केवल यही संकेत है कि से. 1622 में सीता-वट के नीचे गोस्वामीजी ने कुछ कविताओं की रचना की। सम्भव है तब से रचना प्रारम्भ हुई हो।
9. गीतावली (सं. 1627)- इसमें अष्टछाप के कवियों की सी गीत शैली के पद हैं। कथा प्रसंग कुछ भेद के साथ रामायण से मिलता जुलता है। इसमें भी 7 काण्ड और 330 छन्द हैं। गीतिकाव्य होने के कारण इसमें उन्हीं स्थलों का वर्णन है जिनका सम्वन्ध शृंगार, करूणा अथवा वात्सल्य की कोमल भावनाओं से है। इसका संवत् ‘गुसाईरचित’ में 1628 बताया गया है- ‘जब सोरह से बसु बीस चढ्यौ’- किन्तु यह ठीक नहीं मालूम होता है। यह सम्भवतः सं. 1634 से 1646 तक लिखी गयी होगी।
10. कृष्ण गीतावली (सं. 1626)- इस ग्रंथ में कृष्णकथा का वर्णन है। इसमें कुल मिलाकर 61 पद हैं। इसके भ्रमरगीत के पदों में कुछ सूर के पद भी मिलते हैं। यह भी कुल मिलाकर मालूम पड़ता है, अर्थात् सं. 1644 के बाद का लिखा हुआ है।
11. विनयपत्रिका- मूल ‘गोसाईरचित’ में ‘विनयपत्रिका’ के स्थान पर ‘विनयावली’ नाम दिया हुआ है। विद्वानों ने इसका रचनाकाल ‘रामचरितमानस’ के अनन्तर सं. 1636 और 1640 के बीच माना है। इसमें राग-रागिनियों द्वारा देवी-देवताओं के विनय-सम्बन्धी पद लिखे हैं। इसमें कलि-काल के विरूद्ध भी रामचन्द्रजी के दरबार में अर्जी पेश की गयी है, और दरबारी शिष्टाचार का पूर्ण निर्वाह हुआ है। इसकी रचना बड़ी उत्कृष्ट समझी जाती है। इसमें तीन-सौ के लगभग पद हैं। (परन्तु नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से प्रकाशित ‘तुलसी ग्रन्थावली’ की प्रति में पदों की संख्या 276 है।) यह ग्रन्थ संवत् 1668 में समाप्त हुआ होगा। ‘विनयपत्रिका’ भक्ति रस का अद्वितीय काव्य माना जाता है। इसकी ब्रजभाषा बड़ी पाण्डित्यपूर्ण तथा संस्कृत-गर्भित है।
12. दोहावली (सं. 1640)- ‘तुलसी सतसई’ को ‘दोहावली’ का ही अन्य नाम कुछ विद्वान देते हैं। यह एक संकलन ग्रन्थ है जिसमें तुलसी द्वारा रचित विभिन्न काव्य ग्रन्थों में से दोहों को संकलित किया गया है। इसमें कुल दोहों की संख्या 573 है जिसमें 85 दोहे ‘रामचरितमानस’ से ही लिये गये हैं। इसके अधिकांश दोहे भक्ति तथा उपदेश से सम्बन्ध रखने वाले हैं। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने इसे उत्तरकालीन रचना माना है।
इस प्रकार तुलसी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से बेजोड़ हैं। ‘रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका’ साहित्यिक दृष्टि से अनुपम ही नहीं ठहरती वरन् भारत की सांस्कृतिक विरासत में अनुपम सिद्ध हुई हैं। साहित्य संस्कृति के इसी संगम के कारण तुलसी की सार्थकता आज भी बनी हुई है।
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