कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

प्रतिफल के नियम | Laws of Returns in Hindi

प्रतिफल के नियम (Laws of Returns)
प्रतिफल के नियम (Laws of Returns)

प्रतिफल के नियम (Laws of Returns)

उत्पादन में जहाँ प्रकृति का प्रभाव अधिक होता है, यहाँ प्रतिफल ह्रास नियम लागू होता है, तथा जहाँ मनुष्य का प्रभाव अधिक होता है यहाँ वृद्धि नियम लागू होता है।”

-मार्शल

परिचय (Introduction)

किसी वस्तु का उत्पादन उत्पत्ति के विभिन्न उपादानों-भूमि, श्रम, पूंजी, संगठन तथा उथम के सहयोग द्वारा होता है। अतः यदि कोई उत्पादक उत्पादन में वृद्धि करना चाहता है तो उसे उत्पत्ति के उपादानों की मात्रा में वृद्धि करनी पड़ती है। उपादानों को मात्रा में वृद्धि करने पर सीमान्त उत्पादन (Marginal Production) में आनुपातिक दृष्टि से तीन प्रकार की प्रवृत्तियों दृष्टिगोचर हो सकती हैं सीमान्त उत्पादन बढ़ जाए या समान रहे या घट जाए। सीमान्त उत्पादन में होने वाले इन तीन प्रकार के परिवर्तनों के आधार पर उत्पत्ति या प्रतिफल के तीन नियम प्रतिपादित किए गए हैं-(1) यदि उपादानों में वृद्धि करने पर सीमान्त उत्पादन अनुपात से अधिक बढ़ता है तो इसे ‘प्रतिफल वृद्धि नियम’ या ‘घटती लागत का नियम (Law of Increasing Returns Or Law of Decreasing Cost) कहते हैं। (2) यदि उपादानों में वृद्धि करने पर सीमान्त उत्पादन अनुपात से कम बढ़ता है तो इसे ‘प्रतिफल हास नियम’ अथवा ‘लागत वृद्धि नियम’ (Law of Diminishing Returns or Law of Increasing Cost) कहते हैं। (3) यदि उपादानों में वृद्धि करने पर सीमान्त उत्पादन समान अनुपात में बढ़ता है तो इसे ‘समान प्रतिफल का नियम अथवा ‘समान लागत का नियम (Law of Constant Returns or Law of Constant Cost) कहते हैं।

(1) प्रतिफल या उत्पत्ति हास नियम (Law of Diminishing Returns)

व्याख्या (Explanation) जब किसी वस्तु का उत्पादन बढ़ाने के लिए कुछ उपादानों की मात्रा को स्थिर रखकर अन्य उपादान या उपादानों की मात्रा में वृद्धि करने पर कुल उत्पादन में घटते हुए अनुपात से वृद्धि होती है तो अर्थशास्त्र में इस प्रवृत्ति को ‘प्रतिफल हास नियम’ या ‘घटते प्रतिफल का नियम’ कहते हैं। इस नियम को ‘लागत वृद्धि नियम’ (Law of Increasing Cost) भी कहते हैं क्योंकि जब कुल उत्पादन में वृद्धि घटती हुई दर से होती है या सीमान्त उत्पादन (marginal production) घटता जाता है तो प्रति इकाई औसत लागत तथा सीमान्त लागत बढ़ती जाती हैं।

परिभाषाएँ (Definition’s )- (1) प्रो० मार्शल (Marshall) के शब्दों में, “यदि कृषि कला में सुधार न हो तो भूमि पर खेती करने के लिए लगाई गई श्रम और पूंजी की मात्रा में वृद्धि करने पर कुल उपज में सामान्यतः अनुपात से कम वृद्धि होती है।

(2) श्रीमती जॉन रॉबिन्सन (Joan Robinson) के अनुसार, “उत्पत्ति हास नियम, जैसे कि इसे प्रतिपादित किया जाता है, यह बताता है कि उत्पादन के लिए किसी एक साधन की मात्रा में क्रमानुसार वृद्धि करने से, एक सीमा के बाद, कुल उपज में घटती हुई दर से वृद्धि होगी।

(3) सिल्बरमेन (Silverman) के शब्दों में, “एक निश्चित बिन्दु के पश्चात् उत्पादन में लगे हुए श्रम व पूंजी की मात्रा में वृद्धि करने पर उत्पादन में अनुपात से कम वृद्धि होती है।”

नियम की मान्यताएं (Assumptions of the Law)- प्रतिफल हास नियम तभी लागू होता है, जबकि इसकी निम्न मान्यताएँ लागू होती हैं

(1) उत्पादन तकनीक में सुधार नहीं- यह नियम तभी लागू होता है जबकि उत्पादन तकनीक में कोई सुधार नहीं होता। यह मान लिया जाता है कि उत्पादन कार्य के प्रवन्ध, उत्पादन-विधि, तकनीकी ज्ञान आदि में कोई परिवर्तन नहीं होता।

(2) सामान्य सत्य- यह नियम सामान्य सत्य है, अर्थात् यह नियम केवल कुछ अवस्थाओं को छोड़कर अन्य सभी अवस्थाओं में लागू होता है।

(3) एक उपादान का स्थिर तथा अन्य उपादानों का परिवर्तनशील होना- यह नियम तभी लागू होता है जबकि एक उपादान स्थिर तथा अन्य उपादान परिवर्तनशील होते हैं, या एक उपादान परिवर्तनशील तथा अन्य उपादान स्थिर होते हैं। इस प्रकार सभी उपादान एक साथ परिवर्तनशील नहीं होने चाहिए।

(4) इकाइयों की समरूपता- यह नियम यह मानकर चलता है कि परिवर्तनशील उपादान की सभी इकाइयाँ समरूप हैं।

(5) उपादानों का सर्वोत्तम संयोग-प्रतिफल हास नियम यह मानकर चलता है कि उत्पादन के उपादानों का संयोग (combination) पहले से ही सर्वोत्तम है।

(6) अन्य काल-इस नियम की यह मान्यता है कि उत्पादन को बढ़ाने के लिए उपलब्ध समय इतना कम है कि उत्पादन के एक न एक साधन की पूर्ति स्थिर रहती है।

यह उल्लेखनीय है कि प्रतिफल हास नियम का सम्बन्ध उत्पादन की मात्रा से है न कि उत्पादित वस्तुओं की कीमत से।

प्रतिफल हास नियम के लागू होने कारण- यह नियम मुख्यतः अग्रलिखित कारणों से लागू होता है-

(1) उपादानों के अनुकूलतम संयोग का भंग होना-जय कुछ उपादानों (factors) को स्थिर रखकर अन्य उपादानों की मात्रा में परिवर्तन किया जाता है तो एक बिन्दु पर उत्पादन के उपादानों का संयोग अनुकूलतम (optimum) हो जाता है। किन्तु उत्पादन को बढ़ाने के लिए यदि इस बिन्दु के बाद भी अन्य उपादानों को स्थिर रखकर एक या दो उपादानों की मात्रा में वृद्धि की जाती है तो उपादानों का अनुकूलतम संयोग भंग हो जाता है तथा सीमान्त उत्पादन घटने लगता है, जिसके फलस्वरूप प्रतिफल हास नियम लागू होने लगता है।

(2) उत्पादन के उपादान एक दूसरे के अपूर्ण स्वानापन्न-उत्पादन के उपादान एक दूसरे के पूर्ण स्थानापन्न (substitutes) नहीं होते, अर्थात् एक उपादान को दूसरे उपादान के स्थान पर एक सीमा तक ही प्रयुक्त किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, भूमि की स्थिर रखकर श्रम तथा पूँजी की अधिक इकाइयों का प्रयोग केवल एक सीमा तक ही किया जा सकता है। यदि एक उपादान को दूसरे उपादान के स्थान पर असीमित मात्रा में प्रयुक्त करना सम्भव होता है तो भूमि के एक निश्चित टुकड़े पर ही श्रम व पूँजी की अधिकाधिक इकाइयों का प्रयोग करके हम समस्त विश्व के लिए अन्न उपजा सकते थे। किन्तु यह सम्भव नहीं है क्योंकि उत्पत्ति के उपादान एक दूसरे के पूर्ण स्थानापन्न नहीं होते। जब तक उपादानों के मध्य प्रतिस्थापन सम्भव होता है तब तक तो प्रतिफल हास नियम लागू नहीं होता, किन्तु जब यह प्रतिस्थापन सम्भव नहीं होता तब यह नियम कार्यशील हो जाता है।

नियम का क्षेत्र (Scope) – परम्परावादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार प्रतिफल हास नियम केवल कृषि पर लागू होता है। किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार यह नियम एक सामान्य नियम है जो उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र में लागू होता है। इतना अन्तर अवश्य है कि कृषि में यह नियम जल्दी लागू होने लगता है किन्तु उद्योगों में, जहाँ प्रकृति की तुलना में मनुष्य का प्रभाव अधिक होता है, यह देर से लागू होता है। यह नियम मुख्यतः निम्न क्षेत्रों में लागू होता है

(1) कृषि–जय भूमि की स्थिर मात्रा के साथ श्रम तथा पूंजी की अधिक इकाइयों का प्रयोग किया जाता है तो सीमान्त उत्पादन घटता जाता है।

(2) खनिज ज्योग-खानों से खनिज पदार्थ जितनी अधिक मात्रा में निकाले जाते हैं उन्हें उतना ही गहरा खोदना पड़ता है। खानों की गहरी खुदाई के लिए पहले से अधिक खर्चा करना पड़ता है, अर्थात् खानों को जितना गहरा खोदा जाएगा, प्रतिफल के अनुपात में खर्चा उतना ही बढ़ता जाएगा, परिणामतः घटते प्रतिफल (या बढ़ती लागत) का नियम लागू होगा खान की गहरी खुदाई के लिए मजदूरी, प्रकाश, परिवहन आदि पर पहले से अधिक खर्चा करना पड़ता है।

(3) मछली पकड़ना- किसी समुद्र, नदी, झील या तालाब में मछलियों की मात्रा सीमित होती है। अतः जैसे-जैसे मछलियाँ पकड़ी जाती है, वैसे-वैसे उनकी मात्रा कम होती जाती है जिस कारण अधिक मछलियाँ पकड़ने के लिए किनारे से दूर जाना पड़ेगा। इससे प्रतिफल (return) के अनुपात से लागत अधिक आएगी। इसी प्रकार यह नियम जंगल से लकड़ी काटने, जंगली रबड़ इकडा करने, पत्थर खोदने आदि व्यवसायों में भी लागू होता है।

(4) उद्योग-धन्ध-उद्योगों में भूमि की अपेक्षा श्रम व पूंजी का अधिक महत्व होता है और इन्हें आवश्यकतानुसार बढ़ाया जा सकता है। इसलिए उद्योगों में काफी देर तक बढ़ते प्रतिफल का नियम लागू रहता है। किन्तु एक सीमा के बाद उद्योगों में भी सीमान्त उत्पादन में कमी तथा औसत लागत में वृद्धि होने लगती है, जिस कारण प्रतिफल हास नियम लागू होने लगता है।

(5) इमारतों का निर्माण- कोई इमारत जितनी ऊँची बनाई जाएगी ऊपर की मन्जिलों पर आनुपातिक व्यय उतना ही अधिक करना पड़ेगा। किन्तु नीचे की मन्जिल की तुलना में ऊपर की मन्जिलों से किराया कम मिलता है जिस कारण घटते प्रतिफल का नियम लागू होता है।

(6) मिट्टी के बर्तन बनाना- इस कार्य के लिए भूमि खोदकर मिट्टी प्राप्त की जाती है। भूमि (जमीन) जितनी गहराई से खोदी जाती है समय, श्रम व धनराशि की दृष्टि से जागत में निरन्तर वृद्धि होती जाती है। अतः मिट्टी के बर्तन बनाने पर भी यह नियम लागू होता है।

इस प्रकार घटते प्रतिफल का नियम एक सार्वभौमिक नियम (universal law) उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र में लागू होता है। अतः विक्सटीड का यह कथन पूर्णरूपेण सत्य है, पटते प्रतिफल का नियम जीवन का नियम है तथा यह कहीं भी तथा सभी स्थानों पर लागू हो सकता है।

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About the author

Anjali Yadav

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