कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

भारत में पूँजी निर्माण में वृद्धि के उपाय

भारत में पूँजी निर्माण में वृद्धि के उपाय
भारत में पूँजी निर्माण में वृद्धि के उपाय

भारत में पूँजी निर्माण में वृद्धि के उपाय

भारत में पूंजी निर्माण की दर में वृद्धि के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-

(1) घरेलू बचतों को प्रोत्साहन-घरेलू क्षेत्र तथा निजी निगम क्षेत्र में की जाने वाली बचतों में वृद्धि के लिए विभिन्न उपाय किए जाने चाहिए, जैसे—(1) व्याज दरों को आकर्षक बनाना, (ii) ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं का पर्याप्त विकास करना, (ii) जनता में अल्प-बचतों के महत्त्व का प्रचार करना, (iv) आकर्षक अल्प-बचत योजनाएँ प्रारम्भ करना इत्यादि ।

(2) मुद्रा-प्रसार पर प्रभावी नियन्त्रण- मुद्रा प्रसार के कारण गत वर्षों में वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। इससे उपभोग-व्यय के बढ़ने के कारण बचतें घट जाती हैं। अतः सरकार द्वारा मुदा-प्रसार को नियन्त्रित किया जाना चाहिए।

(3) जनसंख्या में तीव्र वृद्धि पर नियन्त्रण-तेजी से बढ़ती जनसंख्या राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि को निगल जाती है, अर्थात् आश्रितों में वृद्धि से उपभोग-व्यय में वृद्धि होने के कारण बचतें घट जाती हैं। अतः जनसंख्या में तीव्र वृद्धि पर प्रभावी नियन्त्रण परमावश्यक है।

(4) बचत एकत्रित करने वाली संस्थाओं का विस्तार-पूंजी निर्माण में वृद्धि के लिए बचतों को जमा करने की सुविधाएँ स्थान-स्थान पर होनी चाहिए ताकि बचतकर्ताओं को अधिक-दूर न जाना पड़े। इसके लिए बैंकों, बीमा कम्पनियों, डाकघरों, वित्तीय संस्थाओं आदि की शाखाओं में वृद्धि की जानी चाहिए।

(5) पूँजी बाजार का विकास-पूंजी बाजार में दीर्घकालीन वित्त उपलब्ध कराने वाली संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है। पूंजी बाजार के विकास से वचतों की गतिशीलता तथा निवेश-सुविधाओं में वृद्धि होती है।

(6) अनुत्पादक रूप में रखे धन का सदुपयोग- देश की जनता अपनी बचत के बड़े भाग को सोने-चांदी के आभूषण बनवाने में लगा देती है या सन्दूक व अलमारी में बन्द करके रख देती है। राष्ट्रीय दृष्टि से निसंचय (hoarding) की प्रवृत्ति पूंजी निर्माण को जवरुद्ध करती है। सरकार की उपयुक्त नीति बनाकर इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना चाहिए ताकि ऐसे धन को उत्पादक कार्यों में लगाया जा सके।

(7) प्राकृतिक संसाधनों का समुचित विदोहन- देश में उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग नहीं किया जा सका है। इन संसाधनों का समुचित विदोहन होने से देश में उत्पादन, रोजगार अवसर, राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय सभी में वृद्धि होगी जिससे पूंजी निर्माण को प्रोत्साहन मिलेगा।

(8) कृषि का विकास–विकसित देशों की तुलना में भारत में प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बहुत कम है जिस कारण करोड़ों किसानों की आय का स्तर निम्न है। देश में कृषि के विकास से कृषि-उत्पादन में वृद्धि होने से किसानों की आय तथा बचत बढ़ेगी जिससे पूँजी निर्माण की दर में वृद्धि होगी।

(9) कुटीर व लघु उद्योगों का विकास-देश में कुटीर व लघु उद्योगों का तीव्र गति से विकास तथा विस्तार किया जाना चाहिए। इससे रोजगार अवसरों में वृद्धि होने से लोगों की आय में वृद्धि होगी जिससे वे अधिक बचत कर सकेंगे। परिणामतः पूँजी निर्माण की दर में वृद्धि होगी।

(10) अदृश्य बेरोजगारी का समाधान-अदृश्य बेरोजगारी (disguised unemployment) एक ऐसी स्थिति होती है जबकि किसी आर्थिक क्रिया या उद्योग अथवा व्यवसाय में आवश्यकता से अधिक संख्या में श्रमिक लगे होते हैं। ऐसे फालतू या अतिरिक्त श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है। भारत में अदृश्य बेकारी मुख्यतया कृषि व्यवसाय में व्याप्त है।

प्रो० नर्क्स का विचार है कि अदृश्य बेकार श्रमिकों को कृषि से हटाकर तथा सिंचाई, सड़कें, रेलें, मकान निर्माण आदि पूँजीगत परियोजनाओं में लगाकर पूंजी का निर्माण किया जा सकता है; अर्थात् श्रम के अपव्यय को रोककर अदृश्य बेकारी को वास्तविक पूँजी के निर्माण के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है।

(11) नई तकनीक अपनाना-नई तकनीक को अपनाने से देश में अशोषित प्राकृतिक संसाधनों का समुचित विदोहन सम्भव होगा जिससे उत्पादन में वृद्धि होगी। इससे राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय के बढ़ने से जनता की बचत क्षमता में वृद्धि होगी। इस प्रकार प्रावैधिक उन्नति का अंगीकरण (adaptation) पूंजी निर्माण प्रक्रिया को तीव्र कर सकता है।

(12) उपयुक्त सरकारी नीतियाँ- सरकार विभिन्न उपायों द्वारा पूंजी निर्माण को प्रोत्साहित कर सकती है-(1) सरकार अपने गैर-विकास व्यय में कमी करके ऐसी धनराशि को उत्पादक कार्यों में लगा सकती है। (ii) करारोपण द्वारा अनावश्यक वस्तुओं के उपभोग को नियन्त्रित करके प्राप्त अतिरिक्त राजस्व को उत्पादक कार्यों में लगाया जाना चाहिए। (iii) अलाभकारी सरकारी उपक्रमों में से धन को निकालकर उसका लाभकारी उपक्रमों में निवेश किया जाना चाहिए। (iv) घाटे की वित्त व्यवस्था की नीति का प्रयोग केवल उत्पादक प्रायोजनाओं के लिए किया जाना चाहिए। (v) काले धन को बाहर निकालकर उसके उपयुक्त निवेश के लिए प्रभावी प्रयास किए जाने चाहिए। (vi) आकर्षक जमा तथा ऋण योजनाएं प्रारम्भ करके बचत तथा निवेश में वृद्धि की जा सकती है।

(13) राष्ट्रीय आय का न्यायपूर्ण वितरण-राष्ट्रीय आय के वितरण को अधिकाधिक न्यायपूर्ण बनाकर बचतों में वृद्धि की जा सकती है जिससे पूँजी निर्माण प्रक्रिया तीव्र होगी।

(14) विदेशी ऋण तथा अनुदान-गत कुछ वर्षों से विकसित राष्ट्र अल्प-विकसित राष्ट्रों के आर्थिक विकास कार्यक्रमों में रुचि लेने लगे हैं तथा उन्हें विभिन्न प्रकार के ऋण तथा अनुदान प्रदान करते हैं। विदेशी सहायता का उत्पादक तथा पूँजीगत कार्यों में उपयोग करके देश का आर्थिक विकास करने के साथ-साथ बचत के आन्तरिक साधनों में वृद्धि की जा सकती है। इसके अतिरिक्त, विदेशी पूँजी से सामाजिक पूंजी का निर्माण करके देश के आर्थिक विकास के लिए सुदृढ़ आधार तैयार किया जा सकता है।

(15) उपयुक्त विदेशी व्यापार नीति-विदेशी व्यापार के क्षेत्र में आयात प्रतिस्थापन तथा निर्यात प्रोत्साहन की नीति अपनाई जानी चाहिए। विदेशी व्यापार की अनुकूल शतों से न केवल पूंजी निर्माण में सहायता मिलती है वरन् विदेशी ऋणग्रस्तता का भार भी नहीं बढ़ता।

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Anjali Yadav

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