कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

मुद्रा का वर्गीकरण (Classification of Money)

मुद्रा का वर्गीकरण (Classification of Money)
मुद्रा का वर्गीकरण (Classification of Money)

मुद्रा का वर्गीकरण (Classification of Money)

“भारतीय रुपए में प्रामाणिक तथा प्रतीक दोनों प्रकार की मुद्राओं के गुण पाए जाते हैं।”

-डॉ० शर्मा

जब से मुद्रा का जन्म हुआ है तब से अब तक इसने भिन्न-भिन्न रूप धारण किए हैं। इन रूपों को ध्यान में रखकर विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने मुद्रा का वर्गीकरण भिन्न-भिन्न आधार पर किया है। वैसे तो मुद्रा का वर्गीकरण अनेक आधारों पर किया गया है, तथापि उनमें से कुछ आधार प्रमुख हैं जो इस प्रकार हैं-(I) स्वभाव के आधार पर, (II) वैधानिक मान्यता या सामान्य स्वीकृति के आधार पर (III) मुद्रा-पदार्थ के आधार पर, (IV) निगमन के स्रोत के आधार पर, तथा (V) मुद्रा के अन्य वर्गीकरण |

(I) स्वभाव के आधार पर मुद्रा का वर्गीकरण

स्वभाव (Nature) के आधार पर केन्ज (Keynes) ने मुद्रा को दो भागों में बाँटा है- (1) वास्तविक मुद्रा, तथा (2) हिसाब या लेखे की मुद्रा ।

(1) वास्तविक मुद्रा (Actual Money)- ‘वास्तविक मुद्रा वह है जो वास्तव में किसी राष्ट्र में प्रचलित होती है। इसी के द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं का क्रय-विक्रय तथा ऋणों का भुगतान किया जाता है। क्रय-शक्ति का संचय भी इसी में किया जाता है। उदाहरणार्थ, भारत में सभी प्रकार के सिक्के तथा कागजी नोट वास्तविक मुद्रा हैं। बेनहम ने इसे चलन इकाई (unit of currency) जबकि सेलिगमेन ने असली मुद्रा (real money) कहकर पुकारा है। केन्ज़ (Keynes) के शब्दों में, वास्तविक मुद्रा वह है जिसे देकर ऋणों तथा मूल्य अनुबन्धों का भुगतान किया जाता है तथा जिसके रूप में सामान्य क्रय शक्ति का संचय किया जाता है।”

प्रकार (Kinds)–केन्ज़ ने वास्तविक मुद्रा को निम्नलिखित दो उप वर्गों में विभक्त किया है-

(i) वस्तु मुद्रा (Commodity Money) – यह वह मुद्रा है जिसका वास्तविक मूल्य उसके अंकित मूल्य (face value) के बराबर होता है। ऐसी मुद्रा को पूर्णकाय मुद्रा (full-bodied money) भी कहा जाता है।

(ii) प्रतिनिधि मुद्रा (Representative Money) ऐसी मुद्रा का वास्तविक मूल्य उसके अंकित मूल्य से कम होता है। यह मुद्रा के मूल्य का सूचक या प्रतिनिधि होता है, जैसे पत्र मुद्रा प्रतिनिधि मुद्रा भी निम्न दो प्रकार की होती है-

(अ) परिवर्तनीय मुद्रा- ऐसी मुद्रा को वस्तु-गुद्रा में बदला जा सकता है।

(ब) अपरिवर्तनीय मुद्रा-ऐसी मुद्रा को वस्तु मुद्रा में बदलने के लिए सरकार अथवा निर्गमन करने वाली संस्था कानूनन बाध्य नहीं होती।

(2) हिसाब या लेखे की मुद्रा (Money of Account)-हिसाब की मुद्रा वह मुद्रा है जिसमें सभी प्रकार के हिसाब रखे जाते हैं। इसमें ऋणों की मात्रा तथा वस्तुओं व सेवाओं की कीमतों को व्यक्त किया जाता है। केन्ज़ (Keynes) के शब्दों में, “हिसाब मुद्रा वह है जिसमें ऋणों, कीमतों तथा सामान्य क्रय-शक्ति को व्यक्त किया जाता है।” बेनहम (Benham) के विचार में, “जो मुद्रा व्यवहार में हिसाब-किताब के काम आती है, उसे हिसाब को इकाई कहते हैं।” उदाहरणार्थ, भारत में रुपया, अमेरिका में डॉलर तथा इंग्लैण्ड में स्टलिंग लेखा-मुद्राएँ हैं।

प्रायः सामान्य दशाओं में वास्तविक मुद्रा तथा हिसाब-मुद्रा एक ही होती है किन्तु संकट-काल में ये अलग-अलग हो सकती है। उदाहरणार्थ, सन् 1923 में जर्मनी की वास्तविक मुद्रा ‘मार्क’ थी। किन्तु भीषण मुद्रा-प्रसार की स्थिति उत्पन्न हो जाने पर जर्मनी में फ्रेंक तथा डॉलर तो हिसाब की मुद्रा बन गई वास्तविक मुद्रा मार्क ही रही। परिणामतः वास्तविक मुद्रा तथा हिसाब-मुद्रा में अन्तर उत्पन्न हो गया। इसी प्रकार द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् चीन में वास्तविक मुद्रा तो चीनी डॉलर थी जबकि हिसाब की मुद्रा अमेरिकन डॉलर थी।

जर्मनी तथा चीन के उक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि कोई विदेशी मुद्रा वास्तविक मुद्रा तो नहीं हो सकती, किन्तु हिसाब की इकाई के रूप में किसी देश में किसी विदेशी मुद्रा का प्रयोग किया जा सकता है।

(II) वैधानिक मान्यता के आधार पर मुद्रा का वर्गीकरण

वैधानिक मान्यता (legal recognition) अथवा सामान्य स्वीकृति (general acceptability) के आधार पर मुद्रा को दो भागों में बाँटा जाता है- (1) विधिग्राहा मुद्रा, तथा (2) ऐच्छिक मुद्रा

(1) विधिग्राह्य मुद्रा (Legal Tender Money)- यह वह मुद्रा होती है जिसे क्रय-विक्रय, ऋण आदि के भुगतान में जनता तथा सरकार को कानूनन स्वीकार करना पड़ता है। इसीलिए इसे ‘कानूनी मुद्रा‘ भी कहते हैं। यदि कोई व्यक्ति इसे लेने से इन्कार करता है तो उसे राज्य द्वारा दण्ड दिया जा सकता है। भारत में सिक्के तथा कागजी नोट विविग्राह्य मुद्रा है। विधिग्राह्य मुद्रा को भी निम्न दो वर्गों में बांटा जाता है-

(अ) सीमित विधिग्राह्य मुद्रा (Limited Legal Tender Money)- ऐसी मुद्रा को एक निर्धारित सीमा तक ही स्वीकार करना वैधानिक रूप से अनिवार्य होता है। निर्धारित सीमा के बाद स्वीकार करना या न करना भुगतान पाने वाले की इच्छा पर “निर्भर करता है। उदाहरणार्थ, भारत में पाँच, दस, बीस तथा पच्चीस पैसे के सिक्के एक रुपए तक विधिग्राहा है, जबकि 50 पैसे के सिक्के 10 रुपए तक विधिग्राथ हैं। इस प्रकार किसी व्यक्ति को एक रुपए से अधिक 25 पैसों तक की रेजगारी को तथा 10 रुपए से अधिक 50 पैसों के सिक्कों को स्वीकार करने के लिए कानूनन बाच्य नहीं किया जा सकता। वर्तमान स्थिति- अब 50 पैसों के मूल्य तक के सिक्के प्रचलन में नहीं है।

(घ) असीमित विधिग्राह्य मुद्रा (Unlimited Legal Tender Money) यह वह मुद्रा है जिसे वस्तुओं, सेवाओं तथा ऋणों के भुगतान में किसी भी सीमा तक एक ही बार में कानूनन स्वीकार करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, इसे जनता द्वारा असीमित मात्रा में स्वीकार करना पड़ता है। उदाहरणार्थ, भारत में एक रुपए तथा उससे अधिक मूल्य के सभी सिक्के तथा सभी प्रकार के कागजी नोट (पत्र-मुद्रा) असीमित विधिनाय मुद्रा है। यदि कोई व्यक्ति इन्हें भुगतान में लेने से इन्कार करता है तो न्यायालय द्वारा उसे दण्डित किया जा सकता है।

(2) ऐच्छिक मुद्रा (Optional Money)- यह यह मुद्रा है जो साधारणतया जनता द्वारा स्वीकार तो की जाती है किन्तु कानूनन इसे स्वीकार करने के लिए किसी व्यक्ति को बाध्य नहीं किया जा सकता। इस प्रकार की मुद्रा का प्रचलन व्यक्तियों की निजी साख और पारस्परिक सम्बन्धों पर निर्भर करता है। यदि भुगतान करने वाली की साख अच्छी है तो भुगतान पाने वाला इसे आसानी से स्वीकार कर लेता है, अन्यथा नहीं विभिन्न प्रकार के साख-पत्र, जैसे चैक, ड्राफ्ट, हुण्डियाँ, विनिमय-विपत्र आदि ऐच्छिक मुद्रा के उदाहरण हैं। ऐच्छिक मुद्रा को वैकल्पिक मुद्रा‘ भी कहते हैं।

[III] पदार्थ के आधार पर वर्गीकरण

पदार्थ (Contents) के आधार पर मुद्रा को तीन वर्गों में बाँटा जाता है-

(1) वस्तु-मुद्रा, धातु-मुद्रा, तथा (3) पत्र- मुद्रा

(1) वस्तु-मुद्रा (Commodity Money) यह मुद्रा का सर्वाधिक प्राचीन रूप है। प्राचीन काल में कौड़ी, सीप, अनाज, पशु, पत्थर के हथियार आदि ने विनिमय के माध्यम का कार्य किया है। ऐसी सभी वस्तुएं जिनका प्रयोग विनिमय के माध्यम के रूप में किया जाता है, यस्तु मुद्रा कहलाती है। वस्तु मुद्रा में अनेक गम्भीर दोष थे जिस कारण वर्तमान समय में ऐसी मुद्रा विश्य में कहीं भी प्रचलन में नहीं है।

(2) धात्विक मुद्रा या सिक्के (Metallic Money or Coins) – यह मुद्रा स्वर्ण, चाँदी, ताँबा, निकिल, गिलट आदि किसी भी धातु की बनी होती है। प्राचीन काल में स्वर्ण, चाँदी, पीतल तथा ताँबे के सिक्के प्रचलन में थे। किन्तु आजकल उनके स्थान पर निकिल, ऐल्यूमीनियम, कांसा आदि निकृष्ट धातुओं के सिक्कों का प्रयोग किया जाता है।

सिक्के का अर्थ-सिक्के (coins) किसी धातु के टुकड़े होते हैं जो एक निश्चित वजन तथा आकार के होते हैं। धातु की शुद्धता सरकार द्वारा पूर्व निर्धारित होती है। सिक्कों पर सरकारी चिन्ह अक्ति रहता है तथा उनका मूल्य लिखा रहता है। जेवन्स (Jevans) के शब्दों में, “सिक्के धातु के टुकड़े होते हैं जिनकी तील और शुद्धता उन पर अंकित मोहर द्वारा प्रमाणित होती है।”

धातु-मुद्रा के लाभ (Advantages of Metallic Money)– धातु-मुद्रा के प्रमुख लाभ (गुण) निम्नांकित है-

(1) जनता का विश्वास–पत्र मुद्रा का कोई आन्तरिक मूल्य नहीं होता किन्तु धातु-मुद्रा का कुछ न कुछ आन्तरिक मूल्य अवश्य होता है जिस कारण धातु-मुद्रा में जनता का विश्वास बना रहता है।

(2) पुनः प्रयोग सम्भव- यदि धातु मुद्रा किसी शुद्ध धातु की बनी है तो घिस जाने पर अथवा सरकार द्वारा किसी सिक्के विशेष का प्रचलन बन्द कर दिए जाने पर उसे गलाकर उसके दोबारा सिक्के ढाले जा सकते हैं। इसलिए जनता का ऐसी मुद्रा में विश्वास बना रहता है।

(3) टिकाऊपन-धातु-मुद्रा टिकाऊ (durable) होती है क्योंकि धात्विक सिक्कों के गलने-सड़ने का भय नहीं होता। फिर सिक्कों का आसानी से संचय किया जा सकता है।

(4) मुद्रा के मूल्य में स्थिरता-धातु-मुद्रा की मात्रा में आसानी से परिवर्तन करना सम्भव नहीं होता, क्योंकि धातुओं की मात्रा में परिवर्तन होने पर ही मुद्रा (सिक्कों) की मात्रा में परिवर्तन किया जा सकता है। परिणामतः मुद्रा की क्रय-शक्ति (मूल्य) में तेजी से उतार-चढ़ाव नहीं हो पाते।

(5) मुद्रा-प्रसार का भय नहीं- चूँकि धात्विक मुद्रा की मात्रा में आसानी से वृद्धि नहीं की जा सकती इसलिए देश में मुद्रा प्रसार (inflation) की स्थिति के उत्पन्न होने का भय नहीं होता।

(6) विमुद्रीकरण की दशा में कम हानि-कभी-कभी सरकार द्वारा विमुद्रीकरण (demonetisation) कर दिया जाता है जिससे जनता को हानि होती है। कागज़ी नोटों के रूप में तो जनता को अत्यधिक हानि उठानी पड़ती है। किन्तु धातु-मुद्रा के रूप में जनता को कम हानि होती है, क्योंकि सिक्कों को गलाकर कुछ धातु प्राप्त की जा सकती है।

(7) विदेशी व्यापार में सुविधा-सोना तथा चाँदी समूचे विश्व में बहुमूल्य धातुओं के रूप में स्वीकार की जाती हैं। परिणामतः विभिन्न राष्ट्रों में इन धातुओं के सिक्कों के प्रचलन (circulation) में होने पर विदेशी भुगतानों में सुगमता हो जाती है।

धातु-मुद्रा की हानियाँ (Disadvantages of Metallic Money) — धातु मुद्रा की प्रमुख हानियाँ निम्नवत् हैं—

(1) बहुमूल्य धातुओं की बर्बादी- सोने या चाँदी के सिक्कों के प्रचलन में होने पर देश को इन बहुमूल्य धातुओं की घिसाई के कारण हानि उठानी पड़ती है।

(2) अधिक खर्चीली–पत्र- मुद्रा की तुलना में सिक्के बहुत खर्चीले होते हैं क्योंकि-(i) सिक्कों की ढलाई पर पर्याप्त व्यय करना पड़ता है, (ii) सिक्कों की ढलाई के लिए बड़ी मात्रा में वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है।

(3) लाने तथा ले जाने में कठिनाई- यात्विक सिक्के भारी होते हैं, जिस कारण उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाना तथा मेजना सरल नहीं होता।

(4) सुरक्षा सम्बन्धी कठिनाई–एक तो स्वर्ण तथा रजत महंगी धातुएँ हैं। दूसरे, इन्हें रखने में कठिनाई होती है क्योंकि ये पर्याप्त स्थान घेरती हैं। परिणामतः इनके चोरी हो जाने का भय बना रहता है।

(5) लोच का अभाव-सिक्कों की मात्रा में देश की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तन नहीं किया जा सकता क्योंकि मुद्रा की मात्रा में वृद्धि करने के लिए अतिरिक्त धातुओं की आवश्यकता पड़ती है जिन्हें प्राप्त करना संदैव सुगम नहीं होता।

(6) बहुमूल्य धातुओं का अन्य कार्यों में उपयोग न हो पाना- बहुमूल्य धातुओं का प्रयोग सिक्कों की ढलाई में किए जाने के कारण उनका उपयोग अन्य आवश्यक कार्यों में नहीं हो पाता।

(7) प्रयोग में कठिनाई- (1) पत्र- मुद्रा की तुलना में यात्विक सिक्कों को गिनने में कहीं अधिक समय लगता है। परिणामतः वस्तुओं के क्रय-विकल में कुछ समय बर्बाद हो जाता है। कभी-कभी खरे तथा छोटे सिक्कों की जांच में कठिनाई आती है।

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Anjali Yadav

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