कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

ब्याज निर्धारण के सिद्धान्त (Theories of Determination of Interest)

ब्याज निर्धारण के सिद्धान्त (Theories of Determination of Interest)
ब्याज निर्धारण के सिद्धान्त (Theories of Determination of Interest)

ब्याज निर्धारण के सिद्धान्त (Theories of Determination of Interest)

ब्याज-निर्धारण के सम्बन्ध में अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए हैं जिनमें से दो प्रमुख सिद्धान्तों का यहाँ पर विस्तृत अध्ययन किया गया है—(I) ब्याज का परम्परावादी सिद्धान्त (ब्याज का माँग तथा पूर्ति का सिद्धान्त) तथा (II) कीन्स द्वारा प्रतिपादित व्याज का तरलता पसन्दगी सिद्धान्त।

(I) ब्याज का परम्परावादी सिद्धान्त (Classical Theory of Interest )

ब्याज के परम्परावादी सिद्धान्त की व्याख्या मुख्यतया जे०एस० मिल, वालरस, मार्शल, पीगू आदि अर्थशास्त्रियों ने की है। इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज का निर्धारण पूंजी की पूर्ति के द्वारा होता है। परम्परावादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार व्याज पर वास्तविक तत्त्वों, जैसे उत्पादकता (productivity), मितव्ययिता (thrift) त्याग (abstinence) आदि का प्रभाव पड़ता है। इसलिए इस सिद्धान्त को व्याज का वास्तविक सिद्धान्त (Real Theory of Interest) तथा व्याज का माँग और पूर्ति सिद्धान्त (Demand and Supply Theory of Interest) भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त को भली-मीति समझने के लिए पूंजी को माँग तथा पूर्ति की विस्तृत व्याख्या आवश्यक है।

पूंजी की माँग (Demand for Capital)-इस सिद्धान्त के अनुसार, पूंजी की मांग पूँजीगत पदार्थों, जैसे- मशीन, प्लान्ट आदि को प्राप्त करने अर्थात् निवेश करने के लिए की जाती है। पूँजीगत पदार्थों की मांग उनकी उत्पादकता के कारण की जाती है। एक उद्यमी अन्य साधनों को स्थिर रखकर पूंजी की सीमान्त उत्पादकता (marginal productivity of capital) का अनुमान लगा सकता है। पूँजी की सीमान्त उत्पादकता पर घटते प्रतिफल का नियम लागू होता है, अर्थात् निवेश (पूँजी की माँग) में वृद्धि के साथ-साथ पूंजी की सीमान्त उत्पाकदता कम होती जाती है। पूर्ण प्रतियोगिता की अवस्था में एक उद्यमी पूंजी की कीमत (ब्याज) तथा उसकी सीमान्त उत्पादकता बराबर हो जाते हैं। अतः पूंजी की मांग उसकी सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर करती है। यदि सीमान्त उत्पादकता प्रचलित ब्याज दर से अधिक है तो पूँजी की माँग अधिक होगी। इसके विपरीत प्रचलित ब्याज दर के अधिक होने पर पूंजी की माँग कम होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि पूंजी की माँग तथा ब्याज दर में उल्टा सम्बन्ध पाया जाता है।

पूंजी की पूर्ति (Supply of Capital)-पूंजी की पूर्ति वचत (saving) पर निर्भर करती है। बचत आप का वह माग है जो उपभोग पर खर्च नहीं किया जाता। बचत की पूर्ति पर उपभोग-स्थगन (abstinence), प्रतीक्षा (waiting), समय अधिमान (time preference) आदि वास्तविक तत्वों (real factors) का प्रभाव पड़ता है। इन वास्तविक तत्वों में परिवर्तन होने पर बचत की मात्रा में भी परिवर्तन हो जाता है। ये वास्तविक तत्व ब्याज दर पर निर्भर करते हैं। व्याजदर के बढ़ने पर बचत में वृद्धि हो जाती है। इसके विपरीत, ब्याज दर के घटने पर बचत भी घट जाती है। अतः बचत या पूंजी के पूर्ति-वक्र का ढलान ऊपर की ओर होता है।

ब्याज दर का निर्धारण (Determination of Rate of Interest) इस सिद्धान्त के अनुसार सन्तुलित ब्याज दर का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जिस पर पूंजी की मांग तथा पूर्ति एक दूसरे के बराबर हो जाती है। दूसरे शब्दों में, व्याज-दर बात और निवेश के सन्तुलन (या समानता) द्वारा निर्धारित होती है।

आलोचना (Criticism)–ब्याज के परम्पराबादी सिद्धान्त में निम्न दोष निकाले गए हैं-

(1) मौद्रिक तत्त्वों की उपेक्षा-आलोचकों के विचार में परम्परावादी सिद्धान्त ब्याज दर को प्रभावित करने वाले केवल वास्तविक तत्त्वों जैसे-प्रतीक्षा, उपभोग-स्वगन, उत्पादकता आदि पर ही ध्यान देता है। ब्याज दर को प्रभावित करने वाले मौद्रिक तत्वों (monetary factors) की इस सिद्धान्त में पूर्ण अवहेलना की गयी है। अतः यह एक अधूरा सिद्धान्त है।

(2) उपभोग-माग की अवहेलना- इस सिद्धान्त की यह धारणा पूर्णतया गलत है कि मुद्रा की माँग केवल निवेश के लिए की जाती है। वास्तव में मुद्रा की माँग उपभोग-कार्यों के लिए भी की जाती है।

(3) पूर्ति की संकुचित धारणा- प्रो० राबर्टसन के मतानुसार, यह सिद्धान्त केवल वर्तमान आय से प्राप्त होने वाली बचत को ध्यान में रखता है। किन्तु वास्तव में पूंजी की पूर्ति में पिछली जमा रकम (hoarding) भी शामिल होती है। आजकल बैंक-साख (bank credit) भी पूंजी की पूर्ति का एक मुख्य साधन है।

(4) बचत तथा निवेश में सन्तुलन- परम्परावादियों के विचार में बचत तथा निवेश में सन्तुलन व्याज दर के द्वारा स्थापित होता है। किन्तु जे०एम० कीन्स के अनुसार बचत और निवेश में सन्तुलन आय में होने वाले परिवर्तनों के कारण स्थापित होता है।

(5) पूर्ण रोजगार की अवास्तविक धारणा- यह सिद्धान्त पूर्ण रोजगार की मान्यता पर आधारित है। ऐसी स्थिति में पूंजी का पूरा उपयोग होता है। अतः एक कणी को उपभोग कम किए जाने पर ही पूंजी (बचत) प्राप्त हो सकती है। किन्तु वास्तविक जगत में अपूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है जिसमें बिना उपभोग कम किए बचत प्राप्त हो सकती है। इस प्रकार इस सिद्धान्त से यह स्पष्ट नहीं होता कि अपूर्ण रोजगार की स्थिति में व्याज क्यों दिया जाता है।

(6) अनिर्धार्य सिद्धान्त (Indeterminate Thoery)- कीन्स के विचारानुसार, यह सिद्धान्त व्याजदर का निर्धारण नहीं कर सकता क्योंकि इसमें आय-स्तर पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। आय के बिना बचत नहीं होती और बचत के बिना पूंजी की पूर्ति नहीं होती।

2. कीन्स का ब्याज का तरलता पसन्दगी सिद्धान्त (Keynes’ Liquidity Preference Theory of Interest)

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे०ए० कीन्स ने अपनी पुस्तक The General Theory of Employment, Interest and Money’ में ब्याज-निर्धारण का एक नवीन सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसे ‘ब्याज का तरलता पसन्दगी सिद्धान्त’ अथवा ‘ब्याज का मौद्रिक सिद्धान्त’ कहा जाता है।

कीन्स के अनुसार व्याज एक मौद्रिक क्रिया (monetary phenomenon) है और ब्याज की दर मुद्रा की माँग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। मुद्रा की पूर्ति देश में प्रचलन में मुद्रा की मात्रा तथा बैंक जमा पर निर्भर करती है। मुद्रा की माँग मुद्रा को नकद (liquid) रूप में रखने के लिए की जाती है। लोगों द्वारा मुद्रा की नकद रूप में रखने की इच्छा को कीन्स ने नकदी अधिमान (या पसन्दगी)’ (liquidity prefrence) कहा है ब्याज तरलता पसन्दगी का पुरस्कार है।

ब्याज का अर्थ (Meaning of Interest )- जे०एम० कीन्स के शब्दों में, “ब्याज एक निश्चित समयावधि के लिए तरलता के परित्याग का पुरस्कार है। ब्याज इसलिए दिया जाता है क्योंकि लोग प्रलोभन के बिना अपनी नकदी छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते। इस प्रकार ब्याज नकदी छोड़ने के लिए लोगों को दिया जाने वाला प्रलोभन है। कीन्स के अनुसार, ब्याज की दर वह पुरस्कार है जो लोगों को अपने धन को संचित मुद्रा के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में रखने को प्रोत्साहित करने के लिए दिया जाता है।

ब्याज का निर्धारण (Determination of Interest)-कीन्स के अनुसार, ब्याज का निर्धारण मुद्रा की माँग तथा पूर्ति के द्वारा होता है। अर्थात् ब्याज दर वहाँ निर्धारित होगी जहाँ मुद्रा की पूर्ति (SM) = मुद्रा की माँग (DM)। अतः इस सिद्धान्त को भली-भाँति समझने के लिए मुद्रा की माँग तथा मुद्रा की पूर्ति इन दो तत्त्वों की विस्तृत व्याख्या परमावश्यक है।

मुद्रा की माँग या तरलता अधिमान (Demand for Money or Liquidity Preference)- फोन्स के अनुसार ‘मुद्रा की माँग’ से आशय लोगों द्वारा मुद्रा को अपने पास तरल (नकद) रूप में रखने की इच्छा से है। इसको ही उन्होंने ‘तरलता अधिमान’ कहा है। कीन्स के अनुसार, लोग निम्न तीन उद्देश्यों के लिए मुद्रा को नकद रूप रखना चाहते हैं-

(1) क्रय-विक्रय उद्देश्य (Transactional Motive)-बहुत से व्यक्तियों तथा फर्मों को आय कुछ समय के अन्तर के बाद मिलती है, किन्तु उन्हें खर्चे निरन्तर करने पड़ते हैं। आय प्राप्त होने तक दैनिक व्ययों को पूरा करने के लिए नकदी के रूप में मुद्रा रखने की इच्छा को ‘क्रय-विक्रय उद्देश्य हेतु नकदी पसन्दगी’ कहा जाता है। इस उद्देश्य के लिए रखी गयी नकदी की मात्रा तीन बातों पर निर्भर करती है—-(i) आय की मात्रा, (II) आय कितनी समयावधि के बाद प्राप्त होती है, (iii) व्यय करने का ढंग। किन्तु इस उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग मुख्यतया आप की मात्रा पर निर्भर करती है। आय की मात्रा अधिक होने पर इस उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग अधिक होगी, जबकि आय के कम होने पर मुद्रा की माँग कम होगी। सूत्र के रूप में इसे निम्न प्रकार लिखा जा सकता है:

Lt= f (y)

इसे पढ़ा जायेगा क्रय-विक्रय उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग (Lt), आय (y) का फलन (f) है। कीन्स के अनुसार ब्याज की दर में परिवर्तन का क्रय-विक्रय उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह ब्याज बेलोच (interest Inelastic) होती है।

(2) सावधानी उद्देश्य (Precautionary Motive) प्रत्येक व्यक्ति तथा फर्म को भविष्य में अनेक प्रकार की अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ता है। उदाहरणार्थ, एक व्यक्ति को बीमारी, बेकारी, दुर्घटना आदि का सामना करना पड़ सकता है। इसी प्रकार एक फर्म को मशीन की टूट-फूट, अकस्मात् लाभकारी सौदा करना, व्यापार में हानि झेलना आदि के लिए धनराशि की आवश्यकता पड़ता है। व्यक्ति और फर्म ऐसी कठिनाइयों में प्रयोग करने हेतु सावधानी या दूरदर्शिता उद्देश्य से कुछ धनराशि नकद रूप में रखना चाहते हैं। इस उद्देश्य के लिए रखी गई नकदी अन्य तत्त्वों के अलावा मुख्यतः आय की मात्रा पर निर्भर करती है। समीकरण के रूप में:

Lp = f(y)

इसे पढ़ा जायेगा सावधानी उद्देश्य हेतु मुद्रा की माँग (Lp), आप (y) का फलन (f) है।

ब्याज दर में परिवर्तन का सावधानी उद्देश्य हेतु मुद्रा की माँग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह माँग भी ब्याज बेलोच (interest inelastic) होती है।

कीन्स ने क्रय-विक्रय तथा सावधानी उद्देश्यों के लिए मुद्रा की माँग को M द्वारा प्रकट किया है। अतः

M1 = Lt+ Lp = f (y)|

(3) सट्टा उद्देश्य (Speculative Motive)-व्याज दर में भविष्य में परिवर्तन होने की सम्भावना रहती है। कुछ व्यक्ति विशेषकर सट्टेबाज, दलाल आदि ब्याज दर में परिवर्तन से लाभ कमाने के उद्देश्य से अपने पास नकदी रखते हैं। इस उद्देश्य को सट्टा उद्देश्य कहा जाता है। कीन्स के शब्दों में, “भविष्य के सम्बन्ध में बाजार की तुलना में अधिक जानकारी द्वारा लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य को सट्टा उद्देश्य कहा जाता है।10 सट्टा उद्देश्य के लिए नकदी की माँग व्याज सापेक्ष (interest elastic) होती है। सट्टा उद्देश्य हेतु नकदी की माँग तथा व्याज दर में विपरीत सम्बन्ध (inverse relation) है। इसका अर्थ यह है कि ऊँची ब्याज दर पर नकदी की माँग कम होगी और कम ब्याज दर पर नकदी की माँग अधिक होगी। सूत्र के रूप में:

Ls = f (r)

यहाँ, Ls= सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की मांग = व्याज की दर

मुद्रा की कुल माँग (Total Demand for Money) मुद्रा की कुल माँग (DM) तीनों उद्देश्यों अर्थात् क्रय-विक्रय उद्देश्य, सावधानी उद्देश्य तथा सट्टा उद्देश्य के लिए नकद मुद्रा की मांग को जोड़कर प्राप्त की जाती है। अतः

DM = Lt + Lp + Ls = f (y,r)

क्रय-विक्रय तथा सावधानी उद्देश्य के लिए नकदी की माँग आय-स्तर पर निर्भर करती है तथा व्याजदर में परिवर्तन का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसके विपरीत, सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग ब्याज की दर पर निर्भर करती है।

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Anjali Yadav

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