उपभोग का महत्त्व (Importance of Consumption)
उपभोग के महत्व को दो भागों में बीटा जाता है–(I) सैद्धान्तिक महत्त्व, तथा (II) व्यावहारिक महत्त्व।
(I) सैद्धान्तिक महत्त्व (Theoretical Importance)-उपभोग का सैद्धान्तिक महत्त्व निम्न बातों से स्पष्ट है-
(1) उपभोग मानवीय कार्यों की प्रेरणा का स्रोत- नाना प्रकार की वस्तुओं तथा सेवाओं के उपभोग की इच्छा के कारण ही आज समूचा विश्व क्रियाशील है। निःसन्देह उपभोग की इच्छा ही विभिन्न मानवीय आर्थिक क्रियाओं को जन्म देती है।
(2) आर्थिक क्रियाओं का आरम्भ तथा अन्त (Beginning and End of Economic Activities)-
(i) उपभोग मानवीय आर्थिक क्रियाओं का जनक- आर्थिक क्रियाएँ आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए की जाती हैं और आवश्यकताओं का अध्ययन हम उपयोग के अन्तर्गत करते हैं। यदि आवश्यकताएं अनुभव नहीं की जायेंगी तो उत्पादन, विनिमय तथा वितरण सम्बन्धी क्रियाएँ भी नहीं होगी। इस प्रकार उपभोग विभिन्न आर्थिक क्रियाओं की प्रेरक शक्ति है। एडम स्मिय के शब्दों में, “उपभोग ही समस्त उत्पादन का एकमात्र कारण तथा उद्देश्य है। विभिन्न वस्तुओं तथा सेवाओं के उपभोग की इच्छा ही उत्पादन को जन्म देती है।
(ii) सभी आर्थिक क्रियाओं का अन्तिम उद्देश्य- उपयोग न केवल आर्थिक क्रियाओं को प्रेरित करता है कि आर्थिक क्रियाओं का अन्तिम उद्देश्य भी उपभोग ही है। दूसरे शब्दों में, उपभोग ही आर्थिक क्रियाओं के क्रम को प्रारम्भ करवाता है और उपभोग पर आकर ही आर्थिक क्रियाओं का यह क्रम समाप्त होता है। आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए मनुष्य को धन (आय) चाहिए। धन प्राप्ति के लिए मनुष्य आर्थिक प्रयत्न करते हैं, जैसे किसान खेत में काम करता है, अमिक कारखाने में काम करता है, अनेक लोग कार्यालयों में काम करते हैं, आदि धन प्राप्त करके मनुष्य वस्तुओं य सेवाओं का विनिमय करते हैं। तत्पश्चात् वस्तुओं का उपभोग करके वे अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करते हैं। इस प्रकार आर्थिक क्रियाएं उपभोग से प्रारम्भ होकर, उपभोग पर ही समाप्त हो जाती है। संक्षेप में, उपभोग ही समस्त आर्थिक क्रियाओं का ‘आदि’ तथा ‘अन्त’ है।
(3) उपभोग द्वारा उत्पादन की मात्रा तथा किस्म का निर्धारण- उपभोग के लिए जिस प्रकार की वस्तुओं की मांग की जाती है उत्पादक उसी प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। फिर उत्पादन की मात्रा भी उपभोग की मात्रा पर निर्भर करती है, अर्थात् वस्तुओं का उपभोग कम होने पर उत्पादन भी कम होगा जबकि उपभोग अधिक होने पर उत्पादन भी अधिक होगा।
(4) रोजगार का स्तर उपभोग पर निर्भर- किसी देश में रोजगार का स्तर उत्पादन की मात्रा तथा प्रकार पर निर्भर करता है। उत्पादन की मात्रा तथा प्रकार वस्तुओं व सेवाओं की माँग (उपभोग की मात्रा व प्रकार) पर निर्भर करती है। अर्थात् उपभोग के बढ़ने पर देश में उत्पादन तथा रोजगार दोनों बढ़ते है।
(5) राष्ट्रीय कल्याण का उपभोग पर निर्भर होना- किसी देश के निवासियों का कल्याण (twelfare) उत्पादन की मात्रा पर नहीं बल्कि उपभोग की मात्रा तथा स्वभाव पर निर्भर करता है। लोगों का कल्याण इस से नहीं जाना जा सकता कि उत्पादन कितना हो रहा है बल्कि इस बात से जाना जाता है कि लोग कितनी तथा किस प्रकार की वस्तुओं का उपयोग कर रहे हैं। जिस देश में उपभोग का स्तर ऊँचा होगा तथा नशीली एवं हानिप्रद वस्तुओं की अपेक्षा स्वास्थ्यप्रद वस्तुओं का अधिक उपभोग होगा वहाँ लोगों का आर्थिक कल्याण उतना ही अधिक होगा तथा जीवन स्तर उतना ही उच्च होगा।
(6) उपभोग आर्थिक प्रगति का प्रतिविम्य- किसी राष्ट्र के उपयोग के स्तर तथा स्वरूप के आधार पर वहाँ की आर्थिक प्रगति का अनुमान लगाया जा सकता है। जिन देशों के लोग वस्तुओं का उपभोग पर्याप्त मात्रा में नहीं कर पाते वे निर्धन तथा अल्प-विकसित देश कहलाते हैं। इसके विपरीत, जिन देशों के अधिकांश लोग अधिकाधिक वढ़िया वस्तुओं का उपभोग करते हैं वे विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं।
(II) उपभोग का व्यावहारिक महत्त्व (Practical Importance of Consumption)- समाज के विभिन्न वर्गों के लिए उपभोग के सिद्धान्तों का ज्ञान बहुत उपयोगी होता है।
(1) गृहस्वामियों या उपभोक्ताओं को लाभ- प्रत्येक गृहस्वामी अपनी सीमित आय से अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करना चाहता है। उपभोग के सम-सीमान्त तुष्टिगुण नियम का पालन करके यह इस उद्देश्य की प्राप्ति कर सकता है। साथ ही पारिवारिक, बजट बनाकर वह फिजूलखर्ची को रोक सकता है। इसके अतिरिक्त, ‘उपभोग’ के अध्ययन से माँ के नियम, गोंग की मूल्य सापेक्षता, सीमान्त तुष्टिगुण नियम, उपभोक्ता की बचत आदि विभिन्न सिद्धान्तों तथा अवधारणाओं का ज्ञान हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप गृहस्वामी सुखमय और उत्तम जीवन व्यतीत करने के योग्य हो जाते हैं।
(2) उत्पादकों को लाभ- उत्पादकों के लिए उपभोग सम्बन्धी ज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है (1) उत्पादन की मात्रा निश्चित करने के लिए उन्हें लोगों की उपभोग आदतों की जानकारी होनी चाहिए। (ii) उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन लाभकारी होता है जिनका कि लोग उपभोग करना चाहते हैं। (iii) श्रमिकों की कार्यकुशलता में वृद्धि करने हेतु उनके उपभोग-स्तर सुधार करना आवश्यक होता है।
(3) व्यापारियों को लाभ- उपभोक्ताओं की रुचियों तथा आदतों की जानकारी के आधार पर ही व्यापारी यह तय करते है कि उन्हें किन वस्तुओं का विक्रय करना चाहिए तथा उनका कितना स्टॉक अपने पास रखना चाहिए। वस्तुतः व्यापार के सफलता के लिए मांग का सही पूर्वानुमान लगाना आवश्यक होता है।
(4) राजनीतिज्ञों को लाभ- आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में राजनीति का आधार आर्थिक होता जा रहा है जिस कारण | राजनीतिज्ञों के लिए उपभोग सम्बन्धी समस्याओं का पूर्ण ज्ञान आवश्यक है। आधुनिक सरकारों का प्रमुख लक्ष्य समाज के विभिन्न वर्गों के जीवन-स्तर को न केवल गिरने से रोकना है बल्कि उसे उन्नत करने के लिए गम्भीर प्रयास भी करना होता है। उपभोग की मात्रा को बढ़ाकर ही जनता के जीवन स्तर को ऊपर उठाया जा सकता है। साथ ही हानिकारक वस्तुओं के उपभोग पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, देश में पूंजी निर्माण को बढ़ावा देने के लिए सरकार को, वचतों में वृद्धि करने हेतु अनावश्यक उपभोग को कम करने के लिए प्रयास करने चाहिए। कर लगाते समय वित्त मन्त्री को करों के उत्पादन तथा उपभोग पर पड़ने वाले प्रभावों को ध्यान में रखना चाहिए। सामाजिक कल्याण में वृद्धि करने के लिए सरकार को अनिवार्य-वस्तुओं पर ‘कर’ नहीं लगाने चाहिए जबकि हानिकारक वस्तुओं पर कर लगाकर उनके उपभोग को हतोत्साहित करना चाहिए।
(5) समाज सुधारकों को लाभ- समाज-सुधारकों का प्रमुख उद्देश्य देश की सामाजिक कुरीतियों को दूर करके देश की आर्थिक, सामाजिक तथा नैतिक उन्नति के लिए प्रयास करना होता है। समाज सुधारक देश के उपभोग ढाँचे का अध्ययन करके यह जान जाते हैं कि शराब, सिगरेट, तम्बाकू आदि हानिकारक वस्तुओं पर आय का कितना भाग व्यय किया जा रहा है। ऐसी जानकारी के आधार पर वे देश की आर्थिक तथा नैतिक उन्नति हेतु उपभोग के स्वरूप में परिवर्तन लाने का प्रयास कर सकते हैं।
(6) आर्थिक नियोजन का आधार आर्थिक नियोजन (economic planning) का अर्थ है-पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को निश्चित समयावधि में प्राप्त करने हेतु प्राथमिकताओं (priorities) का निर्धारण करना तथा देश के संसाधनों का उसी के अनुसार आवंटन करना। आर्थिक नियोजन का प्रमुख उद्देश्य उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन तथा उपभोग में वृद्धि द्वारा लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बचत दर का अधिक होना आवश्यक है ताकि, कृषि, उद्योग आदि क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ाने के लिए अधिक पूँजी लगाई जा सके। बचतन्दर में वृद्धि करने के लिए उपभोग में कमी करना अनिवार्य है। इसके लिए अनावश्यक वस्तुओं पर उपभोग-व्यय में कमी करनी होगी।
(7) विदेशी व्यापार का आधार- उपभोग का किसी देश के विदेशी व्यापार पर गहरा प्रभाव पड़ता है। किसी देश में जिन वस्तुओं का उपभोग उनके उत्पादन से कम होता है उनका निर्यात किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, जिन वस्तुओं का उपभोग उनके उत्पादन से अधिक होता है उनका निर्यात नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उनकी कमी दूर करने के लिए उनका आयात किया जाना चाहिए। इस प्रकार अपने उपभोग-ढाँचे के विश्लेषण द्वारा कोई देश यह तय करने में सफल होता है कि कौन-सी वस्तुओं का आयात किया जाए तथा कौन-सी वस्तुओं का निर्यात किया जाए।
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