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आवश्यकताओं के लक्षण (Characteristics of Wants)
मानवीय आवश्यकताएँ विभिन्न प्रकार की होती हैं तथा देश, काल और व्यक्ति के आधार पर उनमें अन्तर हो जाता है। फिर भी आवश्यकताओं की कुछ ऐसी सामान्य विशेषताएँ हैं जो प्रत्येक देश और काल में समान रूप से पायी जाती हैं। इन समानताओं को ही आवश्यकताओं के लक्षण या विशेषताएं कहते हैं। आवश्यकताओं के प्रमुख लक्षण निम्न है-
(1) आवश्यकताएँ असीमित तथा अनन्त होती हैं- मनुष्य की आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं होती। जैसे ही उसकी एक आवश्यकता सन्तुष्ट होती है, वैसे ही उसके सामने कोई दूसरी आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है। यद्यपि मनुष्य जीवन पर्यन्त अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए प्रयत्नशील रहता है, फिर भी उसकी आवश्यकताओं का कभी अन्त नहीं होता। आवश्यकताओं की इस विशेषता पर आर्थिक प्रगति का नियम (Law of Econonic Progress) आधारित है।
(2) किसी आवश्यकता- विशेष को सन्तुष्ट किया जा सकता है मनुष्य अपनी सभी आवश्यकताओं को तो एक साथ सन्तुष्ट नहीं कर सकता किन्तु किसी समय पर वह अपनी किसी एक आवश्यकता विशेष को सन्तुष्ट कर सकता है। उदाहरणार्थ, किसी समय भूख को पूर्णतया शान्त किया जा सकता है। रोटी खाते-खाते एक समय ऐसा भी आ जाता है जबकि मनुष्य का पेट पूर्णतया भर जाता है और उसके बाद वह रोटी खाने को तैयार नहीं होता। आवश्यकता की इस विशेषता पर सीमान्त उपयोगिता हास नियम (Law of Diminishing Marginal Utility) आधारित है।
(3) आवश्यकताएँ प्रतियोगी (Competitive) होती हैं- मनुष्य की आवश्यकताएँ तो अनन्त होती हैं, किन्तु उनकी पूर्ति करने वाले साधन सीमित होते हैं। अतः मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं में चुनाव करना पड़ता है। यह चुनाव आवश्यकताओं की तीव्रता के आधार पर किया जाता है। सबसे पहले अधिक तीव्र आवश्यकताओं को सन्तुष्ट किया जाता है। इस प्रकार सन्तुष्टि में प्राथमिकता पाने के लिए आवश्यकताएँ आपस में प्रतियोगिता करती हैं। आवश्यकताओं की इस विशेषता पर सम-सीमान्त उपयोगिता नियम (Law of Equi-marginal Utility) तथा आर्थिक नियोजन की अवधारणा आधारित हैं।
(4) आवश्यकताएँ बार-बार अनुभव की जाती हैं- कुछ आवश्यकताएँ ऐसी होती है जिनकी किसी समय-विशेष पर सन्तुष्टि हो जाने के पश्चात् वे कुछ समय बाद पुनः उत्पन्न हो जाती है, जैसे एक बार भोजन कर लेने के पश्चात् कुछ घण्टों के बाद फिर भूख लगने लगती है। इसी प्रकार पानी की आवश्यकता दिन में कई बार अनुभव की जाती है।
(5) कुछ आवश्यकताएँ परस्पर पूरक होती हैं- कुछ मानवीय आवश्यताएं ऐसी होती है जिनकी सन्तुष्टि के लिए एक साथ दो या दो से अधिक वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है, जैसे पैन के साथ कागज तथा स्याही की आवश्यकता, मोटर के साथ पेट्रोल की आवश्यकता जादि। आवश्यकताओं की इस विशेषता पर मूल्य निर्धारण का संयुक्त माँग का सिद्धान्त (Theory of Joint Demand) आधारित है।
(6) कुछ आवश्यकताएँ वैकल्पिक होती हैं- कुछ आवश्यकताएँ ऐसी होती है जिन्हें कई प्रकार से सन्तुष्ट किया सकता है, जैसे भूख को रोटी या चावल या फल खाकर सिटाया जा सकता है। इसी प्रकार यात्रा सम्बन्धी आवश्यकता को रेलगाड़ी या मोटर द्वारा यात्रा करके पूर्ण किया जा सकता है। आवश्यकताओं की इस विशेषता पर वैकल्पिक माँग (Alternative Demand), मांग की लोच (Blasticity of Demand), सामूहिक पूर्ति (Composite Supply) आदि अवधारणाएँ आधारित हैं।
(7) आवश्यकताओं की तीव्रता भिन्न-भिन्न होती है- मनुष्य अपनी सभी आवश्यकताओं समान रूप से अनुभव नहीं करता। कुछ आवश्यकताओं की तो वह अधिक तीव्रता से अनुभव करता है जैसे भोजन, कपड़ा, मकान आदि की आवश्यकताएँ जबकि उसकी कुछ आवश्यकताएँ कम तीव्र होती हैं, जैसे सिनेमा, घड़ी, मोटर आदि की आवश्यकताएँ। इस विशेषता पर आवश्यकताओं का वर्गीकरण तथा पारिवारिक बजट (family budget) आधारित है।
(8) वर्तमान आवश्यकताएँ भविष्य की आवश्यकताओं की अपेक्षा तीव्र होती हैं- चूंकि भविष्य अनिश्चित होता है, इसलिए मनुष्य भावी आवश्यकताओं की अपेक्षा वर्तमान आवश्यकताओं को अधिक महत्त्व प्रदान करता है। उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति को भूख लग रही है और वह घूमने के लिए आगरा भी जाना चाहता है। सबसे पहले वह अपनी भूख को शान्त करेगा। घूमने की इच्छा को तो बाद में भी सन्तुष्ट किया जा सकता है। आवश्यकताओं की इस विशेषता पर फिशर द्वारा प्रतिपादित ‘ब्याज का समय अधिमान सिद्धान्त’ (Time Preference Theory of Interest) आधारित है।
(9) कुछ आवश्यकताएँ आदत में बदल जाती हैं- किसी यस्तु का निरन्तर उपभोग करते रहने से कोई व्यक्ति उस वस्तु के उपयोग का आदी हो जाता है तथा उस वस्तु के न मिलने पर उसे कष्ट होता है, जैसे शराब, चाय, सिगरेट आदि की आदत। आवश्यकताओं की इस विशेषता पर मजदूरी का जीवन स्तर सिद्धान्त आधारित है।
(10) आवश्यकताओं पर रीति-रिवाज, फैशन तथा आय का प्रभाव पड़ता है- जिस समाज में मनुष्य रहता है उसमें प्रचलित प्रथाएँ तथा रीति-रिवाज अनेक आवश्यकताओं को जन्म देते हैं, जैसे हिन्दू समाज में जन्म, विवाह तथा मृत्यु के सम्बन्ध में विभिन्न रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है। इसी प्रकार फैशन में परिवर्तन से आवश्यकताओं में भी परिवर्तन हो जाता है। फिर मनुष्य की आय में वृद्धि होने पर उसकी आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं।
(11) ज्ञान तथा सभ्यता के विकास से आवश्यकताएँ बढ़ती है- जैसे-जैसे मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है तथा सभ्यता का विकास होता है, वैसे-वैसे उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती जाती है। इसी कारण गाँव में रहने वाले व्यक्ति की अपेक्षा शहर में रहने वाले व्यक्ति की आवश्यकताएँ अधिक तथा विविध प्रकार की होती हैं। इसके अतिरिक्त, वैज्ञानिक उन्नति से आवश्यकताओं में वृद्धि होती है। उदाहरणार्थ, टेपरिकार्डर, टेलीविजन, वी०सी०आर० केसेट आदि की आवश्यकताओं का उदय वैज्ञानिक प्रगति के कारण ही हुआ है।
(12) आवश्यकताएँ आविष्कार की जननी हैं- वास्तव में आवश्यकताएँ आविष्कार को जन्म देती हैं। जैसे-जैसे मनुष्य की आवश्यकताएँ तथा समस्याएँ बढ़ी हैं, वैसे-वैसे नए आविष्कार किए गए हैं। जनसंख्या के बढ़ने पर खाद्यान्न की आवश्यकता बड़ी कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए नए-नए बीज तथा रासायनिक खाद आदि का विकास किया गया। आवश्यकताओं की इस विशेषता ने विभिन्न राष्ट्रों के तीव्र आर्थिक विकास को सम्भव बनाया है।
(13) आवश्यकताएँ विज्ञापन तथा विक्रय-कला से प्रभावित होती हैं- पत्र-पत्रिकाओं, समाचारपत्रों, सिनेमा, टेलीविजन तथा अन्य साधनों द्वारा किए जाने वाले विज्ञापनों से भी व्यक्तियों की आवश्यकताओं में परिवर्तन हो जाता है। इस विशेषता पर विक्रय-लागत (selling cost) की अवधारणा आधारित है।
(14) आवश्यकताएँ परिवर्तित होती रहती हैं- मनुष्य की आवश्यकताएँ सदैव समान नहीं रहती बल्कि वे समय तथा परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं।
आवश्यकताओं की विशेषता के अपवाद
प्रो० मोरलैण्ड (Moreland) ने आवश्यकताओं की उपर्युक्त विशेषताओं के निम्नलिखित अपवाद (exceptions) बताए है-
(1) साधु-सन्यासी की आवश्यकताएँ अनन्त नहीं होती- मोरलैण्ड के विचार में साधु-सन्यासी की आवश्यकताएँ सीमित होती हैं। किन्तु यह अपवाद काल्पनिक है क्योंकि अर्थशास्त्र में साधु-सन्यासी की क्रियाओं का अध्ययन नहीं किया जाता।
(2) प्रदर्शन तथा दिखावट की आवश्यकता का असन्तुष्ट रहना- यह भी वास्तविक अपवाद नहीं है क्योंकि (1) प्रदर्शन की आवश्यकता किसी वस्तु-विशेष की न होकर अनेक वस्तुओं की आवश्यकता होती है। ऐसी वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को आवश्यकता को सन्तुष्ट करना असम्भव नहीं होता।
(3) कंजूस की धन-संचय की आवश्यकता सन्तुष्ट नहीं होती- यह भी वास्तविक अपावाद नहीं है क्योंकि कंजूस एक असामान्य व्यक्ति है जिसके आचरण का अर्थशास्त्र में अध्ययन नहीं किया जाता।
(4) शक्ति-प्रदर्शन तथा शक्ति-स्नेह की आवश्यकता सन्तुष्ट नहीं होती- (i) यह अनार्थिक इच्छाएँ हैं जिनका अर्थशास्त्र में अध्ययन नहीं किया जाता (ii) ऐसी इच्छाएँ रखने वाले व्यक्ति औसत तथा सामान्य मनुष्य नहीं होते जबकि अर्थशास्त्र में सामान्य व्यक्तियों की आर्थिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मोरलेण्ड द्वारा बताए गए सभी अपवाद वास्तविक न होकर काल्पनिक हैं।
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