नियोजन काल में सहकारी आन्दोलन का विकास
15 अगस्त 1947 को देश स्वतन्त्र हुआ तथा देश के तीव्र आर्थिक विकास हेतु भारत सरकार ने आर्थिक नियोजन की नीति अपनाई। 1 अप्रैल, 1951 को देश की प्रथम पंचवर्षीय योजना लागू की गई। योजना आयोग (Planning Commission) ऐसा ने राष्ट्रीय योजना में सहकारिता’ को उचित स्थान देते हुए लिखा, “एक नियोजित विकास वाली अर्थव्यवस्था में सहकारिता साधन है जो विकेन्द्रीकरण और स्थानीय पहल के कुल लाभ रखते हुए योजना के सर्वमान्य उद्देश्यों तथा निर्देशों की पूर्ति में इच्छा तथा तत्परता से सहायक होगा।”
प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) में सहकारिता- देश की प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल (1951-56) में सहकारिता को सैद्धान्तिक दृष्टि से तो अत्यन्त महत्त्व दिया गया, किन्तु व्यवहार में इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए जा सके। सरकार तो सहकारिता का विकास करना चाहती थी किन्तु इसके लिए उसके पास कोई उपयुक्त योजना नहीं थी। इसलिए प्रथम योजना में सहकारिता के क्षेत्र में जो कुछ प्रगति हुई वह समूचे राष्ट्र की दृष्टि से एकदम अपर्याप्त थी।
प्रथम योजना में सहकारिता के सिद्धान्तों का प्रयोग साख के अतिरिक्त उत्पादन, वितरण तथा कृषि के अन्य क्षेत्रों में भी। प्रारम्भ किया गया। देश में बहुउद्देशीय समितियों, औद्योगिक सहकारी समितियों, उपभोक्ता समितियों, गृह निर्माण समितियों आदि की स्थापना की गई।
सन् 1951 में प्राथमिक कृषि साख समितियों की संख्या 1.15,462, सदस्य संख्या 51-54 लाख तथा दी गई ऋणराशि 22-61 करोड़ ₹ थी। सन् 1956 में इनकी संख्या बढ़कर 1,59,939 तथा सदस्यता और ऋणराशि क्रमशः 77-91 लाख तथा 150-16 करोड़ ₹ हो गई थी। योजना के अन्त में सभी प्रकार की सहकारी समितियों की संख्या 2-4 लाख थी।
अखिल भारतीय ग्रामीण साख सर्वेक्षण समिति- सन् 1951 में रिज़र्व बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा श्री ए०डी० गोरवाला की अध्यक्षता में अखिल भारतीय ग्रामीण साख सर्वेक्षण समिति’ (All India Rural Credit Survey Committee) का गठन किया गया तथा इसे ग्रामीण साख की जाँच करने तथा उपयुक्त सुझाव देने का कार्य सौंपा गया।
समिति ने व्यापक सर्वेक्षण के बाद निष्कर्ष निकाला कि ग्रामीण साख में सहकारिता का योगदान केवल 3-1% था, व्यापारिक बैंकों का योगदान शून्य के बराबर था जबकि सेठ-साहूकार तथा गाँव के बनिए का ग्रामीण साख में योगदान 70% था। दीर्घकालीन साख की तो एकदम कमी थी। 50 वर्ष के जीवन काल के बाद भी सहकारी आन्दोलन सस्ती दर पर ग्रामीण साख जुटाने में बुरी तरह असफल रहा था।
समिति ने सन् 1954 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तथा ग्रामीण साख के सम्बन्ध में ग्रामीण साख की समन्वित योजना” (Integrated Scheme of Rural Credit) नामक कार्यक्रम प्रारम्भ करने की सिफारिश की।
ग्रामीण साख की समन्वित योजना- सहकारी आन्दोलन को सफल बनाने के लिए समिति ने निम्न महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए, जिन्हें ग्राम साख समन्वित योजना’ के नाम से जाना जाता है-
(1) सरकारी सहभागिता- सहकारिता के प्रत्येक स्तर (प्राथमिक समिति, केन्द्रीय बैंक, प्रान्तीय बैंक) पर सरकारी सहभागिता होनी चाहिए। इससे सहकारी संस्थाओं की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी। किन्तु सहकारी संस्थाओं के आन्तरिक प्रबन्ध में सरकार का हस्तक्षेप नहीं के बराबर होना चाहिए। सरकार का भाग 51% होना चाहिए ताकि वह सहकारी बैंकों पर प्रभावी नियन्त्रण रख सके।
(2) सीमित दायित्व– बदली हुई दशाओं में सीमित दायित्व का सिद्धान्त ही उपयुक्त होगा।
(3) गोदामों की व्यवस्था- विपणन समितियों के सफल संचालन के लिए गोदामों की उचित व्यवस्था की जाए।
(4) विभिन्न समितियों में समन्वय- साख, विपणन आदि सभी प्रकार की प्राथमिक समितियों में पूर्ण समन्वय होना आवश्यक है।
(5) स्टेट बैंक की स्थापना- ग्रामीण साख में व्यापारिक बैंकों का सहयोग अनिवार्य है। इसके लिए इम्पीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण करके स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना की जाए तथा उसे ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक शाखाएँ खोलने का कार्य सौंपा जाए।
(6) ऋण-नीति में परिवर्तन- ऋण सम्पत्ति के आधार पर नहीं, बल्कि फसल के आधार पर दिया जाए। साथ ही ऋण का आधार सदस्य की ऋण लेने की क्षमता नहीं, बल्कि उसकी ऋण (साख) की आवश्यकता होनी चाहिए।
(7) प्रशिक्षण- सहकारी संस्थाओं के कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।
(8) रिजर्व बैंक द्वारा कोयों का निर्माण- देश का केन्द्रीय बैंक होने के नाते रिवर्ज बैंक पर कृषि-वित्त की उचित व्यवस्था करने की विशेष जिम्मेदारी है। इसके लिए रिजर्व बैंक को निम्न कोषों का निर्माण करना चाहिए-
(i) राष्ट्रीय कृषि साख (दीर्घकालीन) कोष- रिजर्व बैंक इस कोष से राज्य सरकारों को दीर्घकालीन ऋण प्रदान करे जिससे राज्य सरकारें राज्य सहकारी बैंकों, केन्द्रीय सहकारी बैंकों, प्राथमिक साख समितियों आदि की अंश पूंजी में योगदान करें। इस कोष में भूमि बन्धक बैंकों के लिए भी ऋण की व्यवस्था की जाए।
(ii) राष्ट्रीय कृषि साख (स्थिरीकरण) कोष— इस कोष से राज्य सहकारी बैंकों को मध्यकालीन ऋण दिए जाएँ, ताकि वे अकाल, सूखा, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं के लिए दिए गए अल्पकालीन ऋणों को मध्यकालीन ऋणों में परिवर्तित कर सकें।
(9) अन्य कोपों का निर्माण- उक्त दो कोषों (Funds) के अतिरिक्त समिति ने तीन अन्य कोषों के निर्माण का भी सुझाव दिया-(i) राष्ट्रीय गोदाम विकास कोष- गोदामों के निर्माण के लिए राज्य सरकारों को ऋण प्रदान करने हेतु। (ii) राष्ट्रीय सहकारिता विकास कोष- राज्य सरकारों को दीर्घकालीन ऋण प्रदान करने के लिए, ताकि वे सहकारी समितियों की अंश-पूंजी में भाग ले सके। (iii) राष्ट्रीय कृषि साख (सहायता एवं गारण्टी) कोष- अकाल तथा अन्य प्राकृतिक विपत्तियों के कारण सहकारी बैंकों की क्षतिपूर्ति के लिए।
उक्त सुझावों को द्वितीय योजना में कार्यान्वित किया गया।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-1961) में सहकारिता- प्रथम योजना सहकारिता के क्षेत्र में एक प्रकार का प्रयोग सिद्ध हुई। इसके अनुभवों के आधार पर द्वितीय योजना में सहकारिता के क्षेत्र में निम्न ठोस कदम उठाए गए-
(1) गोरवाला की ‘ग्राम साख समन्वित योजना के अनुसार इम्पीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण करके ‘स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया’ की स्थापना की गई।
(2) कृषि वित्त की व्यवस्था के लिए रिजर्व बैंक में दो कोषों की स्थापना की गई—(1) राष्ट्रीय कृषि साख (दीर्घकालीन) कोष तथा (i) राष्ट्रीय कृषि साख (स्थिरीकरण) कोष
(3) केन्द्रीय स्तर पर केन्द्रीय भण्डार निगम’ तथा राज्य स्तर पर राज्य भण्डार निगम की स्थापना की गई।
(4) राष्ट्रीय सहकारी विकास एवं भण्डार मण्डल’ की स्थापना की गई।
(5) लगभग प्रत्येक राज्य में सहकारी बैंक स्थापित किए गए।
(6) केन्द्रीय सहकारी बैंकों की संख्या में वृद्धि की गई।
(7) सहकारी संस्थाओं में सरकारी सहभागिता प्रारम्भ की गई।
(8) गैर-साख क्षेत्रों में भी पर्याप्त प्रगति हुई–(i) विपणन समितियों की संख्या में वृद्धि हुई, (ii) गन्ना समितियों का पुनर्गठन किया गया, (iii) दुग्ध पूर्ति समितियों, सिंचाई समितियाँ, औद्योगिक समितियों आदि स्थापित की गई।
(9) सहकारिता का अध्ययन करने हेतु 1956 में कार्य समिति, 1957 में सहकारी विधान समिति तथा 1958 में डाम्ते समिति नियुक्त की गई।
मेहता कमेटी- सन् 1959 में श्री बैकुंठ लाल मेहता की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई जिसे कृषि साख का अध्ययन करके कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए सुझाव देना था। समिति ने 1960 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तथा निम्न सुझाव दिए-
(1) ‘एक गांव एक समिति के आधार पर प्राथमिक साख समितियों का गठन किया जाए जहाँ गाँव छोटे हों वहाँ कई गाँवों को मिलाकर एक समिति गठित की जाए। सहकारी समिति से सम्बद्ध गाँवों की जनसंख्या 3,000 से अधिक न हो।
(2) ऐसे सभी किसानों को समिति का सदस्य बनाया जाए जो कृषि उत्पादन में वृद्धि करने में अपना योगदान दे सकते हैं। वे किसान चाहे सीमान्त हो, उप-सीमान्त हो या भूमिहीन
(3) किसानों को ऋण उनकी उत्पादन क्षमता तथा भुगतान क्षमता के आधार पर दिए जाएँ।
(4) सहकारी समितियों को अल्पकालीन ऋण के अतिरिक्त मध्यकालीन ऋण देने की व्यवस्था करनी चाहिए।
(5) सहकारी समितियों की ऋण देने की क्षमता बढ़ाई जाए। इसके लिए दो उपाय अपेक्षित हैं-(1) समितियों को केन्द्रीय बैंक द्वारा उदार शर्तों पर ऋण प्रदान किया जाएँ। (ii) समितियाँ अपने कोषों में वृद्धि करें।
तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-1966) में सहकारिता- खाद्यान्न तथा कच्चे माल के उत्पादन में आत्म निर्भरता प्राप्त करने के उद्देश्य से तृतीय योजना में सहकारी क्षेत्र के विकास तथा विस्तार पर विशेष बल दिया गया। सहकारिता के विकास हेतु तृतीय योजना में कई अध्ययन दलों तथा समितियों का गठन किया गया—(1) 1960 में एस०डी० मिश्रा की अध्यक्षता में सहकारी शिक्षा पर अध्ययन दल (ii) आर०जी० सरैया की अध्यक्षता में सहकारी प्रक्रिया समिति (III) श्री एम० पी० भार्गव की अध्यक्षता में 1961 में पिछड़े वर्ग के लिए सहकारिता पर विशेष समिति (iv) 1964 में आर० एन० मिर्धा की अध्यक्षता में समिति (v) 1964 में एम० एल० दत्तवाला की अध्यक्षता में सहकारी विपणन पर समिति।
उक्त विभिन्न समितियों में 1964 की मिर्धा समिति तथा दत्तवाला के सुझाव उल्लेखनीय है जिन्हें नीचे प्रस्तुत किया गया है।
मिर्धा समिति, 1964- इस समिति द्वारा दिए गए प्रमुख सुझाव निम्नलिखित हैं- (1) किसी भी महाजन को सहकारी समितियों का सदस्य न बनाया जाए।
(2) विपणन समितियों में कृषि व्यापारियों को सदस्य न बनाया जाए।
(3) जीयोगिक समितियों में केवल श्रमिकों तथा कारीगरों को ही सदस्य बनाया जाए।
(4) परिवहन समितियों में श्रमिकों तथा मैकेनिकों को ही सदस्य बनाया जाए।
(5) गृह-निर्माण समितियों में एक निश्चित आय वाले व्यक्तियों को ही सदस्यता प्रदान की जाए।
(6) एक राष्ट्रीय सहकारी बैंक स्थापित किया जाए।
(7) सहकारी संस्थाओं में दुश्चरित्र तथा अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्तियों को सदस्य न बनाया जाए।
(8) सहकारी समितियों के लेखों के अंकेक्षण (auditing) के लिए एक पृथक् सहकारी संस्था बनाई जाए।
(9) सहकारी शिक्षा का प्रसार किया जाए।
दत्तवाला समिति, 1964- सहकारी क्षेत्र के विकास के लिए इसने निम्न सुझाव दिए-
(1) सभी प्राथमिक साख समितियों को विपणन समितियों के साथ सम्बद्ध कर दिया जाए।
(2) सहकारी विपणन संस्थाओं का पुनर्गठन किया जाए तथा राज्य स्तर पर राज्य विपणन समिति, जिला स्तर पर जिला विपणन समिति तथा ग्राम स्तर पर प्राथमिक विपणन समितियों का गठन किया जाए।
(3) प्राथमिक विपणन समितियों मण्डी स्तर पर गठित की जाए।
(4) स्टेट बैंक द्वारा विपणन समितियों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाए।
(5) सहकारी संस्थाओं की कुशलता में वृद्धि हेतु इन संस्थाओं के संचालन मण्डल में सरकारी प्रतिनिधित्व न्यूनतम होना चाहिए।
(6) समिति के प्रबन्ध में योग्य तथा अनुभवी कर्मचारियों को लिया जाए।
तृतीय योजना में सहकारी आन्दोलन की प्रगति- 30 जून, 1966 को देश में कुल 3,46,185 सहकारी समितियाँ थी जिनमें 2,14,012 साख समितियाँ तथा 132,173 गैर-साख समितियों थीं। सभी प्रकार की समितियों की सदस्यता 5 करोड़ थी जिसमें 3.5 करोड़ सदस्य संख्या साख समितियों की तथा 1-5 करोड़ सदस्य संख्या गैर-साख समितियों की थी। सभी प्रकार की समितियों की कार्यशील पूंजी 2,800 करोड़ ₹ थी।
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1969-74) में सहकारिता- चौथी योजना में सहकारी क्षेत्र के विकास के लिए 178-57 करोड़ ₹ की व्यवस्था की गई तथा निम्न लक्ष्य निर्धारित किए गए-
(1) सहकारी साख- योजना के अन्त तक सहकारी संस्थाओं द्वारा 750 करोड़ ₹ के अल्पकालीन तथा मध्यकालीन ऋण वितरित करने का लक्ष्य रखा गया। यह आशा की गई कि 6096 कृषक परिवारों को समितियों का सदस्य बना लिया जायेगा। भूमि विकास बैंकों से योजना के अन्त तक 700 करोड़ ₹ के दीर्घकालीन ऋण देने की आशा की गई।
(2) सहकारी विपणन– विपणन समितियों द्वारा 900 करोड़ ₹ मूल्य के कृषि उपज के विपणन का लक्ष्य रखा गया।
(3) उपभोग सहकारिता- यह आशा की गई कि योजना के अन्तिम वर्ष में शहरी उपभोक्ता भण्डार लगभग 1,400 करोड़ ₹ की फुटकर बिक्री करेंगे।
योजनावधि में सहकारिताओं की वास्तविक प्रगति- सन् 1972-73 में सभी प्रकार की समितियों की संख्या 3.3 लाख, सदस्यता 6-78 करोड़, हिस्सा पूंजी 1.051 करोड़ ₹ तथा कार्यशील पूँजी 8.585 करोड़ ₹ थी।
पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-78) में सहकारिता- पाँचवीं योजना में किसानों, कारीगरों, श्रमिकों तथा उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सहकारी संस्थाओं को लोकतन्त्रीय आधार पर सुदृढ़ करने का उद्देश्य रखा गया। सामाजिक न्याय द्वारा विकास के लक्ष्य की पूर्ति के लिए सहकारी आन्दोलन को एक महत्त्वपूर्ण यन्त्र माना गया। छोटे व सीमान्त किसानों तथा अन्य पिछड़े वर्गों की आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान देने का निश्चय किया गया।
(i) सहकारी साख के क्षेत्र में योजना के अन्त तक इन लक्ष्यों को पूरा करना था-अल्पकालीन ऋण 1,200 करोड़ ₹, मध्यकालीन ऋण 350 करोड़ ₹, दीर्घकालीन ऋण 1,200 करोड़ ₹।
(ii) उपभोग सहकारिता के क्षेत्र में यह आशा की गई कि उपभोक्ता सहकारिताएं योजना के अन्त तक 700 करोड़ ₹ का व्यवसाय शहरी क्षेत्र में तथा 500 करोड़ ₹ का व्यवसाय ग्रामीण क्षेत्र में करने लगेंगी।
(iii) सहकारी विपणन समितियों से यह आशा की गई है कि ये योजना के अन्त तक 1,600 करोड़ ₹ की कृषि उपज का विपणन करने लगेंगी।
पाँचव योजना में सहकारी क्षेत्र की प्रगति- इस योजनावधि में विभिन्न सहकारी क्रियाओं सम्बन्धी प्रगति निम्न प्रकार-
(1) सहकारी साख- 30 जून, 1978 को 1-16 लाख प्राथमिक कृषि साख समितियों थीं जिनमें से 96-396 ग्रामीण रही क्षेत्रों में कार्य कर रही थीं।
(2) सहकारी विपणन- 30 जून, 1978 को देश में 3,592 प्राथमिक सहकारी विपणन समितियाँ कार्यस्त थीं। इनके अतिरिक्त, 369 जिला क्षेत्रीय विपणन समितियाँ, 208 गया यूनियन, 27 राज्य स्तरीय सहकारी विपणन संघ तथा एक राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ भी था विपणन संस्थाओं द्वारा 1978-79 में 1,797 करोड़ ₹ से अधिक मूल्य के कृषि उत्पादनों का व्यापार किया गया।
(3) औद्योगिक सहकारिता – 30 जून, 1978 को 39,241 औद्योगिक सहकारी समितियों थीं जिनके 26-07 लाख सदस्य थे। 1977-78 में इन समितियों का उत्पादन तथा बिक्री क्रमशः 262-47 और 189-42 करोड़ ₹ रहीं।
(4) सहकारी आवास- 30 जून, 1978 को देश में 28,593 प्राथमिक आवास सहकारी समितियों थीं जिनकी सदस्य संख्या 16-42 लाख थी। इन समितियों ने 5-08 लाख आवासों का निर्माण किया।
छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85)- पाँचवी योजना को समय से एक वर्ष पूर्व 31 मार्च, 1978 को समाप्त कर दिया गया। उसके बाद छठी योजना को तुरन्त भली-भाँति लागू नहीं किया जा सका। संशोधित छठी योजना को 1 अप्रैल, 1980 को लागू किया गया जिसमें सहकारी क्षेत्र के विकास हेतु 475 करोड़ ₹ का प्रावधान था।
छठी योजना में छोटे तथा गरीब किसानों एवं ग्रामीण जनता को लाभ पहुंचाने के लिए निम्न कार्यक्रम अपनाए गए-
(1) प्राथमिक कृषि साख समितियों का पुनर्गठन करके इन्हें बहुउद्देशीय समितियों में परिणत किया गया ताकि किसानों, कारीगरों आदि को एक ही स्थान पर अधिकाधिक सेवाएँ उपलब्ध हो सकें।
(2) ऋण नीति को सरल तथा उदार बनाया गया, ताकि सहकारी संस्थाएँ अपने निर्धारित लक्ष्यों के अनुसार ऋणों का वितरण कर सकें। छठी योजना में सहकारी साख का लक्ष्य इस प्रकार था- अल्पकालीन ऋण 2.500 करोड़ ₹, मध्यकालीन ऋण 240 करोड़ ₹ तथा दीर्घकालीन ऋण 555 करोड़ र।
(3) प्रत्येक पुनर्गठित समिति को एक-एक गोदाम देने का लक्ष्य रखा गया।
(4) 50 हजार जनसंख्या वाले कस्बे नगर में कम से कम एक सहकारी विभागीय भण्डार को स्थापना का लक्ष्य था।
योजनाकाल में प्रगति- 30 जून, 1985 को सभी प्रकार की प्राथमिक सहकारी समितियों की स्थिति इस प्रकार थी समितियों की संख्या 3-15 लाख सदस्यता 1410 लाख में हिस्सा पूजी 3,535 करोड़ ₹, कार्यशील पूंजी 37.769 करोड़ है।
सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90)- सातवीं पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 1985 को प्रारम्भ की गई। इस योजनावधि में सहकारी आन्दोलन के विकास के लिए निम्न लक्ष्य निर्धारित किये गए-
(1) बहुउद्देशीय सक्षम इकाइयों के रूप में कार्य करने हेतु प्राथमिक कृषि साख समितियों का व्यापक विकास,
(ii) कमजोर वर्गों को अधिक साख, उत्पादन-साधन तथा सेवाएँ प्रदान करने हेतु सहकारी संस्थाओं सम्बन्धी नीतियों का पुनर्गठन करना तथा इन संस्थाओं की कार्यविधियों में सुधार करना,
(iii) कम विकसित राज्यों में विशेष सहकारी कार्यक्रमों को लागू करना,
(iv) सार्वजनिक वितरण प्रणाली में प्रभावी भूमिका अदा करने हेतु उपभोक्ता आन्दोलन को सुदृढ़ करना,
(v) व्यावसायिक प्रबन्ध का विकास करना तथा प्रशिक्षण सुविधाओं को सुदृढ़ करना।
सातवीं योजनावधि में सहकारी विकास सम्बन्धी कुछ निर्धारित लक्ष्य इस प्रकार थे अल्पकालीन ऋण 5,540 करोड़ रु. मध्यकालीन ऋण 500 करोड़ ₹, दीर्घकालीन ऋण 1.030 करोड़ ₹ तथा सहकारिताओं द्वारा कृषि उपज का विपणन 5,000 करोड़ ₹।
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