अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री के विकास एवं निर्माण की विवेचना कीजिए। अथवा अभिक्रम के विकास की तैयारी, लेखन, परीक्षण एवं मूल्यांकन की अवस्थाओं की विस्तृत विवेचना कीजिए।
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अभिक्रम का विकास एवं निर्माण (Development and Formation of Programme)
कार्यक्रम बनाने वाले में कार्यक्रम लिखने के कौशल होने चाहिए और उसे व्यावहारिक होना चाहिए। विषय की संरचना का अपेक्षित व्यवहार के साथ सम्बन्ध अवश्य होना चाहिए। यह एक अति गतिशील, चुनौतीपूर्ण और अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया है। कार्यक्रम निर्माण की निम्न मुख्य अवस्थाएँ होती हैं-
(1) प्रकरण या शीर्षक का चयन
प्रोग्राम बनाने के लिए जिस भी प्रकरण या शीर्षक का चयन किया जाये, उसके चयन के समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए-
- प्रस्तावना प्रकरण या शीर्षक पर पहले से कोई प्रोग्राम उपलब्ध तो नहीं है ?
- क्या वह प्रकरण अन्य किसी विधि से प्रभावशाली रूप से नहीं पढ़ाया जा सकता है?
- क्या यह प्रकरण छात्रों के दृष्टिकोण से अधिक सरल, तार्किक तथा मनोवैज्ञानिक बनाकर प्रस्तुत किया जा सकता है ? जिससे यह अधिक रुचिकर, उपयोगी तथा उपयुक्त लगे।
- क्या यह छात्रों की पाठ्यक्रम सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करता है ?
- क्या प्रोग्राम बनाने वाले व्यक्ति को इस प्रकरण का पूर्ण ज्ञान है ?
- क्या प्रकरण में स्वतः तार्किक तारतम्य है, वह ज्यादा लम्बा तो नहीं है तथा उसमें निश्चित समय सीमा के अन्तर्गत प्रभावशाली शिक्षण की सम्भावनाएँ हैं ?
- क्या प्रकरण का स्वरूप समुचित व्यवस्था के योग्य है ?
(2) छात्रों के पूर्व ज्ञान, अनुभव आदि सम्बन्धी सूचनाएँ लिखना
प्रोग्राम बनाने के पूर्व, जिन छात्रों के लिए प्रोग्राम बनाया जा रहा है- उन छात्रों की आयु, लिंग, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक स्तर, रुचि, योग्यताओं, पृष्ठभूमि तथा पूर्वानुभव आदि से सम्बन्धित सूचनाएँ एकत्रित करनी चाहिए तथा तद्नुसार ही प्रोग्राम की आयोजना करनी चाहिए।
(3) उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखना
इसके अन्तर्गत उद्देश्यों का प्रतिपादन किया जाता है और उन्हें व्यावहारिक भाषा में लिखा जाता है। इसके लिए कार्य विवरण (Task Description) तथा कार्य विश्लेषण (Task Analysis) दोनों ही क्रियाएँ की जाती हैं। उद्देश्यों को लिखते समय कार्यपरक क्रियाओं (Action Verbs) का चयन तथा प्रयोग करना चाहिए। व्यावहारिक उद्देश्य वस्तुनिष्ठ मानदण्ड परीक्षाओं (Objective Centred Criterion Test) के निर्माण में सहायक होते हैं।
(4) विषय-वस्तु की रूपरेखा का निर्माण
छात्रों के पूर्व अनुभवों, पूर्वज्ञान तथा पूर्व व्यवहारों एवं निर्धारित उद्देश्यों के अनुरूप विषय वस्तु की रूपरेखा बनाई जाती है। इस रूपरेखा के निर्माण में यह आवश्यक है कि उसके अन्तर्गत वह सारी विषय-वस्तु आ जाये, जिसका प्रोग्राम बनाना है। विषय-वस्तु की रूपरेखा तार्किक अथवा मनोवैज्ञानिक आधारों पर बनानी चाहिए। विषय-वस्तु की रूपरेखा का निर्माण करते समय विषय विशेषज्ञों की भी सहायता ली जा सकती है।
(5) मानदण्ड परीक्षा का निर्माण
इसके अन्तर्गत छात्रों के अन्तिम व्यवहारों के मूल्यांकन के लिए मानदण्ड परीक्षा का निर्माण किया जाता है। इस परीक्षण में विशिष्ट उद्देश्यों के अनुरूप वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को पूछा जाता है। इसमें उन सभी व्यवहारों एवं कौशलों का मूल्यांकन किया जाता है कि छात्र अधिगम के उद्देश्यों तथा मानदण्डों तक पहुँचे या नहीं। यदि पहुँचे तो किस सीमा तक पहुँचे, यदि नहीं पहुँचे तो क्यों और कैसे उन तक पहुँच सकते हैं ?
ध्यान रहे कि प्रत्येक अनुदेशन उद्देश्य के लिए कम-से-कम 3 या 4 प्रश्न अवश्य परीक्षण में होने चाहिए। इन्हें करने के लिए उचित निर्देश एवं आदेश स्पष्ट रूप से दिये जाने चाहिए। यदि सम्भव हो तो इन मानदण्ड परीक्षाओं की विश्वसनीयता एवं वैधता का परीक्षण भी किया जाना चाहिए।
(6) रचना या अभिक्रम लेखन (Writing)
इस पद के अन्तर्गत वास्तविक प्रोग्राम या अभिक्रम को लिखा जाता है। लिखने से पूर्व अनेक प्रकार के निर्णय लिये जाते हैं, जैसे-
- प्रोग्राम किस विधि से लिखा जाये (लीनियर, ब्राचिंग या मैथेटिक्स आदि) ?.
- सीखने वाले के पूर्व व्यवहार / पूर्व अनुभव कैसे हैं ?
- अनुदेशन उद्देश्य कौन-कौन से निर्धारित किये गये हैं ?
- विषय वस्तु की प्रकृति क्या है ?
प्रोग्राम लिखते समय अभिक्रमित अध्ययन के मूलभूत सिद्धान्तों का सदैव ध्यान रखना चाहिए विशेष रूप से निम्नांकित तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए-
1. बोधगम्य फ्रेमों (Frames) की रचना- इस पद में विषय-वस्तु को फ्रेम (छोटे-छोटे वाक्यों के रूप) में लिखा जाता है। फ्रेम के तीन अंग होते हैं
(i) उद्दीपन- अनुक्रिया या अनुक्रिया उत्पन्न करने की परिस्थिति के रूप में वह अंग जो विषय-वस्तु छात्रों के सामने प्रस्तुत करता है ताकि छात्रों को अनुक्रिया करने की प्रेरणा मिल सके।
(ii) अनुक्रिया- पद को पढ़ने के पश्चात् छात्र किसी-न-किसी प्रकार की अनुक्रिया अवश्य करता है।
(iii) पुनर्बलन या प्रतिपुष्टि- छात्र अपनी अनुक्रिया का सही अनुक्रिया से मिलान करता है और पुनर्बलन या प्रतिपुष्टि प्राप्त करता है।
2. फ्रेमों के प्रकार- सामान्यतः प्रोग्राम में चार प्रकार के फ्रेम सम्मिलित रहते हैं-
(i) शिक्षण फ्रेम- इन फ्रेमों के माध्यम से छात्रों के समक्ष नवीन विषय-वस्तु प्रस्तुत की जाती है। ये फ्रेम किसी भी प्रोग्राम में लगभग 60% से 70% होते हैं।
(ii) अभ्यास फ्रेम- नई विषय-वस्तु/नया ज्ञान सिखाने के पश्चात् ज्ञान को स्थायी बनाने के लिए अभ्यास फ्रेमों का निर्माण किया जाता है। छात्र इनका प्रयोग करके सीखे गये ज्ञान का बारम्बार प्रयोग कर अभ्यास करते हैं। ऐसे फ्रेम 20% से 25% तक रखे जा सकते हैं।
(iii) परीक्षण फ्रेम- छात्रों द्वारा सीखे गये ज्ञान के परीक्षण हेतु परीक्षण फ्रेमों का निर्माण किया जाता है। इनका उद्देश्य सीखे हुए ज्ञान का मूल्यांकन करना होता है। ये 10% से 15% तक रखे जा सकते हैं।
3. छात्रों के उत्तरों को निर्देशित करने के लिए फ्रेमों में उपक्रमक का तथा अनुबोधकों का प्रयोग- प्रोग्राम इस प्रकार लिखा जाना चाहिए जिससे कि छात्र अधिक-से-अधिक सही अनुक्रिया करें। जब छात्र उचित अनुक्रिया करने में सफल नहीं होते तब उपक्रमक (Primes) तथा अनुबोधक (Prompts) का प्रयोग किया जाता है। उपक्रमक के अन्तर्गत सहायक शब्द तथा पूरक सूचनाओं का प्रयोग किया जाता है, जिससे छात्रों को सही अनुक्रिया के लिए संकेत मिलता है। इनका प्रयोग प्रस्तावना पदों में विशेष रूप से किया जाता है। अनुबोधक एक प्रकार के विशेषण संकेत होते हैं जो छात्रों की गलत अनुक्रियाओं को कम करके छात्रों को सही अनुक्रिया तक पहुँचने में सहायता देते हैं। इनका सम्बन्ध विषय-वस्तु के विवरण, उपयुक्तता तथा अनुक्रिया की प्रकृति से होता है।
प्रोग्राम में पहले अधिक अनुबोध दिये जाते हैं फिर क्रमशः इन्हें कम करते हुए प्रोग्राम के अन्त में पूर्णरूपेण इन्हें हटा दिया जाता है। इस प्रक्रिया को विलुप्तीकरण (Fading) कहा जाता है-
4. फ्रेमों को उचित क्रम प्रदान करना- फ्रेम तैयार करने के पश्चात् उन्हें सुनिश्चित तारतम्य में व्यवस्थित किया जाता है। इन्हें व्यवस्थित करते समय ‘मनोवैज्ञानिक से तार्किक क्रम की ओर’ शिक्षण सूत्र का उपयोग करना चाहिए। फ्रेमों को उचित क्रम प्रदान करने के लिए तीन प्रमुख विधियाँ हैं।
(7) प्रारम्भिक ड्राफ्ट को लिखना
उपर्युक्त प्रकार से पद व फ्रेम बनाने के पश्चात् पूरा प्रोग्राम लिखना चाहिए।
सम्पादन करना- तैयार प्रोग्राम के मूल ड्राफ्ट का सतर्कतापूर्वक सम्पादन करना चाहिए। सम्पादन के समय तीन प्रमुख बातें ध्याने देने योग्य हैं-
1. यह देखा जाना चाहिए कि विषय-वस्तु में किसी प्रकार की तकनीकी त्रुटि तो नहीं है। इस स्तर पर विषय विशेषज्ञों की मदद ली जा सकती है।
2. प्रोग्राम विशेषज्ञों की सहायता से यह देखा जाता है कि मूल ड्राफ्ट में प्रोग्राम अनुदेशन की तकनीकियों, पद रचनाओं, फ्रेमों को उचित क्रम देने में अथवा मूल ड्राफ्ट की शैली-भाषा में कोई त्रुटि तो नहीं है।
3. भाषा विशेषज्ञों की सहायता से तैयार मूल ड्राफ्ट में व्याकरण की अशुद्धियाँ, स्पेलिंग की त्रुटियाँ तथा अनुपयुक्त एवं अस्पष्ट भाषा आदि का पता लगाकर उन्हें ठीक किया जाता है। अनुदेशन निर्देशों की अस्पष्टता भाषा की निश्चितता, दिये गये उदाहरणों की अनुपयुक्तता आदि कमियों को भी ठीक किया जाता है और मूल ड्राफ्ट में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किये जाते हैं।
(8) परीक्षण (Try-Out)
प्रोग्राम का यह अन्तिम कार्य होता है, जिसके अन्तर्गत तैयार संशोधित प्रोग्राम ड्राफ्ट का परीक्षण एवं मूल्यांकन किया जाता है। इसमें निम्नलिखित क्रियाएँ सम्पादित की जाती हैं-
1. व्यक्तिगत परीक्षण- इसमें प्रोग्राम को 4-5 छात्रों पर प्रशासित किया जाता है और यह पता लगाया जाता है कि तैयार प्रोग्राम ड्राफ्ट में पद, आकार, भाषा, प्रत्यय, उपक्रमक तथा अनुबोधक आदि से सम्बन्धित क्या-क्या कमियाँ हैं। इसके अतिरिक्त छात्रों की प्रतिक्रियाएँ भी नोट की जाती हैं और आवश्यकतानुसार परिवर्तन तथा परिमार्जन प्रोग्राम में किया जाता है।
2. लघु समूह परीक्षण- परिवर्तित तथा परिमार्जित प्रोग्राम पुनः 10-20 छात्रों के समूह पर प्रशासित किया जाता है। छात्रों से इस ड्राफ्ट में जरूरी परिवर्तनों तथा सुधार हेतु सुझाव माँगे जाते हैं। इनकी प्रतिक्रियाएँ एवं लिये गये समय को भी नोट किया जाता है और इन सभी आधारों पर प्रोग्राम में पुनः संशोधन तथा परिमार्जन किया जाता है
3. क्षेत्र परीक्षण- प्रोग्राम को अन्तिम रूप देने के लिए प्रोग्राम को एक प्रतिनिधि न्यादर्श (Sample) पर पुनः प्रशासित किया जाता है और छात्रों की बड़े पैमाने पर की गई प्रतिक्रियाओं तथा दिये सुझावों के आधार पर ड्राफ्ट में पुनः संशोधन किया जाता है। इस परीक्षण के आधार पर प्रोग्राम की उपयुक्तता तथा वैधता स्थापित की जाती है।
(9) मूल्यांकन तथा वैधीकरण (Evaluation and Validation)-
क्षेत्र परीक्षण में प्राप्त आँकड़ों के आधार पर निम्नलिखित तत्त्वों का मूल्यांकन तथा वैधीकरण किया जाता है-
1. प्रोग्राम की त्रुटि दर (Error Rate)- यह ज्ञात करने के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है-
Programme Error Rate (In Percentages) = Total No. of Errors (त्रुटियों का सम्पूर्ण योग) x 100 / Total No. Responses x No. of Students
(पदों की संख्या X छात्रों की संख्या)
रेखीय प्रोग्राम में त्रुटि दर 5%-10% तथा शाखात्मक प्रोग्रामों में 20% तक हो सकती है।
2. अभिक्रम घनत्व (Programme Density)- इससे प्रोग्राम के कठिनाई स्तर का पता लगाया जाता है। यह ज्ञात करने के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है-
TTR (Type Token Ration) = (विभिन्न प्रकार की अनुक्रियाओं की संख्या) Total No. of Different Types of Responses in a Programme / (कुल अनुक्रियाओं की संख्या) Total No. of Responses Required in a Programme
TTR का मूल्य 0.25 से 0.33 के मध्य रहना चाहिए।
3. तारतम्य (Sequence Progression)- तारतम्य प्रवाह स्केलोग्राम (Scalogram)
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