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एकधन्धी तथा बहुधन्धी सहकारी समितियाँ (Single-purpose and Multi-purpose Co-operative Societies)
“बहुउद्देशीय शब्द का आशय उन विभिन्न कार्यों से लेना चाहिए जिनमें समिति के सभी सदस्य संधि से सकते हैं। लेकिन सुविधा के लिए एक गाँव में बहुउद्देशीय समिति को केवल कुछ कार्य करने तक ही अपने को सीमित रखना चाहिए तथा सभी प्रकार के कार्यों जैसे ग्राम उद्योग, महली पाटन, शिक्षा आदि) में अपने को नहीं फंसाना चाहिए।
-काटजू
एकबन्धी सहकारी समिति (Single-purpose Co-operative Society) अर्थ (Meaning)–जो सहकारी संस्था अपने सदस्यों के केवल किसी एक उद्देश्य की पूर्ति करती है वह ‘एकघन्धी या एकउद्देशीय सहकारी समिति‘ कहलाती है। कुछ समय पूर्व तक भारत में सहकारी साख समितियाँ एकधन्धी समितियाँ होती थीं।
लाभ (Advantages)- ऐसी समिति के प्रमुख लाभ निम्नांकित है-
(1) क्षेत्र तथा स्वभाव का स्पष्ट होना- एकउद्देशीय समितियों का क्षेत्र तथा प्रकृति एकदम स्पष्ट तथा सरल होती है, क्योंकि उन्हें केवल एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए गठित किया जाता है। इसके विपरीत, बहुउद्देशीय समिति का क्षेत्र तथा प्रकृति जटिल होती है जिस कारण सदस्य ऐसी समिति के कार्य को आसानी से समझ नहीं पाते।
(2) खाले तैयार करने में आसानी- चूँकि एकपन्ची समिति केवल एक ही प्रकार का व्यवसाय करती है इसलिए इसके खातों (accounts) को तैयार करना आसान होता है।
(3) संचालन में सुविधा- एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए गठित किए जाने के परिणामस्वरूप समिति अपने व्यवसाय का संचालन सफलतापूर्वक कर सकती है।
(4) सदस्यों के जोखिम में कमी- असीमित दायित्व की अवस्था में समिति का एकउद्देशीय होना लाभकारी रहता है क्योंकि अनेक उद्देश्यों हेतु गठित किए जाने पर व्यवसाय का जोखिम बढ़ जाता है तथा हानि होने की सम्भावना भी बढ़ जाती है।
हानियाँ (Disadvantages)- विद्वानों ने एफउद्देशीय समिति की निम्न हानियाँ बताई है-
(1) भारत के लिए उपयुक्त नहीं- भारत की वर्तमान दशाओं में एक उद्देश्य एक समिति’ (one purpose one society) के विचार को अपनाना उचित नहीं है। भारतीय कृपक अपनी अज्ञानता तथा अशिक्षा के कारण एक समय में एक साथ अनेक समितियों का सदस्य बनकर सुचारू रूप से काम नहीं कर सकता। उसके लिए तो बहुधन्धी समिति ही उपयुक्त रहेगी।
(2) कम वित्तीय क्षमता– एकउद्देशीय समिति की अपेक्षा बहुउद्देशीय समिति की ऋण प्राप्त करने तथा कोषों (funds) का निर्माण करने की क्षमता कहीं अधिक होती है।
(3) हानि होने पर व्यवसाय का ठप्प होना- एक धन्धी समिति का एक ही व्यवसाय होता है, जिस कारण हानि होने पर समिति के बन्द होने का भय रहता है।
(4) मितव्यविता की कमी- बहुउद्देशीय समिति की तुलना में एकउद्देशीय समिति अपने संगठन तथा प्रबन्ध में मितव्ययिता नहीं ला पाती।
(5) कुशल कर्मचारियों को नियुक्त न कर पाना- वित्तीय साधनों की कमी के कारण एकउद्देशीय समिति कुशल तथा प्रशिक्षित कर्मचारियों की सेवाएँ उपलब्ध नहीं कर पाती।
(6) सर्वांगीण विकास का अभाव- एकउद्देशीय सहकारी समिति अपने सदस्यों के आर्थिक जीवन के केवल एक पहलू पर ही ध्यान देती है जिस कारण वह अपने सदस्यों का सर्वांगीण विकास नहीं कर पाती।
(7) भारी परिवर्तन लाने में सक्षम नहीं- चूँकि एकउद्देशीय समिति का क्षेत्र अत्यन्त सीमित होता है, इसलिए वह ग्रामीण जीवन में किसी प्रकार का क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने की क्षमता नहीं रखती।
बहुधन्धी सहकारी समिति (Multi-purpose Co-operative Society)
अर्थ (Meaning)—बहुधन्धी या बहुउद्देशीय सहकारी समिति वह है जो अपने सदस्यों के एक साथ कई उद्देश्यों या आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। होरेस प्लैंकेट (Horace Plunkett) ने समिति के बहुउद्देशीय कार्यों को इन शब्दों में स्पष्ट किया है, उत्तम कृषि, उत्तम व्यवसाय तथा उत्तम निर्वाह (Better Farming, Better Business and Better Living) (i) उत्तम कृषि (Better Farming)-इसके अन्तर्गत खाद, बीज, यन्त्र, औजार आदि की व्यवस्था आती है। (ii) उत्तम व्यवसाय (Better Business)– इसमें विपणन, सामूहिक खरीद, वित्त, बचत आदि सम्बन्धी कार्यों को शामिल किया जाता है। (iii) उत्तम निर्वाह (Better Living)—इसमें आवास, स्वास्थ्य, चिकित्सा शिक्षा आदि को शामिल किया जाता है।
वास्तविक जीवन में बहुधन्धी समितियाँ उक्त सभी उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर पाती बल्कि इनमें से वे कुछ ही आवश्यकताओं (उद्देश्यों को पूरा कर पाती हैं। प्रायः ये समितियाँ साख तथा विपणन का कार्य करती हैं। दूसरे शब्दों में, इन समितियों के दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं—–(i) किसानों को उचित ब्याज दर पर ऋण प्रदान करना, तथा (ii) उनके उत्पादित माल को उचित कीमत पर बेचने की व्यवस्था करना। डा० काटजू का विचार है कि एक गाँव में बहुउद्देशीय समिति को केवल कुछ कार्य करने तक ही अपने को सीमित रखना चाहिए तथा अपने को सभी प्रकार के कार्यों में नहीं फंसाना चाहिए।
लाभ (Advantages) बहुचन्ची समिति के निम्न लाम बताए गए हैं-
(1) भारत के लिए उपयुक्त- देश की वर्तमान परिस्थितियों में एक उद्देश्य एक समिति के विचार को व्यवहार में अपनाना अत्यन्त कठिन हैं, क्योंकि भारतीय किसान अज्ञानी तथा अशिक्षित हैं जिस कारण ये एक साथ अनेक समितियों का सदस्य बनकर अपना कार्य सुचारू रूप से नहीं कर सकते। अतः देश में बहुउद्देशीय समितियों की स्थापना की जानी चाहिए।
(2) सुदृढ़ वित्तीय स्थिति- एकथन्धी समिति की अपेक्षा बहुचन्धी समिति की वित्तीय स्थिति कहीं अधिक सुदृढ़ होती है, क्योंकि इन समितियों का दायित्व सीमित होता है जिस कारण धनी व्यक्ति भी इसकी सदस्यता ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाते हैं।
(3) मितव्ययिता- ये समितियाँ संगठन तथा प्रबन्ध में मितव्ययिता ला सकती हैं।
(4) हानि की कम सम्भावना- बहुधन्धी समितियाँ हानि तथा लाभ में सन्तुलन बनाए रखने में अधिक सफल हो सकती हैं, क्योंकि एक कार्य में हुई हानि को दूसरे कार्य में हुए लाभ से पूरा किया जा सकता है।
(5) साख तवा विपणन में समन्वय- बहुधन्धी समितियों साख तथा विपणन में समन्वय स्थापित करती हैं। इससे किसानों को कम ब्याज पर ऋण तथा साथ ही अपनी उपज का उचित मूल्य प्राप्त हो जाता है।
(6) चहुंमुखी विकास- बहुधन्धी समितियों ग्रामीण समाज के चहुंमुखी विकास का आधार बन सकती है तथा गाँव के आर्थिक व सामाजिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकती हैं।
(7) कुशल तथा प्रशिक्षित कर्मचारी- वित्तीय स्थिति अच्छी होने के कारण बहुधन्धी समितियाँ कुशल तथा प्रशिक्षित कर्मचारियों को नियुक्त कर सकती हैं।
(8) श्रेष्ठ जीवनयापन- ऐसी समितियाँ श्रेष्ठ जीवनयापन को प्रोत्साहित करती हैं।
हानियाँ (Disadvantages)-बहुघन्धी समितियों के निम्न दोष भी बताए गए हैं-
(1) वास्तविक स्थिति का ज्ञान न हो पाना- बहुधन्धी समितियों अपनी विभिन्न क्रियाओं के खातों को आपस में मिलाकर किसी एक क्रिया की वास्तविक स्थिति को छुपा सकती हैं। इससे सदस्यों के निर्णय पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
(2) सहकारी भावना के विरुद्ध- हो सकता है कि भिन्न-भिन्न सदस्य पृथक्-पृथक् क्रियाओं में ही रुचि लेने लगे। ऐसा करना सहकारी भावना के विरुद्ध होगा।
(3) उपयोगी क्रियाओं का बन्द होना- यह सम्भव है कि कुछ क्रियाओं में असफल जाने के कारण समिति अपनी उपयोगी क्रियाओं को भी बन्द कर दे।
देखा जाए तो उक्त दोषों को बहुधन्धी समितियों के कुशल प्रबन्ध द्वारा दूर किया जा सकता है।
भारत में बहुबन्धी समितियाँ (Multi-purpose Societies in India)
भारत में समय-समय पर विभिन्न जाँच समितियों, सहकारी सम्मेलनों तथा सहकारी आन्दोलनों के विशेषज्ञों ने बहुबन्धी समितियों की स्थापना पर बल दिया है। सर्वप्रथम सन् 1937 में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के कृषि साख विभाग ने बहुवन्धी समितियों की स्थापना का सुझाव दिया था। इसके बाद सन् 1946 में सहकारी नियोजन समिति (Co-operative Planning Committee) ने प्राथमिक कृषि साख समितियों को बहुघन्धी समितियों में पुनर्गठित करने की सिफारिश की थी। तत्पश्चात् 1947 में रजिस्ट्रारों के 15वें सम्मेलन में 1950-51 में योजना आयोग (Planning Commission) ने तथा 1956 में ग्रामीण बैंकिंग जाँच समिति ने देश में प्राथमिक कृषि साख समितियों को बहुचन्ची समितियों में परिवर्तित करने का सुझाव दिया।
वस्तुतः हमारे देश में सन् 1939 के बाद से ही बहुचन्धी समितियों को विशेष प्रोत्साहन मिला है। द्वितीय महायुद्ध के समय प्रान्तीय सरकारों ने विभिन्न वस्तुओं के विपणन का कार्य सहकारी साख समितियों को सौंपकर उन्हें बहुधन्धी समितियों में परिवर्तित कर दिया था। सन् 1946-47 में समस्त देश में लगभग 9,550 बहुघन्धी समितियाँ थीं जिनकी सदस्य संख्या लगभग 43 लाख और कार्यशील पूंजी 56-09 करोड़ ₹ थी। 1956-58 तक देश में बहुधन्धी समितियों की संख्या बढ़कर लगभग 75 हजार हो गई। जनवरी 1959 में नागपुर में कांग्रेस का अखिल भारतीय अधिवेशन हुआ जिसमें बहुधन्धी समितियों को सेवा सहकारिताओं (service co-operatives) का नाम दिया गया और इन समितियों की स्थापना का जोरदार समर्थन किया गया। सेवा सहकारिताओं की स्थापना को प्रोत्साहित करने के लिए लगभग सभी राज्य सरकारों ने सहकारी नियमों में संशोधन किए है तथा कर्मचारियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की है।
प्रगति का मूल्यांकन- यह स्वीकार करना पड़ेगा कि भारत में बहुचन्धी समितियाँ कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर पाई हैं। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की रिपोर्ट के अनुसार, बहुघन्धी विचारधारा के अनुसार किसी राज्य में अच्छा कार्य नहीं हुआ है। इनमें से अधिकांश समितियों तो केवल ऋण देने का ही कार्य कर रही है तथा गैर-साथ कार्य केवल वस्तुओं के वितरण तक ही सीमित है। पूंजी का अभाव, प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी, कुप्रबन्ध तथा सदस्यों द्वारा समिति के कार्यों में विशेष रुचि न लेना आदि ऐसे अनेक कारण हैं, जो इन समितियों द्वारा गैर-साख सम्बन्धी कार्य किए जाने में बाधक हैं। “
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