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सहकारी साख (Co-operative Credit)
“साख कृषि को उसी प्रकार सहायता पहुंचाती है जिस प्रकार फाँसी पर लटकते हुए व्यक्ति को जल्लाद की रस्सी।”
-ग्रामीण साख सर्वेक्षण
ग्रामीण साख का महत्त्व (Importance of Rural Credit)
प्रो० किंडलबर्गर (Kindelberger) ने कृषि साख के महत्त्व को इस प्रकार स्पष्ट किया है, “बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए अधिक उत्पादन की आवश्यकता पड़ती है। अधिक उत्पादन के लिए अधिक पूंजी (साख) की आवश्यकता का होना स्वाभाविक है क्योंकि भूमि-क्षेत्र को बढ़ाना सम्भव नहीं है।” अतः भारतीय कृषि के समुचित विकास के लिए पर्याप्त पूंजी का उपलब्ध होना अनिवार्य है। दुर्भाग्यवश भारत के अधिकांश किसानों के पास पर्याप्त पूंजी नहीं होती तथा आवश्यकता पड़ने पर उन्हें पूंजी की प्राप्ति के लिए अवांछित व्यक्तियों तथा विभिन्न संस्थाओं पर निर्भर रहना पड़ता है।
सामान्यतः कृषक तीन प्रकार के ऋण लेता है-(1) अल्पकालीन ऐसा ऋण बीज तथा खाद या अन्य आकस्मिक आवश्यकता के लिए लिया जाता है जिसकी अवधि प्रायः एक वर्ष होती है। ऐसे ऋण का भुगतान प्रायः कृषक फसल बेचने के बाद ही कर देता है क्योंकि ऐसे ऋण की मात्रा थोड़ी होती है। (2) मध्यकालीन ऐसे ऋण के लेने का उद्देश्य पशु अथवा कृषि यन्त्र खरीदना, सिंचाई की व्यवस्था करना तथा कृषि भूमि पर छोटे-छोटे सुधार करना आदि होता है। ऐसे ऋण की राशि और अवधि अल्पकालीन ॠण की अपेक्षा अधिक होती है। ऐसे ऋण सामान्यतः 5 वर्ष की अवधि के होते हैं। (3) दीर्घकालीन ऐसे ऋण मुख्यतः कृषि भूमि पर स्थाई सुधार, पैतृक ऋण का भुगतान, भूमि खरीदने व बड़े-बड़े कृषि यन्त्र खरीदने आदि के लिए दिए जाते हैं। इनकी अवधि प्रायः 20 से 25 वर्ष तक होती है।
उत्पादक कार्यों के अतिरिक्त किसान अनुत्पादक कार्यों के लिए भी ऋण लेते हैं, जैसे (1) उपभोग के लिए, (15) विवाह, मुण्डन, मृत्यु-भोज आदि के लिए, (iii) बच्चों की शिक्षा व चिकित्सा के लिए, (iv) मुकदमेबाजी के लिए, इत्यादि ।
भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता के कारण
(1) पैतृक ऋण- अधिकांश भारतीय किसान कर्ज में ही जन्म लेते हैं और अपने पूर्वजों द्वारा छोड़े रहते हैं। इस प्रकार वे निरन्तर ऋण-भार में दबे रहते हैं।
(2) भूमि पर जनसंख्या का अत्यधिक भार- देश की लगभग 70% जनसंख्या अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर गए कर्जों को चुकाते है। गत वर्षों में जनसंख्या में निरन्तर तीव्र वृद्धि होने के कारण देश की सीमित कृषि भूमि छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित होतो रही है जिस कारण अनार्थिक जोतों (uneconomic holdings) में वृद्धि होती रही है जिनसे पर्याप्त आय प्राप्त नहीं हो पाती। परिणामस्वरूप ग्रामीण जनता को समय-समय पर ऋण लेने पड़ते हैं।
(3) कृषि की अनिश्चितता – भारतीय कृषि नितान्त अनिश्चित व्यवसाय है जिस कारण इसे ‘मानसून का जुआ’ कहा जाता है। किसान खेती के लिए ऋण लेता है और यदि सूखा पड़ जाने पर या बाढ़ आ जाने पर फसल नष्ट हो जाती है तो वह अपना ऋण नहीं चुका पाता जिससे उसके ऋण-भार में और वृद्धि हो जाती है।
(4) कृषि उपज का दोषपूर्ण विपणन- भारतीय किसान को अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता जिस कारण उसकी जाय का स्तर निम्न रहता है। परिणाम यह होता है कि वह अपने कर्जों को चुकाने में असमर्थ रहता है।
(5) मुकदमेबाजी— गाँवों में छोटी-छोटी सी बातों पर मारपीट तथा मुकदमेबाजी हो जाती है। मुकदमे अनेक वर्षों तक चलते हैं जिस कारण ग्रामीण जनता का पर्याप्त समय तथा धन बर्बाद होता है।
(6) महाजनों द्वारा शोषण- महाजन किसानों को कम धनराशि देकर अधिक धनराशि के रुक्के पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं और फिर वर्षों तक उनसे मनमाना व्याज वसूल करते रहते हैं। इससे किसान वर्षों तक ऋण में डूबा रहता है।
(7) ऋण-सुविधाओं का अभाव- ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी साख समितियों, वाणिज्यिक बैंकों आदि जैसी वित्तीय संस्थाओं का अभाव है जो किसानों को आवश्यकता पड़ने पर उचित ब्याज पर ऋण दे सकें। परिणामतः किसानों को विवश होकर महाजनों व साहूकारों से अधिक व्याज पर ऋण लेना पड़ता है।
(8) फिजूलखर्ची- ग्रामीण लोग ब्याह-शादी, ज्योनार, नामकरण पर दावत, मृत्यु पर जाति-भोज आदि विभिन्न सामाजिक व धार्मिक अवसरों पर अपनी सामर्थ्य से भी अधिक खर्च कर बैठते हैं। अपनी झूठी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए उन्हें इधर-उधर से ऋण लेना पड़ता है।
(9) ग्रामीणों की अस्वस्थता- ग्रामीण लोगों को सन्तुलित आहार नहीं मिल पाता। उनके भोजन में पौष्टिक तत्वों की कमी होती है जिस कारण वे रोगग्रस्त रहते हैं और खेतों में पूरी मेहनत से काम नहीं कर पाते। अतः ये पर्याप्त आय प्राप्त नहीं कर पाते।
(10) सहायक-धन्धों का अभाव- भारतीय किसान वर्ष में चार महीने खाली रहता है तथा इन दिनों वह कोई और कार्य करके अपनी आय को बढ़ा सकता है। किन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में, कुटीर तथा ग्राम उद्योगों की जवनति के कारण, सहायक धन्धों का अभाव पाया जाता है।
(11) भूमि-कर तथा सिंचाई कर अधिक होना- विभिन्न राज्यों में लगान वसूल करने की पद्धति कठोर है जिस कारण आय कम होने पर किसानों को लगान, सिंचाई कर आदि का भुगतान करने के लिए प्राण भी लेने पड़ जाते हैं।
(12) कीमत-स्तर में निरन्तर वृद्धि- गत वर्षों में वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों में तीव्र गति से वृद्धि हुई है किन्तु ग्रामीण जनता की आय में उस गति से वृद्धि नहीं हो पाई है। फलस्वरूप ग्रामीण लोगों को अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए भी ऋण लेने पड़ते हैं।
(13) कृषकों की निरक्षरता- अधिकांश भारतीय किसान अशिक्षित हैं जिस कारण वे महाजनों की चालों में फंस जाते हैं। फिर अशिक्षित होने के कारण किसानों को खेती की आधुनिक विधियों की जानकारी नहीं है, जिस कारण वे अपनी आय में यथेष्ट वृद्धि नहीं कर पाते।
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