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ग्रामीण सहकारी साख (Rural Co-operative Credit)
भारतीय किसानों को अल्पकालीन तथा मध्यकालीन साख तीन प्रकार की सहकारी संस्थाएँ प्रदान करती है- (1) प्राथमिक सहकारी साख समितियाँ, (ii) केन्द्रीय सहकारी बैंक तथा (III) राज्य सहकारी बैंक किसानों को दीर्घकालीन साख की पूर्ति करने वाली मुख्यतः दो प्रकार की सहकारी संस्थाएं है- (1) प्राथमिक भूमि विकास बैंक, तथा (II) केन्द्रीय भूमि विकास बैंक
(1) प्राथमिक सहकारी साख समितियाँ (Primary Co-operative Credit Societies)
प्राथमिक सहकारी समितियाँ ही किसानों को प्रत्यक्ष रूप से वित्तीय सहायता या ऋण प्रदान करती है 30 जून, 1984 को समितियों की संख्या तथा सदस्य संख्या क्रमशः 92, 496 तथा 6-67 करोड़ थी। 30 जून, 1984 को इन समितियों की हिस्सा पूंजी 720-75 करोड़ ₹ तथा कृषि के लिए दी गई ऋणराशि 2.158 करोड़ ₹ थी। वर्ष 2003 में इन समितियों की संख्या 90,000 थीं। इन्होंने वर्ष 2003 में 24.296 करोड़ ₹ के ऋण दिए हुए थे। (नोट- वर्ष 2003 के बाद के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं।)
प्राथमिक सहकारी साख समितियों के विस्तृत अध्ययन के लिए कृपया कृषि सहकारिता के स्वरूप’ नामक अध्याय पढ़िए
(II) केन्द्रीय सहकारी बैंक (Central Co-operative Bank)
इन्हें जिला सहकारी बैंक (District Co-operative Bank) भी कहते हैं। इनकी स्थापना सन् 1912 के सहकारी समिति अधिनियम के अन्तर्गत प्राथमिक सहकारी साख समितियों के वित्तीय सहायक के रूप में की गई है। केन्द्रीय सहकारी बैंकों की प्रमुख विशेषताएं निम्नांकित है-
(1) सदस्यता- इनकी सदस्यता केवल सम्बन्धित जिले या तहसील की प्राथमिक सहकारी समितियों के लिए खुली रहती है। वैसे कुछ परिस्थितियों में व्यक्ति भी इनके सदस्य हो सकते हैं।
(2) कार्यक्षेत्र- कहीं सम्पूर्ण जिले में तो कहीं एक तहसील में एक केन्द्रीय बैंक होता है। कार्यक्षेत्र सदस्यों की संख्या पर निर्भर करता है। वैसे सामान्यतः एक जिले में एक केन्द्रीय बैंक होता है।
(3) भेद ( प्रकार)- ये बैंक दो प्रकार के होते हैं- (अ) शुद्ध केन्द्रीय सहकारी बैंक- इनकी सदस्य केवल प्राथमिक सहकारी समितियाँ ही हो सकती हैं। इनका प्रबन्ध भी समितियों ही करती है। (ब) मिश्रित केन्द्रीय सहकारी बैंक- इन बैंकों के सदस्य समितियाँ और व्यक्ति दोनों हो सकते हैं। प्रभावशाली तथा समर्थ व्यक्तियों को ही इनका सदस्य बनाया जाता है। ये बैंक सहकारी समितियों के अलावा बाहरी व्यक्तियों को भी ऋण देते हैं। देश में अधिकांश राज्यों में इसी प्रकार के बैंकों की संख्या अधिक है।
(4) प्रबन्ध- इन बैंकों का प्रबन्ध एक संचालक मण्डल द्वारा किया जाता है जिसका निर्वाचन साधारण सभा करती है। समितियों तथा व्यक्तियों दोनों को ही संचालक मण्डल में प्रतिनिधित्व दिया जाता है, किन्तु समितियों के प्रतिनिधियों की संख्या अधिक रखी जाती है। कार्य को कुशलता एवं शीघ्रता से निपटाने के लिए संचालक मण्डल कुछ विशेष कार्य-समितियाँ नियुक्त कर देता है। अन्तिम सत्ता साधारण सभा के हाथ में होती है जिसकी वर्ष में एक बार बैठक होती है। संचालकों को वेतन नहीं दिया जाता।
(5) पूंजी- ये बैंक अपनी कार्यशील पूंजी मुख्यतः निम्न स्रोतों से प्राप्त करते हैं-
(1) अपने अंश बेचकर, (ii) सदस्यों तथा गैर-सदस्यों की जमाओं से, (iii) सुरक्षित कोष द्वारा, (iv) राज्य सहकारी बैंक से ऋण प्राप्त करके, आदि।
(6) दायित्व- केन्द्रीय सहकारी बैंक के सदस्यों का दायित्व सीमित होता है।
(7) बैंक के कार्य- केन्द्रीय सहकारी बैंकों के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं-(1) सदस्य-समितियों को व्याज की उचित एवं सस्ती दर पर ऋण देना, (ii) प्रारम्भिक समितियों के लिए सन्तुलन केन्द्र का कार्य करना, अर्थात कम साधन वाली समितियों को अधिक साधन वाली समितियों से धनराशि दिलाना, (iii) सदस्य-समितियों के निरीक्षण एवं पर्यवेक्षण का कार्य करना, जैसे विन चैक, हुण्डी, लाभांश आदि का भुगतान एकत्रित करना, ड्राफ्ट जारी करना, प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय करना तथा व्यक्ति सदस्यों को उनकी स्थायी जमा रसीदों, सरकारी प्रतिभूतियों, सोना-चाँदी, कृषि उपज आदि की जमानत पर ऋण देना।
(8) ऋण नीति— ये बैंक मुख्यतः सहकारी समितियों को 6 से 8 प्रतिशत तक ब्याज दर पर अल्पकालीन एवं मध्यकालीन ऋण देते हैं। बैंक ऋण-राशि नकद नहीं देते बल्कि अधिकतम साख-सीमा निश्चित कर देते हैं जिसमें से सहकारी समितियों आवश्यकतानुसार धनराशि लेती रहती हैं।
(9) लाभ-वितरण- वार्षिक लाभ का 25% भाग रक्षित कोप में जमा करके शेष 75% भाग को अंशधारियों में लाभांग के रूप में बाँट दिया जाता है।
(10) निरीक्षण तथा अकेक्षण- इन बैंकों के कार्यों की जाँच तथा हिसाब-किताब का अकक्षण (auditing) पंजीयक कार्यालय के निरीक्षकों तथा अकक्षकों द्वारा किया जाता है।
केन्द्रीय सहकारी बैंकों की प्रगति- सन् 1950-51 में इन बैंकों की संख्या 505 थी जो 30 जून, 1981 में घटकर 337 रह गई, किन्तु इनकी जमाराशि 38 करोड़ ₹ से बढ़कर 2,416 करोड़ ₹ हो गई। इसी प्रकार 1950-51 में प्रदत्त ऋणराशि 4 करोड़ ₹ तथा दिए गए ऋणों की बकाया राशि 34 करोड़ ₹ थी जो जून, 1981 में बढ़कर क्रमशः 652 करोड़ ₹ तथा 2,956 करोड़ ₹ हो गई थी।
मार्च, 2001 में 367 केन्द्रीय सहकारी बैंक कार्य कर रहे थे। इन बैंकों में से 245 बैंक लाभ में तथा 112 हानि में चल रहे थे। (नोट- वर्ष 2001 के बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।)
केन्द्रीय सहकारी बैंकों के दोष- (1) निजी कोषों का अभाव, (2) राज्य सहकारी बैंकों से प्राप्त ऋण पर निर्भरता, (3) ऋणों की स्वीकृति में देरी (4) व्यक्तियों की अपेक्षा समितियों को कम ऋण देना, (5) पर्याप्त जाँच-पड़ताल के बिना ही ऋण दे देना (6) प्राथमिक समितियों के गठन में जल्दबाजी करना (7) व्यापार तथा वाणिज्य को बैंकिंग के साथ मिला देना।
सुधार के लिए सुझाव– (1) लाभ का एक तिहाई-हिस्सा रक्षित कोष में डाला जाए। (2) ग्रामीण बचतों को प्रोत्साहित किया जाए (3) व्यक्तियों की अपेक्षा समितियों को अधिक ऋण दिए जाएँ (4) गैर-बैंकिंग-कार्यों पर कम ध्यान दिया जाए। (5) सहकारिता के सिद्धान्तों का गम्भीरता से पालन किया जाए (6) सरकार द्वारा इनकी कठिनाइयों को दूर किया जाए।
(III) राज्य सहकारी बैंक (State Co-operative Bank)
देश के प्रत्येक राज्य में एक राज्य सहकारी बैंक की स्थापना की गई है। जिस प्रकार केन्द्रीय सहकारी बैंक प्राथमिक सहकारी समितियों का संघ होता है, उसी प्रकार ‘राज्य सहकारी बैंक’ एक राज्य के सभी केन्द्रीय सहकारी बैंकों का संघ होता है। वस्तुतः यह राज्य के सहकारी साख आन्दोलन का नेता होता है इसलिए ऐसे बैंक को शीर्ष बैंक (Apex Bank) भी कहते है। राज्य सहकारी बैंकों की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है-
(1) स्वरूप- राज्य सहकारी बैंक दो प्रकार के होते हैं–(i) शुद्ध राज्य सहकारी बैंक- ऐसे बैंक के सदस्य प्राथमिक साख समितियाँ तथा केन्द्रीय सहकारी बैंक होते हैं। पश्चिम बंगाल तथा पंजाब में इस प्रकार के बैंक है। (ii) मिश्रित राज्य सहकारी बैंक- इन बैंकों के सदस्य प्राथमिक साख समितियाँ, केन्द्रीय बैंक तथा व्यक्ति ये तीनों हो सकते हैं। इस प्रकार के बैंक असम, तमिलनाडु महाराष्ट्र, बिहार तथा मध्य प्रदेश में हैं।
(2) प्रवन्ध – इनका प्रबन्ध संचालक मण्डल द्वारा किया जाता है जिसका गठन साधारण सभा द्वारा किया जाता है। कुछ संचालक सहकारी विभाग के पंजीयक द्वारा भी मनोनीत किए जाते हैं।
(3) पूंजी- बैंक अपनी कार्यशील पूंजी मुख्यतः इन स्रोतों से प्राप्त करते हैं-(I) अपने अंश बेचकर, (II) ऋणपत्र जारी करके, (3) जनता से प्राप्त जमाराशि से, (iv) प्रत्यक्ष राजकीय सहायता द्वारा, (v) सुरक्षित कोष से ये राज्य सरकार की गारण्टी पर रिजर्व बैंक तथा स्टेट बैंक से भी ऋण प्राप्त कर सकते हैं।
(4) कार्य- राज्य सहकारी बैंक मुख्य कार्यों को करते हैं—(1) राज्य के केन्द्रीय सहकारी बैंकों के काम-काज को नियन्त्रित करना, (II) राज्य के केन्द्रीय सहकारी बैंकों के लिए सन्तुलन केन्द्र के रूप में कार्य करना, (III) प्रदेश के सहकारी साख आन्दोलन की वित्तीय व्यवस्था करना, (iv) प्रान्त के केन्द्रीय सहकारी बैंकों का मार्गदर्शन करना, (v) सदस्य बैंकों, संस्थाओं एवं जनता से जमाराशियों स्वीकार करना, (vi) व्यापारिक बैंक के रूप में कार्य करना, तथा (vii) साधारण तौर पर प्रान्तीय सहकारी बैंक प्राथमिक सहकारी समितियों से सीधा व्यवहार नहीं करते वरन् ऐसा वे केन्द्रीय सहकारी बैंकों के माध्यम से करते हैं।
(5) ऋण नीति- राज्य सहकारी बैंक मुख्यतः केन्द्रीय सहकारी बैंकों को ऋण देते हैं। ये 4% से 6% तक व्याजदर वसूल करते हैं। ये सरकारी प्रतिभूतियों तथा कृषि विनिमय-विपत्रों की धरोहर पर ऋण प्रदान करते हैं। इनके द्वारा दिए जाने वाले ऋणों की अवधि प्रायः 1 वर्ष होती है, किन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों में ये 3 से 5 वर्ष तक के मध्यकालीन ऋण भी देते हैं।
(6) केन्द्रीय बैंकों के साथ सम्बन्ध– ये बेक राज्य के केन्द्रीय बैंकों की नीतियों और उनके कार्यों पर नियन्त्रण रखते हैं। ये केन्द्रीय बैंकों को पुनर्मितिकाटा (rediscounting) तथा अधिविकर्ष (overdraft) की सुविधाएँ भी प्रदान करते हैं।
(7) रिजर्व बैंक के साथ सम्बन्ध- राज्य सहकारी बैंक सम्बन्धित राज्य के सहकारी आन्दोलन तथा रिजर्व बैंक के मध्य कड़ी के रूप में काम करता है। रिजर्व बैंक इन्हें बैंक दर से भी कम ब्याज पर ऋण देता है। रिजर्व बैंक इनकी प्रतिभूतियों के आधार पर भी ऋण देता है। अब यह कार्य राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक करता है।
राज्य सहकारी बैंकों की प्रगति- सन् 1950-51 में देश में केवल 16 राज्य सहकारी बैंक थे। जून 1981 में इनकी संख्या बढ़कर 27 हो गई थी जिनकी प्रदत्त पूँजी 341 करोड़ ₹, जमाएँ 1.674 करोड़ ₹ तथा ऋण-शेषों की राशि, 1.722 करोड़ ₹ थी।
मार्च, 2001 के अन्त में भारत में 30 राज्य सहकारी बैंक कार्यरत थे जिनमें 23 ने लाभ दिखाया तथा 6 बैंक हानि में चल रहे थे।
प्रान्तीय सहकारी बैंकों के दोष- (1) केन्द्रीय सहकारी बैंकों तथा प्राथमिक सहकारी साख समितियों की दी गई ऋणराशि का लम्बे समय तक वसूल न होना (2) अल्पकालीन जमाओं के आधार पर दीर्घकालीन ऋण देना (3) व्यक्तियों को ऋण देना (4) वित्तीय साधनों का अपर्याप्त होना (5) ऋण देने में बिलम्ब करना (6) दैनिक कार्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप (7) बैंकिंग-कार्यों पर अधिक ध्यान देना।
सुधार के लिए सुझाव– (1) इन बैंकों को ऋण वसूली पर समुचित ध्यान देना चाहिए। (2) व्यक्तियों को कम ऋण देने चाहिए। (3) राज्य सरकारों द्वारा इनकी हिस्सा पूंजी में अधिक भाग लिया जाए। (4) इन्हें अपने वित्तीय साधनों में वृद्धि करनी चाहिए। (5) इन्हें राजनीति से मुक्त रखा जाए (6) इन्हें सुनियोजित ऋण नीति अपनानी चाहिए। (7) कुशल कर्मचारी नियुक्त किए जाएँ (8) इन्हें बैंकिंग कार्यों की अपेक्षा कृषि साख पर अधिक ध्यान देना चाहिए।
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