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सहकारी साख समितियों तथा बैंकों का महत्त्व (लाभ)
देश को सहकारी साख व्यवस्था से निम्न लाभ प्राप्त हुए हैं-
(1) महाजनों के प्रभाव में कमी- भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में जैसे-जैसे सहकारी साख संस्थाओं का विकास तथा विस्तार होता गया है, वैसे-वैसे महाजनों तथा साहूकारों का प्रभाव घटता गया है।
(2) सस्ते ऋण सुलभ होना– सहकारी साख संस्थाओं ने किसानों तथा कारीगरों को कम ब्याजदर पर ऋण प्रदान करके उन्हें महाजनों द्वारा किए जाने वाले शोषण से बचाया है।
(3) कृषि तथा कुटीर उद्योग-धन्धों का विकास- सहकारी साख संस्थाएँ कृषि तथा कुटीर उद्योग-धन्धों को प्रतिवर्ष लगभग 1,000 करोड़ ₹ के ऋण दे रही हैं जिससे इनका पर्याप्त विकास हुआ है।
(4) बचतों में वृद्धि– इन संस्थाओं ने ग्रामीण जनता को धनराशि जमा करने की सुविधाएँ प्रदान करके उनकी बचतों में वृद्धि की है।
(5) सामाजिक गुणों का विकास- सहकारी संस्थाओं के लक्ष्य केवल आर्थिक ही नहीं होते वरन् ये जन साधारण में सद्भावना, सहयोग, त्याग, बन्धुत्व तथा मैत्री-भाव उत्पन्न करके उन्हें सच्चे अर्थ में सामाजिक प्राणी बनाती है।
(6) नैतिक मूल्यों पर बल— एक आदर्श सहकारी समिति के प्रयासों से मुकदमेबाजी, अपव्यय, शराबखोरी तथा जुएबाजी कम हो जाती है। सदस्यों में इन बुराइयों के स्थान पर परिश्रम, आत्म-विश्वास, आत्म-सहायता स्वावलम्बन, ईमानदारी, शिक्षा, पारस्परिक सहायता आदि नैतिक गुणों का विकास होता है।
(7) राजनीतिक जागरूकता- सहकारी समितियों का गठन एवं संचालन लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है। इससे इनके सदस्यों को अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान हो जाता है तथा वे अपने मताधिकार के महत्त्व को समझन लगते हैं।
सहकारी साख आन्दोलन के दोष
यद्यपि हमारे देश में सहकारी साख आन्दोलन सन् 1904 में प्रारम्भ हो गया था, तथापि आज भी इसका पर्याप्त विकास नहीं हो सका है। इसका कारण इस आन्दोलन में निम्न दोषों का व्याप्त होना है-
(1) आन्दोलन को सरकारी आन्दोलन मानना- भारतीय जनता सहकारी आन्दोलन को सरकारी आन्दोलन समझती है जबकि वास्तविकता यह है कि सहकारी आन्दोलन जनता का आन्दोलन होता है, जिसका संचालन जनता द्वारा ही किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, सरकार ने भी सहकारी संस्थाओं पर अनेक प्रकार के नियन्त्रण लगा रखे हैं, जबकि सरकार को इन पर केवल आशिक नियन्त्रण लगाकर इन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए।
(2) अकुशल प्रबन्ध- अनेक समितियों के कर्मचारी अशिक्षित हैं जिन्हें अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का अनुभव नहीं है। परिणामस्वरूप वे अनेक प्रकार की अनियमितताएँ कर डालते हैं जिस कारण समितियों को हानि उठानी पड़ती है।
(3) पूँजी की कमी- इन संस्थाओं के पास पूंजी की कमी है, क्योंकि बाहरी व्यक्ति इनके अंशों को बहुत कम खरीदने हैं तथा इनके सदस्य निर्धन हैं।
(4) ऊँची व्याज-दर- कुछ राज्यों में सहकारी साख समितियाँ 12 प्रतिशत तक ब्याज वसूल करती हैं जिससे निर्धन किसान इनसे वांछित साख-सुविधाएँ प्राप्त नहीं कर पाते।
(5) दोषपूर्ण ऋण नीति – प्रायः ये समितियाँ अनावश्यक औपचारिकताओं को पूरा करने में ही काफी समय लगा देती हैं, जिस कारण किसानों को उचित समय पर ऋणराशि नहीं मिल पाती। फिर कई बार कर्मचारी जरूरतमन्द व्यक्तियों के बजाय अपने जानने वालों को ऋण दे देते हैं।
(6) ऋण वसूली में ढील- ये समितियाँ अपनी ऋणराशि को उचित समय पर वसूल नहीं कर पातीं। इससे इनकी साख (ऋण) प्रदान करने की क्षमता घट जाती है।
(7) निष्क्रिय तथा अनार्थिक समितियाँ- कुल पंजीकृत (registered) समितियों की लगभग एक चीवाई समितियाँ निष्क्रिय हैं। फिर अनेक समितियाँ अनार्थिक हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में ही 30,000 से भी अधिक समितियाँ अनार्थिक हैं।
(8) राजनीतिक हस्तक्षेप- अधिकांश समितियाँ राजनीतिक दलबन्दी का शिकार हैं। सत्तारूढ़ दल अपने कृपा-पात्रों को सहकारी संस्थाओं के पदाधिकारी नियुक्त करके सहकारी साख आन्दोलन के साथ खिलवाड़ करता रहा है। ऐसे पदाधिकारी ऋण प्रदान करने में पक्षपातपूर्ण तरीके अपनाकर इन संस्थाओं के सीमित साधनों का दुरुपयोग करते रहे हैं।
(9) दोषपूर्ण हिसाब-किताब- ये समितियाँ नियमानुसार ठीक-ठीक हिसाब-किताब नहीं रखती। इससे एक ओर तो इनके हिसाब-किताब का ठीक प्रकार से अंकेक्षण (audit) नहीं हो पाता। दूसरे, इनके उच्च अधिकारियों द्वारा धन का दुरुपयोग किए जाने की सम्भावना बनी रहती है।
(10) कम सुविधाएँ प्रदान करना- व्यापारिक बैंकों की तुलना में सहकारी बैंक जनता को कम साख-सुविधाएँ प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त, सहकारी बैंकों की सेवाओं का स्तर भी अपेक्षाकृत निम्न कोटि का होता है। अतः जहाँ व्यापारिक बैंकों की शाखाएं होती है वहाँ जनता सहकारी संस्थाओं में खाता खोलना पसन्द नहीं करती।
(11) शिक्षा की कमी- देश की अधिकांश जनता अशिक्षित है जिस कारण वह सहकारी संस्थाओं की उपयोगिता के नहीं जानती।
(12) निर्धन लोगों को कम लाभ- सहकारी बैंकों से ऋण प्रायः उन बड़े किसानों को ही मिल पाते हैं जिनकी बैंक अधिकारियों तक पहुँच होती है। अतः गरीब किसान इन बैंकों द्वारा प्रदान वित्तीय सहायता से वंचित रह जाते हैं।
(13) अपर्याप्त ऋण- देश की सहकारी साख संस्थाओं द्वारा जो ऋण दिए जाते हैं वे एकदम अपर्याप्त होते हैं। इसमें किसानों की आवश्यकताओं के केवल अल्प भाग की ही पूर्ति हो पाती है।
(14) क्षेत्रीय असमानता- सहकारी साख आन्दोलन देश के सभी भागों में समान रूप से प्रगति नहीं कर पाया है। बिहार, उड़ीसा तथा पं० बंगाल की अपेक्षा महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पंजाब तथा हरियाणा में इसका कहीं अधिक विकास हुआ है।
(15) सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा सहयोग नहीं- आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति सहकारी संस्थाओं से कोई व्यवहार नहीं करते जिस कारण ये संस्थाएं पर्याप्त वित्तीय साधन नहीं जुटा पातीं।
दोषों को दूर करने के उपाय
सहकारी साख आन्दोलन के दोषों को दूर करने के लिए निम्न उपाय किए जा सकते हैं-
(1) पूँजी में वृद्धि— इसके लिए सहकारी समितियों को अपने रक्षित-कोषों में वृद्धि करनी चाहिए।
(2) ऋण नीति में सुधार— (1) अनावश्यक औपचारिकताओं को समाप्त करके इन्हें अपनी ऋण प्रणाली को सरल बनाना चाहिए। (II) इन्हें अधिकांश ऋण उत्पादक कार्यों के लिए तथा जमानत पर देने चाहिए (III) ऋण वसूली में चुस्ती से काम लिया जाना चाहिए।
(3) सरकार द्वारा वित्तीय सहायता- इन समितियों की प्रारम्भिक कठिनाइयों को दूर करने के लिए सरकार को इन्हें पर्याप्त वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए।
(4) बहुउद्देशीय समितियों का गठन– प्राथमिक साख समितियों को बहुउद्देशीय समितियों में परिणत कर देना चाहिए ताकि ये किसानों की साख, बोज, खाद, कृषि यन्त्र आदि विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।
(5) निर्धन किसानों को अधिक सहायता- छोटे किसानों के ऋण आवेदन पत्रों पर इन संस्थाओं को प्राथमिकता के आधार पर विचार करना चाहिए।
(6) ब्याज दर में कमी- सहकारी बैंकों को अपनी व्याज दरें साधारण व्याज दरों से कम रखनी चाहिए।
(7) निष्क्रिय समितियों का समापन- सहकारी संस्थाओं को सशक्त बनाने हेतु निष्क्रिय तथा कमजोर सहकारी समितियों का समापन आवश्यक है।
(8) सरकार का आंशिक नियन्त्रण- सरकार को सहकारी समितियों पर अपने नियन्त्रण में कमी कर देनी चाहिए ताकि इनके सदस्यों में सहकारिता की भावना का विकास हो सके। इससे सदस्यों में संस्था के प्रति विश्वास बढ़ेगा और उत्तरदायित्व की भावना का विकास होगा।
(9) पुनर्गठन की योजना बनाना- केन्द्रीय तथा राज्य सहकारी बैंकों की कार्यकुशलता में वृद्धि करने के लिए इनके पुनर्गठन (reorganisation) की योजना बनाई जानी चाहिए। कमजोर केन्द्रीय सहकारी बैंकों के पुनर्गठन की एक योजना सन् 1972 में प्रारम्भ भी की गई थी।
(10) उचित प्रशिक्षण- सहकारी संस्थाओं को कुशल कर्मचारी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से प्रशिक्षण-केन्द्र स्थापित किए जाने चाहिएं।
(11) सामयिक निरीक्षण तथा अंकेक्षण- प्रत्येक वर्ष निश्चित समय पर समितियों का निरीक्षण तथा अंकेक्षण होना चाहिए।
(12) सहकारी शिक्षा का प्रसार- इन संस्थाओं के सदस्यों तथा कर्मचारियों को सहकारी शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए जिससे वे ऐसी संस्थाओं की उपयोगिता को भली-भाँति समझ सकें।
(13) अन्य सुझाव– (1) ग्रामीण बचतों की एकत्रित करने के लिए गम्भीर प्रयास किए जाएँ (ii) सरकार को सहकारी संस्थाओं से लिए जाने वाले पंजीकरण शुल्क, स्टाम्प कर आदि में कमी करनी चाहिए। (iii) इन संस्थाओं की सदस्यता को बढ़ाने के लिए गम्भीर प्रयास किए जाएँ (iv) सहकारी संस्थाओं के महत्त्वपूर्ण पदों पर प्रशिक्षित तथा अनुभवी व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाए। (v) विभिन्न सहकारी संस्थाओं में समन्वय स्थापित किया जाए।
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