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शिक्षा के विकास में जेण्डर संबंधित सामाजिक शोध के योगदान | contribution of modern social research regarding gender for the development of education in Hindi

शिक्षा के विकास में जेण्डर संबंधित सामाजिक शोध के योगदान | contribution of modern social research regarding gender for the development of education in Hindi
शिक्षा के विकास में जेण्डर संबंधित सामाजिक शोध के योगदान | contribution of modern social research regarding gender for the development of education in Hindi

शिक्षा के विकास में जेण्डर संबंधित सामाजिक शोध के योगदान का वर्णन करें। 

बच्चियों की शिक्षा की स्थिति जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि सरकारी शिक्षण संस्थानों की हालत कैसी है। मीडिया में आई रिपटों के अनुसार हालात बहुत चिंताजनक हैं। शिक्षा के निजीकरण के चलते लम्बे समय से सरकारी शिक्षण संस्थानों के रख रखाव पर सरकारें ध्यान नहीं दे रही हैं। लेकिन अब सरकारी पाठशालाओं की संख्या को भी कम किया जा रहा है। 10 जनवरी 2015 के हिन्दी आउटलुक में भाषा सिंह की रपट के अनुसार देश भर में लगभग एक लाख सरकारी स्कूल युक्तिकरण या समान्यीकरण के नाम पर या तो बंद किए जा चुके हैं या बंद होने की प्रक्रिया में हैं। युक्तिकरण या सामान्यीकरण का अर्थ है दो या तीन स्कूलों का एक स्कूल में विलय । इन स्कूलों को बन्द करने से पहले व्यवस्थित ढंग से इनके शिक्षा के स्तर को गिराया जाता है। इसी का परिणाम है कि भारत में 8 करोड़ बच्चे, प्राथमिक शिक्षा पूरी होने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं। (संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की रिपोर्ट) और सरकारी आँकड़ों के मुताबिक देश के 80 फीसदी बच्चे सरकारी स्कूलों में ही शिक्षा हासिल करते हैं। देश के बच्चों की अधिसंख्य आबादी जहाँ जाकर शिक्षा और मध्याह्न भोजन हासिल कर रही है, उन पर ताला लगाया जा रहा। इससे गरीब बच्चों बच्चियों की शिक्षा के साथ-साथ उनका पोषण भी प्रभावित हो रहा है। सरकारी स्कूलों की बंदी की रफ्तार पिछड़े राज्यों (बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल आदि) में कम है । भारत ज्ञान विज्ञान समिति (राजस्थान) की रिपोर्ट के अनुसार इसकी मार वंचितों, दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के बच्चों पर सबसे ज्यादा पड़ रही है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में भी इन्हीं समुदायों के बच्चे, पाठशालाओं में तालाबंदी से प्रभावित होते । इसके साथ ही यह भी ध्यान देने की बात है कि सरकारी आँकड़ों के मुताबिक देश में 12 लाख के करीब बाल श्रमिक हैं। इन बाल श्रमिकों की शिक्षा की कोई योजना सरकारों ने नहीं बनाई है।

वरिष्ठ शिक्षाविद कृष्ण कुमार का कहना है कि जब भी सरकारी स्कूलों पर संकट छाएगा, उससे लड़कियों की साक्षरता सबसे ज्यादा प्रभावित होगी। अगर स्कूल घर से दूर हुआ या सुरक्षित परिधि में नहीं हुआ, तो सबसे पहले लोग लड़कियों को घर बैठाते हैं। दलित बच्चों की शिक्षा पर काम कर रही सेंटर फॉर सोशल एक्विटी एंड इनक्लूजन संस्था की निदेशक एनी नमाला का मानना है कि स्कूलों की बंदी या विलय से दलित बच्चों की शिक्षा पर बहुत बुरा असर पड़ा है। दलित बस्तियों में सरकारी स्कूलों को बड़े पैमाने पर बंद कर, मुख्य गाँव के सरकारी स्कूलों में उनका विलय कर दिया जा रहा है। यहाँ दबंग जातियों के बच्चों का बाहुल्य होता है और दलित बच्चों के लिए बराबरी का माहौल नहीं होता । इस वजह से ये बच्चे घर बैठ जाते हैं। कुछ मामलों में लड़कियों के स्कूलों का विलय लड़कों के स्कूलों के साथ कर दिया गया। लड़कियों के लिए अलग स्कूल खोलने का एकमात्र मकसद बालिका शिक्षा को बढ़ावा देना था क्योंकि कई परिवार सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों से लड़कों के स्कूलों में अपनी बच्चियों को भेजने पर राजी नहीं होते थे । विलय ने इन लड़कियों को शिक्षा से वंचित कर दिया।

इसके अलावा देश भर में बहुत खामोशी से सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। मसलन मुंबई नगर निगम और चेन्नई दोनों महानगरों में निगमों के स्कूलों को निजी हाथों में सौंप दिया गया है। इन स्कूलों का स्तर बढ़ाने के नाम पर यह संपत्ति निजी हाथों को सौंपी जा रही है।

ह्यूमन राइट्स वॉच ने (22 अप्रैल, 2014) को जारी रिपोर्ट भारतः हाशिए पर रह रहे बच्चों को शिक्षा से वंचित करना में बताया कि स्कूल प्राधिकारी हाशिए पर रह रहे समुदायों के बच्चों के साथ भेदभाव करते हैं। 77 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में चार राज्यों, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और दिल्ली में स्कूल प्राधिकारियों द्वारा दलित, आदिवासी तथा मुस्लिम बच्चों के विरुद्ध किए जा रहे भेदभाव का विवरण दिया है। ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि दलित, आदिवासी, तथा मुस्लिम समुदाय के बच्चों को प्रायः कक्षा में सबसे पीछे या फिर अलग कमरे में बैठने को कहा जाता है, उन्हें अपमानजनक नामों का प्रयोग करके बेइज्जत किया जाता है, नेतृत्व की भूमिकाओं से वंचित रखा जाता है और भोजन भी आखिर में परोसा जाता है। उनसे शौचालय तक साफ कराए जाते हैं। तथाकथित सवर्ण बच्चों से ये काम नहीं कराए जाते हैं। इस भेदभाव के कारण रिपोर्ट में कहा गया है कि आठ करोड़ से अधिक बच्चे प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पूर्व ही स्कूल छोड़ देते हैं।

हाशिए पर रह रहे इन बच्चों के साथ स्कूल स्तर के अलावा राजनीतिक तथा प्रशासनिक स्तर पर भी भेदभाव होता है। यह रिपोर्ट बताती है कि सरकारी तंत्र में अनियमित तौर पर स्कूल जाने वाले बच्चों, या जिन बच्चों के स्कूल छोड़ देने का खतरा है, अथवा जो छोड़ चुके हैं कि निगरानी की कार्यप्रणाली कमजोर है। यही नहीं देश के सभी राज्यों में स्कूल ‘स्कूल से अनुपस्थित होने की अलग अलग अवधियों के बाद ही बच्चों को स्कूल ड्राप आउट माना जाता है। मसलन कर्नाटक में यदि बच्चा बिना बताए सात दिन अनुपस्थित रहता है तो मान लिया जाता है कि उसने स्कूल छोड़ दिया है, आंध्र प्रदेश में यह अवधि एक महीना है और छत्तीसगढ़ तथा बिहार में यह अवधि तीन महीने हैं। शिक्षा का अधिकार कानून में ड्राप आउट बच्चें, अथवा बड़ी आयु के वे बच्चे जो कभी स्कूल गए ही नहीं, उन्हें उनकी आयु के हिसाब से पारंगत करने और मुख्यधारा के स्कूलों की कक्षाओं में लाने के लिए ‘सेतु पाठ्यक्रम’ शुरू करने का प्रावधान है। लेकिन जब राज्य सरकारें इन बच्चों के आँकड़े ही नहीं रखती और न ही सेतु पाठ्यक्रमों के लिए अतिरिक्त संसाधनों का प्रावधान करती हैं। तो इन बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार बेमानी हो जाता है। सरकारों को इन बच्चों की आयु के अनुरूप कक्षा में आने पर उनकी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने तक ऐसे बच्चों की निगरानी करनी चाहिए।

अप्रवासी कामगारों के बच्चों, जिनमें से अधिकांश दलित या आदिवासी समुदाय के होते हैं, को मजबूरी में लंबे समय तक अनुपस्थित रहना पड़ता है। राज्य सरकारें इन बच्चों की सतत शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए कोई उपाय नहीं करती। राज्य स्तर पर श्रम विभाग बाल मजदूरों को वापस स्कूल लाने के कार्यक्रमों का उचित प्रकार से पालन नहीं करते हैं।

बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की शिकायतों के निपटारे के लिए बने दिशानिर्देशों को प्रायः अमल में ही नहीं लाया जाता है। स्कूल प्रबंधन समितियों में अभिभावकों का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं होता है। अभिभावकों ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि इसलिए जब उनके बच्चों के साथ अन्याय होता है तो वे शिकायत भी नहीं करते क्योंकि स्कूल प्राधिकारी या तो उन शिकायतों को अनदेखा कर देते हैं या फिर बच्चों को डांटते-फटकारते हैं। यह रपट बताती है कि उपरोक्त लापरवाहियों के कारण शिक्षा कानून के लागू होने के चार वर्ष बाद, 6 से 14 वर्ष की आयु के जिन बच्चों का दाखिला हुआ उनमें से लगभग आधे बच्चों की अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पूर्व ही स्कूल छोड़ देने की संभावना बनी रहती है।” Media forrights.org ने आदिवासी समुदाय में शिक्षा की स्थिति पर एक लेख छपा है। जिसमें बताया गया है कि मध्यप्रदेश में आदिवासी कुल जनसंख्या की 20 फीसदी है। लेकिन यहाँ असुर आदिवासी-असुर जनजाति का इतिहास सिन्धु घाटी सभ्यता से जोड़ा जाता है। ये मुख्यतया झारखण्ड के निवासी हैं। पर कुछ असुर पश्चिमी बंगाल और ओडिसा में भी रहते हैं। ये सदियों से लोहा गलाने का काम करते थे। परन्तु आज विषम परिस्थितियों में जीवनयापन करने को मजबूर हैं ये जीने की मूल सुविधाओं से वंचित हैं। नेत्रहाट बॉक्साइट खनन की वजह से इनकी कृषि भूमि प्रदूषित और बेकार हो गई है। विकास के नाम पर विस्थापित असुर पलायन करने को मजबूर हैं। विस्थापन तथा प्रदूषण से इनकी जनसंख्या भी घट रही है। नाबालिग असुर बच्चिों की तस्करी के मामले भी सामने आए हैं। माइक आदिवासियों की स्थिति भी दयनीय है इसलिए वे अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने में असमर्थ हैं सरकारी स्कूलों में उनके साथ भेदभाव होता है। उनको कक्षा में सबसे पीछे बैठाया जाता है। उनके साथ छुआछूत बरती जाती है। उनसे स्कूल परिसर की सफाई कराई जाती है। अक्सर आदिवासी क्षेत्रों के विद्यालयों में एक ही शिक्षक होता है वह भी स्कूल आने का कष्ट नहीं करता ।

www.patrika.com ने 2 अप्रेल, 2015 को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की 2014 की रपट का हवाला देते हए लिखा कि गुजरात में आदिवासी शिक्षा खर्च के आँकड़ों में गोलमाल हुआ है। इस रपट के अनुसार छात्राओं के स्कूलों में शौचालय, वाचनालय, खेलकूद का मैदान जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं हैं। रपट में मिड डे मील की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाए। सरकारी कोष के आबंटन के बावजूद कई पाठशालाओं की इमारतें नहीं थी । सर्वशिक्षा अभियान में आदिवासी विद्यार्थियों के परिवहन का मुफ्त प्रबन्ध सरकार को करना था । लेकिन कैग ने पाया कि ये बच्चे स्वयं नाव खे कर नदी पार कर विद्यालय आते जाते थे।

Community forest rights के मामलों को सुलझाने में प्रगति और भी मंदी है। कई CFR के तहत आने वाली भूमि के दस्तावेज आदिवासी मामलों के मंत्रालय की नोडल एजेंसी को नहीं देते। या सामुदायिक भूमि को विकास संबंधी अधिकारों से गड़बड़ कर देते हैं । विकास के अधिकार के तहत आदिवासी क्षेत्रों में स्कूल या आँगन वाड़ी केन्द्र बनाने के लिए वन भूमि दी जाती है। इसके अलावा इस कानून के तहत minor forest produce आदिवासियों का अधिकार है। लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भी यह अधिकार आदिवासियों को नहीं दिए गए हैं। सरकार का बहाना है कि यह अधिकार पहले से ही पेसा कानून के तहत आदिवासियों के पास है। लेकिन पेसा के तहत ये अधिकार केवल scheduled areas के अंदर हैं, पूरे प्रदेश के जंगलों में नहीं ।

अपने अंचलों में छोटे-छोटे आदिवासी समूह अपनी समस्याओं को उठाते रहते हैं । स्थानीय मीडिया उनको छापता भी है। परन्तु राष्ट्रीय मीडिया में उनको तवज्जो नहीं दी जाती । यह इस अध्याय के लिए जुटाई गई सामग्री के श्रोतों पर एक नजर डालने से ही स्पष्ट हो जाएगा। इस उदासीनता के परिणाम भयंकर हैं। आदिवासियों की समस्याओं के बारे में गैर आदिवासी समाज को न कोई समझ है और न उनके बारे में कोई संवेदना। राष्ट्रीय मीडिया से गायब रहने की वजह से केन्द्र व राज्य सरकारों पर भी अपनी स्वयं की बनाई गई नीतियों को ईमानदारी से लागू करने का दबाव नहीं होता। परिणामस्वरूप धड़ल्ले से आदिवासियों के अधिकारों का उल्लंघन होता है।

आदिवासी शिक्षा की स्थिति बहुत ही चिंताजनक है। देश के विभिन्न भागों में बसने वाले आदिवासी समाजों की समस्याएँ भी अलग-अलग प्रकार की है। आदिवासी समाज विस्थापन का दर्द सहने को मजबूर हैं। यदि रोटी कपड़ा और मकान की ही सुरक्षा न हो तो शिक्षण की सुविधा होना संभव नहीं। जहाँ विस्थापन का दंश नहीं है वहाँ भ्रष्टाचार का दंश आदिवासियों को डँस रहा है। गैरआदिवासी समाज व आदिवासी समाजों के बीच की खाई इतनी चौड़ी है कि आमतौर पर इन समाजों की समस्याएँ मुख्यधारा के मीडिया में आती ही नहीं है। जो थोड़ी बहुत आती हैं वह समस्या की गंभीरता दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं। उदाहरण के लिए 28 नवम्बर 2014 को अनिल कुमार ने हिन्दी डाँट वन इंडिया डॉट काम (hindi.oneindia.com) में लिखा कि महाराष्ट्र सरकार के आदिवासी विकास मंत्री ने बताया कि सरकार राज्य के आदिवासी समाजों के विकास के लिए आवंटित 11 हजार हेरा-फेरी राशि में हेराफेरी व घोटालों पर नजर रखेगी। इससे पहले धन का आवंटन तो होता था। परन्तु धन के उपयोग पर कोई नियंत्रण नहीं था। यह एलान कितना प्रभावशाली होगा समय ही बताएगा। अभी तो आदिवासी बच्चों के लिए खरीदी गई चिक्की को ही खाने योग्य नहीं पाया गया । 18 जुलाई 2015 के अमर उजाला (मुम्बई) के अनुसार स्वयं मंत्री ने विधान सभा में माना कि ये चिक्की तय मापदंडों में खरी नहीं उतरी अतः जो बाँटने से बच गई थी उनको वापस ले लेने का निर्णय हुआ ।

दुर्भाग्य से इस तरह की गलती सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं होती, पूरे देश की हर स्तर की सरकारें इस छूत की बीमारी से ग्रसित है । कल्याण के लिए आवंटित राशि को दूसरे सरकारी योजनाओं में खर्च कर दिया जाता है। कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। किसी की जवाबदेही नहीं होती। नेशनल कॉफेडरेशन ऑफ दलित ऑर्गेनाइजेशन्स (नैक्डोर) के तत्वाधान में दिल्ली के स्पीकर हॉल, कॉन्सटीटूशन क्लब ऑफ इंडिया नई दिल्ली में बजट की जंग : दलित आदिवासी और संघ बजट 2015-16 कार्यक्रम का आयोजन किया। नैक्डोर ने पाया कि अनुसूचित जाति उप योजना बजट के 2014-15 में 43208 करोड़ रुपए का बजट रखा गया था जिसको 2015-16 में घटा कर 30851 करोड़ कर दिया गया है। इसी तरह जनजातीय उप योजना के बजट 2014-2015 में 26715 रुपए आवंटित किए गए थे, जिसको 2015-2016 में. घटाकर 19980 करोड़ रुपए कर दिया गया है, जो कि अनुसूचित जाति और जनजाति की जनसंख्या के हिसाब से कम है।

Media forrights.org ने आदिवासी समुदाय में शिक्षा की स्थिति पर एक लेख छपा है जिसमें बताया गया है कि “मध्यप्रदेश में आदिवासी कुल जनसंख्या की 20 फीसदी है । लेकिन यहाँ सरकारी स्कूलों में उनके साथ भेदभाव होता है। उनको कक्षा में सबसे पीछे बैठाया जाता है उनके साथ छुआछूत बरती जाती है। उनसे स्कूल परिसर की सफाई कराई जाती है। अक्सर आदिवासी क्षेत्रों के विद्यालयों में एक ही शिक्षक होता है वह भी स्कूल आने का कष्ट नहीं करता।”

ऊपर दिए गए आर्थिक परिदृश्य से साफ हो जाता है कि 2015 में भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक असमानताएँ स्त्री विमर्श के मुख्य आयाम हैं। इन असमानताओं को मापने के कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने अपने अपने मापदन्ड बनाए हैं। इन मापदन्डों में एक महत्त्वपूर्ण मापदंड जीवन के विभिन्न क्षेत्रों स्त्री पुरुषों संबंधित आँकड़ों के अनुपात हैं। भारतीय दस साल जनगणना के अलावा कई अन्य देशीय और विदेशी एजेंसियाँ भिन्न-भिन्न मुद्दों पर इस प्रकार के प्रस्तुत करती हैं। हालाँकि कई कारणों से इन आँकड़ों की विश्वसनीयता जाँचना मुश्किल है। फिर भी यदि सभी स्रोतों के अनुपातिक आँकड़े नारी की कमजोर स्थिति दर्शाते हैं तो कुछ तो तस्वीर बनती ही है। मसलन विश्व बैंक के स्त्री पुरुष की उत्पादन में भागीदारी पर किए गए 2013 के अध्ययन के अनुसार श्रम बाजार में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की भागीदारी 34 प्रतिशत थी। यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमैंट प्रोग्राम के 2012 के जेंडर इनइक्वालिटी इन्डेक्स के अनुसार 148 देशों में भारत का स्थान 132वाँ था। 2013 में वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम के 136 देशों के जेंडर गैप इन्डेक्स में भारत को 101 वें स्थान पर रखा गया। इसी प्रकार ऑरगनाइजेशन फार इकोनोमिक को कॉर्पोरेशन एण्ड डेवलपमैंट ने 2012 में 86 देशों का सेशियल इन्स्टिटडूशन्स एण्ड जेंडर इन्डैक्स निकाला। इसमें भारत को 56वें स्थान पर रखा गया ।

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Anjali Yadav

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