इतिहास शिक्षण की विधियाँ (itihaas shikshan ki vibhinn vidhiyan)
भूमिका- विद्यालयी शिक्षा के माध्यम से बालक के विकास हेतु जो भी प्रयास किये जाते हैं, उन प्रयासों को एक निर्दिष्ट दिशा में अग्रसरित करके ही शैक्षिक प्रक्रिया को सफल बनाया जाना सम्भव होता है। यह निर्दिष्ट दिशा उन उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की ओर इंगित करती है, जिनका निर्धारण शिक्षण की प्रक्रिया से पूर्व करना होता है। शिक्षा में इन निर्दिष्ट उद्देश्यों के उपरान्त उस पाठ्यक्रम को महत्ता प्रदान की जाती है, जिसमें निहित अनुभवों के आधार पर, छात्रों को विकास करने का अवसर प्राप्त होता है। उपयुक्त एवं मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों के अभाव में, अर्थपूर्ण सिद्ध नहीं हो सकता। पाठ्यक्रम में निहित इन अनुभवों का निर्धारित उद्देश्यों की दिशा में सार्थक प्रयोग, मात्र शिक्षण की विधियों के द्वारा सम्भव हो पाता है। अतः प्रत्येक विषय के शिक्षण में इन विधियों का प्रयोग किया जाना आवश्यक होता है। इतिहास के शिक्षण हेतु भी अनेक परम्परागत एवं आधुनिक शिक्षण विधियों का निर्धारण किया गया है, जिनके आधार पर, प्रत्येक स्तर के छात्रों को विभिन्न प्रकार से ज्ञान प्रदान किया जा सकता है, तथा उनका वांछित विकास किया जा सकता है।
शिक्षण विधि का अर्थ
विद्यालयों में औपचारिक शिक्षा के अन्तर्गत शिक्षण पाठ्यसहगामी क्रियाओं तथा सहगामी क्रियाओं के माध्यम से बालकों के विकास का प्रयास किया जाता है। बालकों के विकास हेतु शिक्षण-प्रक्रिया का विशेष स्थान है। शिक्षण प्रक्रिया का प्रमुख उद्देश्य छात्रों में मानसिक, भावात्मक तथा शारीरिक दृष्टि से वांछित व्यवहार परिवर्तनों को उत्पन्न करना है। शिक्षण एवं अधिगम का उद्देश्य एवं व्यवहार परिवर्तन शिक्षण की प्रक्रिया को निर्धारित दिशा प्रदान करने में सहायक होते हैं। इन उद्देश्यों, लक्ष्यों आदि की दिशा में शिक्षण की प्रक्रिया को सम्पन्न करने हेतु कक्षा में अथवा कक्षा के बाहर अध्यापकों को अनेक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं, तथा छात्रों को भी सहयोग हेतु प्रेरित किया जाता है। निर्धारित उद्देश्यों की दिशा में वांछित व्यवहार परिवर्तन करने हेतु जिन अनुभवों को आधार बनाया जाता है, उनका प्रस्तुतीकरण शिक्षण विधि के माध्यम से ही सम्भव होता है। शिक्षण विधि को उद्देश्यों की दिशा में अनुभवों के प्रस्तुतीकरण के तरीके के रूप में स्वीकार किया जाता है। जिस प्रकार से सुनिश्चित मार्ग के अभाव में कोई व्यक्ति अपने निर्धारित गन्तव्य पर नहीं पहुँच सकता, उसी प्रकार विधि के अभाव में यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि पाठ्यवस्तु में निहित ज्ञान को किस प्रकार प्रदान किया जाय अथवा निर्दिष्ट उद्देश्यों की दिशा में शिक्षण को किस प्रकार सम्पन्न किया जाय।
विद्यालय में अध्ययन करने वाले छात्र अपने स्तर, आयु, योग्यता, क्षमता, बुद्धि आदि के आधार पर वैयक्तिक रूप से पर्याप्त विभिन्नता रखते हैं। इसलिये विधियों का चयन करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि किस विधि के माध्यम से छात्रों का प्रभावपूर्ण विकास किया जा सकता है। बालकों के विकास की दृष्टि से शिक्षण की विधियों में भी पर्याप्त विभिन्नता होती है।
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