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Vibhats Ras (वीभत्स रस)
जिस भाव में जुगुप्सा नामक स्थायी भाव का उद्रेक होता है वहाँ ‘वीभत्स रस’ माना जाता है। जुगुप्सा का अर्थ है–भद्दी, घिनौनी, अप्रिय स्थिति, वस्तु, स्थान आदि का वर्णन जिससे घृणा का भाव उत्पन्न होता है।
वीभत्स रस के अवयव/उपकरण / Vibhats Ras Ke Avayav
- स्थाई भाव : ग्लानि or जुगुप्सा।
- आलंबन (विभाव) : दुर्गंधमय मांस, रक्त, अस्थि आदि ।
- उद्दीपन (विभाव) : रक्त, मांस का सड़ना, उसमें कीड़े पड़ना, दुर्गन्ध आना, पशुओ का इन्हे नोचना खसोटना आदि।
- अनुभाव : नाक को टेढ़ा करना, मुह बनाना, थूकना, आंखे मीचना आदि।
- संचारी भाव : ग्लानि, आवेग, शंका, मोह, व्याधि, चिंता, वैवर्ण्य, जढ़ता आदि।
Vibhats Ras Ke Bhed / वीभत्स रस के भेद
वीभत्स रस के प्रकार अपने नाट्यशास्त्र में भरत ने बीभत्स रस के विभाजन की भी व्यवस्था कर दी है, यथा-
‘बीभत्स: क्षोभज: शुद्ध: उद्वेगी स्यात्तृतीयक:।
विष्ठाकृमिभिरुद्वेगी क्षोभजो रुधिरादिज:’।
इस कथन के अनुसार बीभत्स रस के तीन भेद होते हैं-
- क्षोभज
- शुद्ध
- उद्वेगी
- क्षोभज की उत्पत्ति रुधिराद्रि के देखने से मन में क्षोभ का संचार होने पर होती है और उद्वेगी विष्ठा तथा कृमि के सम्पर्क द्वारा उदभूत होता है।
- शुद्ध बीभत्स की व्याख्या भरत के इस तरह विभाजन में नहीं मिलती। जुगुत्सा का सामान्य भाव ही कदाचित उसका उत्पादक है, जिसमें किसी तात्कालिक स्थूल वस्तु की अपेक्षा नहीं होती।
- ‘भावप्रकाश’ नामक संस्कृत के ग्रन्थ के रचयिता शारदातनय (13वीं शती. ई.) ने उक्त भेदों में से केवल ‘क्षोभज’ और ‘उद्वेगी’ को ही मान्यता प्रदान की है। ‘शुद्ध’ उन्हें मान्य नहीं हुआ।
- धनंजय (10वीं शती. ई.) ने ‘दशरूपक’ में भरत के तीनों भेदों को यथावत् स्वीकार कर लिया है।
- भानुदत्त (13-14वीं शती. ई.) ने ‘रसतरंगिणी’ में करुण रस की तरह बीभत्स रस के भी ‘स्वनिष्ट’ और ‘परनिष्ठ’ दो रूप माने हैं।
- साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ (14वीं शती. ई.) ने भरत द्वारा निर्दिष्ट बातों को ज्यों का त्यों बीभत्स रस के लक्षण में समाविष्ट कर लिया है, पर उसके भेदों का कोई उल्लेख नहीं किया है।
वीभत्स रस का स्थायी भाव
- बीभत्स रस के स्थायी भाव जुगुत्सा की उत्पत्ति दो कारणों से मानी गयी है, एक विवेक और दूसरा अवस्था भेद। पहले को ‘विवेकजा’ और द्वितीय को ‘प्रायकी’ संज्ञा दी जाती है।
- विवेकजा जुगुत्सा से शुद्ध बीभत्स तथा प्रायकी से क्षोभज और उद्वेगी बीभत्स को सम्बद्ध किया जा सकता है।
- अधिकांश हिन्दी काव्याचार्यों ने ‘जुगुत्सा’ के स्थान पर ‘घृणा’ को बीभत्स रस का स्थायी भाव बताया है।
- भिखारीदास ने लिखा है- ‘घिनते हैं बीभत्स रस’।
- पर कहीं-कहीं कवियों ने दोनों ही शब्दों का प्रयोग किया है, जैसे देव ने-
‘वस्तु घिनौनी देखी सुनि घिन उपजे जिय माँहि।
छिन बाढ़े बीभत्स रस, चित की रुचि मिट जाँहि।
निन्द्य कर्म करि निन्द्य गति, सुनै कि देखै कोइ।
तन संकोच मन सम्भ्रमरु द्विविध जुगुत्सा होइ।’
इससे सिद्ध होता है कि घृणा या घिन को कवियों ने जुगुत्सा का पर्याय समझकर ही प्रयुक्त किया है। देव ने यहाँ जुगुत्सा की द्विवध उत्पत्ति मानी है, पर वह विवेकजा और प्रायकी के समान्तर नहीं है।
वीभत्स रस के उदाहरण
1. यज्ञ समाप्त हो चुका, तो भी धधक रही थी ज्वाला ।
दारुण दृश्य! रुधिर के छींटे, अस्थिखंड की माला ।
वेदी की निर्मम प्रसन्नता, पशु की कातर वाणी।
मिलकर वातावरण बना था, कोई कुत्सित प्राणी। – जयशंकर प्रसाद
स्थायी भाव- जुगुप्सा
विभाव- आश्रय – श्रद्धा, आलंबन- यज्ञ की वेदी, उद्दीपन- बलि चढ़ाए जाते पशुओं की चीख का वातावरण
अनुभाव- आँखें मूँदना, नाक-भौंह सिकोड़ना आदि अनुभव होंगे।
संचारी भाव- चिंता, आवेग, त्रास, विषाद, ग्लानि आदि।
रस- वीभत्स रस
2. कितनी सुखमय स्मृतियाँ, अपूर्ण रुचि बनकर मँडराती विकीर्ण,
इन ढेरों में दुख भरी कुरुचि दब रही अभी बन यंत्र जीर्ण।
आती दुलार को हिचकी-सी, सूने कोनों में कसक भरी,
इस सूखे तरु पर मनोवृत्ति, आकाश बेलि-सी रही हरी। – जयशंकर प्रसाद
स्थायी भाव – जुगुप्सा
विभाव- आश्रय- मनु आलंबन- सारस्वत प्रदेश उद्दीपन सारस्वत प्रदेश की उजड़ी हुई दशा।
अनुभाव- मनु का स्वगत कथन। संचारी भाव चिंता, त्रास, ग्लानि, विषाद
रस- वीभत्स रस
3. आंतन की तांत बाजी, खाल की मृदंग बाजी।
खोपरी की ताल, पशु पाल के अखारे में। – भूषण
स्थायी भाव- जुगुप्सा
विभाव- आश्रय- नायक, आलंबन युद्ध का वातावरण, उद्दीपन युद्ध की विभीषिका
अनुभाव- आँखें मूंदना, मुँह फेर लेना, कानों पर हाथ रखना आदि अनुभाव होंगे।
संचारी भाव – चिंता, आवेग, विषाद, त्रास आदि।
रस- वीभत्स रस
4. गिद्ध चील सब मंडप छावहिं काम कलोल करहि औ गावहिं। – जायसी
स्थायी भाव – जुगुप्सा
विभाव- आश्रय नायक, आलंबन युद्ध का वातावरण, उद्दीपन युद्ध की विभीषिका
अनुभाव- आँखें मूँदना, नाक-भौं सिकोड़ना आदि अनुभाव होंगे।
संचारी भाव – आवेग, विषाद, त्रास आदि।
रस – वीभत्स रस
5. शंकर की दैवी असि लेकर अश्वत्थामा,
जा पहुँचा योद्धा धृष्टद्युम्न के सिरहाने,
बिजली-सा झपट खींचकर शय्या के नीचे,
घुटनों से दाब दिया उसको,
पंजों से गला दबोच लिया;
आँखों के कटोरे से दोनों साबित गोले,
कच्चे आमों की गुठली जैसे उछल गए। – धर्मवीर भारती
स्थायी भाव – जुगुप्सा
विभाव- आश्रय- अश्वत्थामा, आलंबन धृष्टद्युम्न उद्दीपन- प्रतिशोध की भावना
अनुभाव– दैवी असि लेना, धृष्टद्युम्न के सिरहाने पहुँचना, बिजली-सा झपटना, खींचना, घुटनों से दबाना, पंजों से गला दबाना।
संचारी भाव – असूया, मद, आवेग, उन्माद, त्रास, उग्रता आदि।
रस- वीभत्स रस
6. लेकिन हाय मैंने यह क्या देखा,
तलवों में वाण विधते ही;
पीप भरा दुर्गंधित नीला रक्त,
वैसा ही बहा;
जैसा इन जख्मों से अक्सर बहा करता है। – धर्मवीर भारती
स्थायी भाव – जुगुप्सा
विभाव – आश्रय- अश्वत्थामा, आलंबन श्री कृष्ण, उद्वीपन श्री कृष्ण को बाण लगने के बाद का समय
अनुभाव- देखना महसूस करना
संचारी भाव – ग्लानि, उन्माद, त्रास, विषाद आदि।
रस- वीभत्स रस
7. झुकते किसी को थे न जो, नृप-मुकुट रत्नों से जड़े,
वे अब शृगालों के पदों की ठोकरें खाते पड़े।
पेशी समझ माणिक्य यह विहग देखो ले चला.
पड़ भोग की ही भ्रांति में, संसार जाता है छला।
हो मुग्ध गृद्ध किसी के लोचनों को खींचते,
यह देखकर घायल मनुज अपने दृगों को मींचते।
मानो न अब भी वैरियों का मोह पृथ्वी से हटा,
लिपटे हुए उस पर पड़े, दिखला रहे अंतिम छटा। – मैथिलीशरण गुप्त
स्थायी भाव – जुगुप्सा
विभाव- आश्रय- श्री कृष्ण, आलंबन- अर्जुन, उद्दीपन युद्ध के उपरांत की परिस्थितियाँ
अनुभाव- श्री कृष्ण का अर्जुन को समझाना
संचारी भाव- त्रास, उन्माद, विषाद आदि।
रस- वीभत्स रस
8. इस ओर देखो, रक्त की यह कीच कैसी मच रही!
है पट रही खंडित हुए, बहु रुंड-मुंडों से मही।
कर-पद असंख्य कटे पड़े, शस्त्रादि फैले हैं तथा,
रणस्थली ही मृत्यु का एकत्र प्रकटी हो यथा! – मैथिलीशरण गुप्त
स्थायी भाव – जुगुप्सा
विभाव- आश्रय – श्री कृष्ण, आलंबन अर्जुन, उद्दीपन युद्ध के उपरांत का समय
अनुभाव- श्री कृष्ण का कथन संचारी भाव त्रास, विषाद, उन्माद आदि।
रस- वीभत्स रस
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