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उत्पादन : अर्थ(Production : Meaning)
उत्पादन वह प्रक्रिया है जो वस्तुओं में तुष्टिगुण का सृजन करती है।
-ए० एच० स्मिव
उत्पादन का अर्थ (Meaning of Production)
साधारण बोलचाल की भाषा में किसी नई वस्तु के निर्माण को उत्पादन कहा जाता है। आम लोगों की दृष्टि में किसान, कुम्हार, बढ़ई आदि उत्पादक हैं, क्योंकि वे अपने परिश्रम से भीतिक वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। इसके विपरीत, क्लर्क, डॉक्टर, वकील, प्राध्यापक आदि को अनुत्पादक (unproductive) माना जाता है, क्योंकि उनके श्रम से किसी भौतिक वस्तु का निर्माण नहीं हो पाता किन्तु यह विचार सही नहीं है क्योंकि वैज्ञानिकों के मत में, मनुष्य न तो किसी नए पदार्थ (matter) का उत्पादन कर सकता है तथा न ही उसका नाश कर सकता है। मनुष्य तो केवल किसी पदार्थ या वस्तु के रूप, स्थान आदि को बदलकर उसके तुष्टिगुण (utility) को कम या अधिक कर सकता है, जैसे एक बढ़ई एक लट्टे से मेज बनाकर किसी नये पदार्थ को उत्पन्न नहीं करता बल्कि अपने श्रम तथा आजारों की सहायता से लकड़ी को मेज का रूप देकर लकड़ी में अतिरिक्त तुष्टिगुण का सृजन करता है। दूसरे शब्दों में, बढ़ई लकड़ी का उत्पादन नहीं करता बल्कि वह तो केवल लकड़ी के तुष्टिगुण में वृद्धि करता है। अर्थशास्त्र में इस तुष्टिगुण-वृद्धि को ही उत्पादन कहा जाता है। गन्ने से चीनी बनाना, चमड़े से जूते बनाना, मिट्टी से बर्तन बनाना आदि कार्य उत्पादन क्रियाएँ हैं जिनसे तुष्टिगुण में वृद्धि होती है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों के विचार में, किसी वस्तु के तुष्टिगुण में वृद्धि को उत्पादन तभी माना जायेगा जबकि सम्बन्धित वस्तु का कुछ विनिमय-मूल्य (कीमत) होगा।
उत्पादन की परिभाषाएँ ( Definitions)-उत्पादन की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नवत् हैं-
(1) प्रो० फेयरचाइल्ड (Fairchild) के विचार में, “वस्तुओं में तुष्टिगुण का सृजन ही उत्पादन है।
(2) पेन्सन (Penson) के मत में, “उत्पादन से अभिप्राय मानव अावश्यकताओं को सन्तुष्ट करने की योग्यता या शक्ति में वृद्धि करने से है न कि किसी वस्तु के निर्माण से |
(3) फ्रेजर के विचारानुसार, यदि उपभोग का अर्थ वस्तु में निहित तुष्टिगुण को समाप्त कर देने से है तो उत्पादन का अर्थ उसमें तुष्टिगुण का सृजन कर देने से है।”
(4) बॉमस (Thomas) के शब्दों में, “वस्तु के मूल्य में वृद्धि ही उत्पादन है।
(5) एली (Ely) के अनुसार, आर्थिक तुष्टिगुण का सृजन ही उत्पादन है।
(6) सिवरमैन के शब्दों में, “उत्पादन तुष्टिगुण का सृजन करता है।”
उत्पादन के लक्षण (Features of Production)
उत्पादन सम्बन्धी उक्त परिभाषाओं से उत्पादन की निम्न विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं
(1) तुष्टिगुण का सृजन-उत्पादन से अभिप्राय ऐसी प्रक्रिया से है जिससे किसी वस्तु में तुष्टिगुण का सृजन होता है या तुष्टिगुण में वृद्धि होती है अथवा उसके मूल्य में वृद्धि होती है।
(2) वस्तु की कीमत-तुष्टिगुण में वृद्धि को उत्पादन तभी कहा जायेगा जबकि सम्बन्धित वस्तु का कोई विनिमय-मूल्य (कीमत) होगा।
(3) वस्तुएँ तथा सेवाएं- उत्पादन का सम्बन्ध वस्तुओं और सेवाओं दोनों से होता है।
(4) उद्देश्य- उत्पादन का उद्देश्य मानवीय आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सन्तुष्टि करना है।
(5) लाभदायकता से सम्बन्ध नहीं-उत्पादन का लाभदायकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। उत्पादन तो लाभदायक तथा हानिकारक दोनों ही प्रकार की वस्तुओं का होता है।
उत्पादन तथा उपभोग में सम्बन्ध (Relation between Production and Consumption)
उत्पादन तथा उपभोग में परस्पर गहरा सम्बन्ध है। वस्तुतः दोनों एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। वस्तुओं तथा सेवाओं के उपभोग की इच्छा ही उत्पादन को जन्म देती है तथा उत्पादन का मूल उद्देश्य उपभोग द्वारा मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि है। उत्पादन उपभोग पर निर्भर करता है क्योंकि (1) उपयोग के कारण ही उत्पादन-उपभोग के कारण ही वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है, अर्थात किसी वस्तु का उत्पादन तभी किया जाता है जबकि उपभोक्ताओं द्वारा उसकी माँग की जाती है।
(2) उपभोग द्वारा उत्पादन के स्वरूप का निर्धारण-वस्तुओं का उत्पादन उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं के अनुरूप किया जाता है। इस प्रकार उपभोग ही उत्पादन के स्वरूप को निर्धारित करता है।
(3) उपभोग द्वारा उत्पादन की मात्रा का निर्धारण- उत्पादक उपभोक्ताओं की मांग का समुचित अनुमान लगाकर ही वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। उपभोक्ताओं की मांग के कम होने पर कम उत्पादन तथा मांग के अधिक होने पर अधिक उत्पादन किया जाता है।
उपभोग भी उत्पादन पर निर्भर करता है क्योंकि- (1) उत्पादन के कारण उपभोग सम्भव-वस्तुओं का उत्पादन होने पर ही उनका उपयोग किया जा सकता है। फिर जैसे-जैसे नई वस्तुओं का आविष्कार तथा उत्पादन होता है वैसे-वैसे लोग उनका उपभोग करते जाते हैं।
(2) उत्पादन द्वारा उपभोग की सीमा का निर्धारण- किसी वस्तु के उपभोग की मात्रा उसके उत्पादन की मात्रा पर निर्भर करती है। वस्तुतः किसी वस्तु का उपभोग उतना ही किया जा सकता है जितना उसका उत्पादन होता है।
(3) उत्पादन द्वारा उपभोग के स्वरूप का निर्धारण- उपभोग का स्वरूप भी उत्पादन द्वारा निश्चित होता है। उदाहरणार्थ, जब तक कैसेट, टेपरिकार्डर तथा बी० सी० आर० का आविष्कार नहीं हुआ था तब तक इनकी मांग नहीं थी। किन्तु इन वस्तुओं का उत्पादन प्रारम्भ होने पर इनकी माँग तथा इनके प्रयोग में निरन्तर वृद्धि होती गयी है।
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