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उत्पादन के उपादानों का सापेक्ष महत्त्व
प्रो० पेन्सन के विचार में उत्पादन के लिए उत्पादन के प्रत्येक साधन का होना आवश्यक है। किन्तु विभिन्न कालो तथा औद्योगिक विकास की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में इन साधनों का सापेक्ष महत्व घटता-बढ़ता रहता है।” उत्पादन के साधनों के तुलनात्मक महत्व को निम्न बातों से भली-भांति समझा जा सकता है
(1) उत्पादन पाँचों उपादानों द्वारा ही सम्भव-यह कहना अत्यन्त कठिन है कि उत्पादन का कौन-सा उपादान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। उत्पादन कार्य में प्रत्येक उपादान का अपना पृथक् महत्त्व होता है। “भूमि’ उत्पादन के लिए आधार प्रदान करती है, भूमि के बिना कोई भी उत्पादन कार्य सम्भव ही नहीं है। किन्तु ‘श्रम’ के बिना भूमि अकेली कुछ नहीं कर सकती प्राकृतिक संसाधनों के समुचित उपयोग के लिये श्रम शक्ति का होना अनिवार्य है। श्रम को पूंजी’ को आवश्यकता पड़ती है। पूंजी की सहायता से अधिक उत्पादन तभी किया जा सकता है जबकि संगठन कुशल हो। अर्थात् भूमि, श्रम तथा पूंजी में आदर्श सहयोग तथा समन्वय स्थापित करने के लिए ‘संगठन’ की आवश्यकता पड़ती है। उत्पादन का पैमाना बढ़ने पर व्यवसाय सम्बन्धी जोखिम तथा अनिश्चितता बढ़ जाती है। ऐसी अवस्था में उद्यम भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इस प्रकार उत्पादन का प्रत्येक उपादान अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण होता है।
(2) विभिन्न आर्थिक अवस्थाओं में विभिन्न उपादानों का महत्त्व-उत्पादन के सभी उपादान सदैव समान रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं रहे हैं, बल्कि विभिन्न आर्थिक अवस्थाओं में उत्पादन के भिन्न-भिन्न उपादान अधिक महत्त्वपूर्ण रहे हैं। प्रारम्भिक जंगली अवस्था में मनुष्य प्रकृति का दास था। वह बनों में रहता था तथा कृषि से अपना जीवन निर्वाह करता था। इसलिए उन दिनों ‘भूमि’ का बहुत अधिक महत्त्व था हस्तकला युग के आने पर ‘श्रम’ का महत्त्व सबसे अधिक हो गया। इसके पश्चात् जब औद्योगिक युग प्रारम्भ हुआ तो मशीनों के अधिकाधिक प्रयोग द्वारा उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाने लगा। परिणामतः पूंजी’ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई। विज्ञानस्तरीय उत्पादन, श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण के कारण आधुनिक उत्पादन प्रणाली अत्यन्त जटिल हो गई है जिस कारण उत्पादन कार्य में संगठन’ तथा ‘उद्यम’ का महत्त्व सबसे अधिक हो गया है।
(3) उपादानों का महत्त्व व्यवसाय के स्वभाव पर निर्भर-उत्पादन के विभिन्न उपादानों का महत्त्व किसी व्यवसाय के स्वभाव पर निर्भर करता है–(i) कृषि में भूमि का अधिक महत्त्व होता है। (ii) हस्तकला में श्रम का अधिक महत्त्व होता है। (iii) बड़े पैमाने के उत्पादन में पूंजी, संगठन तथा उथम का अधिक महत्त्व होता है।
संक्षेप में, उत्पादन के पाँवों उपादानों का अलग-अलग महत्व होता है। भूमि उत्पादन कार्यों के लिए आधार प्रदान करती है। श्रम को सक्रिय उपादान कहा जाता है। पूंजी उत्पादन की गति को बढ़ाती है तो संगठन अन्य उपादानों की कुशलता को बढ़ाता है है। उद्यम इन सभी उपादानों में प्राण फूंकता है। इस प्रकार उत्पादन में पाँचों साधनों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। वस्तुतः उत्पादन एक सामूहिक क्रिया है जो उत्पादन के सभी साधनों के सहयोग से सम्पन्न होती है।
उत्पादन के साधक (Agents of Production)-‘उत्पादन के साधक’ वे व्यक्ति होते हैं, जो उपादानों के स्वामी होते हैं तथा जो उत्पादन के लिए उपादानों को प्रदान करते हैं। उपादानों की भांति उत्पादन के साधक भी पाँच होते हैं-
उत्पादन के उपादान उत्पादन के साधक
(1) भूमि (Land) भूमिपति (Landlord)
(2) श्रम (Labour) श्रमिक (Labourer)
(3) पूँजी (Capital) पूंजीपति (Capitalist)
(4) संगठन (Organisation) संगठनकर्ता (Organiser)
(5) उद्यम (Enterprise) उद्यमी (Entrepreneur)
भूमिपति भूमि का स्वामी होता है। श्रमिक उत्पादन कार्य में अपना श्रम प्रदान करता है। पूंजीपति पूंजी प्रदान करता है। संगठनकर्त्ता भूमि, श्रम तथा पूंजी में सहयोग तथा समन्वय स्थापित करता है। उद्यम करने वाला अर्थात किसी उत्पादन कार्य में निहित जोखिम को उठाने वाला उद्यमी कहलाता है।
उत्पादन कार्य में पाँच उपादानों की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु उपादानों की भाँति साधक भी पाँचों पृथक्-पृथक् हो यह आवश्यक नहीं है, अर्थात् उत्पादन के साधक अलग-अलग व्यक्ति भी हो सकते हैं, तथा एक या दो व्यक्ति मी प्रायः कृषि कार्य तथा कुटीर उद्योगों में, जबकि उत्पादन का पैमाना छोटा होता है, साधकों की संख्या कम होती है, क्योंकि एक ही साधक एक से अधिक उपादानों की पूर्ति कर देता है। किन्तु जब उत्पादन का पैमाना बड़ा होता है तो उत्पादन के पाँथों उपादानों की पूर्ति सामान्यतया पाँच पृथक्-पृथक् साधकों द्वारा की जाती है।
उत्पादन का महत्त्व (Importance of Production)
व्यक्ति तथा समाज दोनों की दृष्टि से उत्पादन का बहुत अधिक महत्व है। व्यक्ति का आर्थिक कल्याण तथा देश की आर्थिक प्रगति उत्पादन की मात्रा, किस्म, वितरण आदि पर निर्भर करती है। उत्पादन के महत्व को निम्न बातों से भली-भांति समझा जा सकता है-
(1) आवश्यकताओं की सन्तुष्टि- विभिन्न मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि वस्तुओं तथा सेवाओं के उपलब्ध होने पर निर्भर करती है। कोई व्यक्ति या तो स्वयं वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन करता है या फिर वह उन्हें दूसरों से खरीदता है। आधुनिक विशिष्टीकरण के युग में कोई भी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की सभी वस्तुओं का उत्पादन नहीं कर सकता। इसलिए वह मुद्रा के माध्यम से अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ तथा सेवाएँ खरीद लेता है। अतः विभिन्न वस्तुओं के समुचित उत्पादन पर ही मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि निर्भर करती है।
(2) आर्थिक समृद्धि का आधार- किसी देश की भौतिक समृद्धि वहाँ पर उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं की मात्रा पर निर्भर करती है। अन्य बातें समान रहने पर, जिस देश में जितना अधिक उत्पादन होता है वह उतना ही अधिक समृद्ध होता है। इसके विपरीत, जिस देश में उत्पादन की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है उसे गरीबी, बेकारी, आर्थिक विषमताएँ आदि विभिन्न गम्भीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
(3) उन्नत जीवन-स्तर का आधार-किसी देश के निवासियों का रहन-सहन का स्तर वहाँ के उत्पादन की मात्रा तथा गुण पर निर्भर करता है। विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के उत्पादन के समुचित मात्रा में होने पर लोगों का उपभोग-स्तर तथा रहन-सहन का स्तर उन्नत होता है। अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी आदि राष्ट्रों के निवासियों का जीवन स्तर मुख्यतः इसलिए उन्नत है, क्योंकि वहाँ विभिन्न प्रकार की उत्तम कोटि की वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन समुचित मात्रा में किया जा रहा है।
(4) व्यापार का आधार- किसी देश के आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार की मात्रा उत्पादन की मात्रा पर निर्भर करती है। यदि उत्पादन की मात्रा अधिक होगी तो बाजारों का विस्तार होने से व्यापार की मात्रा अधिक होगी। उत्पादन की कम मात्रा व्यापार को सीमित कर देती है।
(5) रोजगार-अवसरों में वृद्धि-देश-विदेश में विभिन्न वस्तुओं की माँग में वृद्धि होने पर निवेश में वृद्धि करके नए-नए कारखाने खोले जाते हैं जिससे रोजगार के अवसर बढ़ते हैं।
(6) आर्थिक नियोजन का आधार- विकास योजनाओं जैसे भारत की पंचवर्षीय योजनाओं में विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन लक्ष्य निर्धारित किए जाते हैं। उत्पादन लक्ष्यों की प्राप्ति के आधार पर ही किसी योजना की सफलता तथा असफलता का मूल्यांकन किया जाता है।
(7) राष्ट्रीय सुरक्षा का आधार- किसी देश में उत्पादन अधिक होने पर सरकार को विभिन्न करों के रूप में अधिक जाय प्राप्त होती है जिसे वह विकास तथा रक्षात्मक कार्यों पर व्यय कर सकती है। फिर, आधुनिक हथियार, लड़ाकू विमान आदि तैयार करने के लिए भी देश में पर्याप्त उत्पादन क्षमता होनी चाहिए।
(8) सरकारी आय में वृद्धि – जाधुनिक सरकारें विभिन्न वस्तुओं पर उत्पादन कर लगाकर पर्याप्त आय प्राप्त करती हैं। उत्पादन की मात्रा जितनी अधिक होती है, सरकार को करों के रूप में उतनी ही अधिक आय प्राप्त होती है।
(9) उपभोग के स्वरूप तथा मात्रा में वृद्धि-आधुनिक बाजार संयंत्र (market mechanism) के अन्तर्गत उत्पादकों द्वारा बिना माँग के भी नई-नई वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। निरन्तर विज्ञापन तथा प्रचार के माध्यम से उपभोक्ताओं को नई नई वस्तुओं की उपयोगिता के बारे में जानकारी दी जाती है। इससे नई-नई वस्तुओं के लिए माँग उत्पन्न होने से देश में उपभोग के स्वरूप तथा परिमाण दोनों में वृद्धि होती है। उदाहरणार्थ, कुछ वर्ष पूर्व कम्प्यूटर तथा फैक्स मशीन अस्तित्व में ही नहीं थीं, किन्तु आज इनकी माँग विश्वव्यापी है।
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