उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध की पद्धति अथवा विभिन्न चरण (Steps of Management by Objectives Process)
उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध की पद्धति के अन्तर्गत क्रमानुसार उठाये जाने वाले प्राथमिक कदम निम्नलिखित हैं-
(1) संस्था के लक्ष्यों को परिभाषित एवं निर्धारित करना— उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध पद्धति के अन्तर्गत उठाया जाने वाला सबसे पहला कदम संस्था के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की व्यापक रूप में परिभाषा किया जाना है। ये उद्देश्य एवं लक्ष्य व्यापक, सामान्य, दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन होने चाहिए। केवल यह कह देना कि इनका लक्ष्य लाभ कमाना है, पर्याप्त नहीं है। संस्था के लक्ष्य एवं उद्देश्यों सम्बन्धी कथन में यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि — (i) उसकी उत्पादन क्षमता क्या है ? (ii) कितने समय तक इन लक्ष्यों के रहने की सम्भावना है ? (iii) कितने बड़े आर्थिक या सामाजिक क्षेत्र में संस्था कार्य करेगी ? (iv) प्रबन्धकगण विनियोग पर कितने लाभ की अपेक्षा करता हैं। (v) कौन-सी सीमाओं में संस्था अपने कार्यों में परिवर्तन कर सकेगी ? (vi) तकनीकी प्रगति तथा कार्यकुशलता के सम्बन्ध में संस्था की क्या नीति होगी ? (vii) ग्राहकों और समाज के प्रति संस्था का क्या रुख होगा।
उपरोक्त लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के निर्धारण का कार्य उच्च प्रबन्ध का है। इसका कारण यह है कि यही लोग इसी स्थिति में होते हैं कि यह ज्ञात कर सकें कि कितनी अवधि में तथा विभिन्न व्यूह रचनाओं द्वारा संस्था की – आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकेगी। जैसे ही इन लक्ष्यों एवं उद्देश्यों का निर्धारण हो जाय इनकी जानकारी तुरन्त संगठन के प्रत्येक सदस्य को कर देनी चाहिए। इस प्रकार संगठन के प्रत्येक सदस्य को संस्था के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की व्यापक किन्तु स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए ताकि सभी अपनी क्रियाओं को समान दिशा में निर्देशन कर सकें।
(2) प्रत्येक इकाई के लिए उप-लक्ष्य- संस्था के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों का निर्धारण हो जाने के पश्चात् उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध विधि के अन्तर्गत उठाया जाने वाला दूसरा महत्वपूर्ण कदम संस्था की प्रत्येक इकाई एवं उप इकाई के लिए छोटी अवधि (अल्पकालीन) वाले लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को निर्धारण किया जाना है ताकि प्रत्येक खण्ड, विभाग एवं शाखा को यह ज्ञात हो जाय कि उस उक्त निर्धारित अवधि में क्या प्राप्त करना है। ये उप-लक्ष्य प्रत्येक इकाई के लिए निष्पादन लक्ष्यों का कार्य करेंगे। इन को स्पष्टीकरण इस प्रकार से किया जाए कि वे संस्था के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हों।
(3) व्यक्तिगत प्रबन्ध के उद्देश्य या लक्ष्य- उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध विधि के अन्तर्गत उठाया जाने वाला तीसरा कदम प्रत्येक स्तर पर व्यक्तिगत आधार पर उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को निर्धारित किया जाना है। जहाँ तक सम्भव हो सके निम्न स्तर पर लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को परिमाणात्मक इकाइयों (Quantitative Units) में व्यक्त किया जाना चाहिए। ये लक्ष्य एवं उद्देश्य उच्च तथा सहायक प्रबन्धकों के मध्य सहभागिता तथा स्वतन्त्र एवं उदार वार्तालाप के द्वारा निश्चित किये जाने चाहिए। पीटर एफ, ड्रकर के शब्दों में, “प्रत्येक इकाई के सम्पूर्ण संगठन में मस्तिष्कों की सभा होनी चाहिए।” इन लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक प्रबन्धक को अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों का प्रत्यायोजन होना चाहिए ताकि उनके पास निर्धारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिये पर्याप्त साधन एवं अधिकार हो ।
(4) प्रत्येक प्रबन्धक को लक्ष्यों, उद्देश्यों एवं साधनों का विवरण-पत्र देना- जब उच्च, मध्य तथा निम्नवर्गीय प्रबन्ध के लक्ष्यों, उद्देश्यों तथा साधनों के विभाजन के सम्बन्ध में सहमति हो जाती है तब इनका एक व्यापक विवरण-पत्र तैयार किया जाता है और इसे सम्बन्धित प्रबन्धक को दे दिया जाता है।
(5) नियंत्रण व्यवस्था लागू करना – उपरोक्त कार्य पूरा हो जाने के पश्चात् जब उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध का कार्य प्रारम्भ हो जाता है तब उस समय होने वाले कार्य को उचित जाँच के लिए नियन्त्रण व्यवस्था की स्थापन की जाती है जो देख-रेख का कार्य सम्पन्न करती है। यदि कार्यों में लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की तुलना में अत्यधिक भिन्नता पाई जाती है तो कार्यों में नियन्त्रण व्यवस्था द्वारा तत्काल सुधार किया जाता है ताकि लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के अनुसार ही सम्पन्न हो ।
(6) सामयिक सभायें – उपरोक्त कार्य पूरा हो जाने के पश्चात् उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध विधि के अन्तर्गत उठाया जाने वाला अगला कदम समय-समय पर संस्था की प्रगति पर विचार करने के लिए अधिकारियों एवं अधीनस्थों की सामूहिक सभाओं का आयोजन किया जाता है। इसमें इस बात पर विचार-विमर्श किया जाता है कि निर्धारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को कहाँ तक प्राप्त कर लिया गया है तथा यदि किसी प्रकार की कठिनाई आ रही हो तो उसे दूर किया जाता है।
(7) परिणामों का मूल्यांकन तथा लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की समीक्षा— उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध विधि के अन्तर्गत उठाया जाने वाला अन्तिम महत्वपूर्ण कदम निर्धारित अवधि के पश्चात् निर्धारित प्रमापों एवं लक्ष्य की तुलना में अब तक की गई प्रगति एवं परिणामों का मूल्यांकन करना तथा लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की समीक्षा किया जाना है। इस कदम के अन्तर्गत यह पता लगाया जाता है कि संस्था, इकाई तथा प्रबन्धक के स्तर पर उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को कहाँ तक पूरा किया गया है और अब तक के अनुभव के स्तर पर उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को कहाँ तक पूरा किया गया है और अब तक के अनुभवों के आधार पर आगे के लिए व्यवस्था में किस प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता तो नहीं है। आधुनिक प्रबन्धक यह जानते हैं कि वे एक गतिशील विश्व में रह रहे हैं जहाँ पर बड़ी तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। अतः ऐसी परिस्थितियों में उच्च प्रबन्धकों के लिए यह परम आवश्यक है कि वे एक निर्धारित अवधि के पश्चात् अपने लक्ष्यों एवं उद्देश्यों का मूल्यांकन करें तथा बदलती हुई परिस्थतियों के अनुकूल उनके संशोधन करते रहें।
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