उपन्यास किसे कहते हैं? उपन्यास के तत्वों की विवेचना कीजिए।
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उपन्यास का अर्थ
उपन्यास दो शब्दों से मिलकर बना- उप… + न्यास। ‘उप’ के अर्थ है- ‘समीप’ और न्यास का अर्थ है- रखना। इसमें लेखक अपने मन की बात पाठकों के समीप रखता है। लेकिन हिन्दी में उपन्यास शब्द उपन्यासः प्रसादन एवं अंग्रेजी नावेल के पर्याप्त का वाचक बनकर प्रयुक्त हो रहा है। अंग्रेजी में उपन्यास शब्द इटैलियन भाषा के नाविल’ पर्याय के रूप में प्रयोग होता है जिसका अर्थ है-सूचना। उपन्यास की परिभाषा: विद्वानों द्वारा उपन्यास की प्रमुख परिभाषायें निम्न हैं।
(1) शिप्ले महोदयः- “नाविल (उपन्यास) शब्द से एक नवीन प्रकार का प्रकथ्थन प्रधान रचना का बोध होता है जिसमें आधुनिकता एवं सत्य दोनों की प्रतिष्ठा पाई जाती है।”
(2 ) अज्ञेय- “उपन्यास व्यक्ति के अपनी परिस्थितियों के साथ सम्बन्ध अभिव्यक्ति के उत्तरोत्तर विकास का प्रतिनिधित्व करता है। “
(3) डा. गोविन्द त्रिगुणायत- “उपन्यास मानव जीवन का वह स्वच्छ और यथार्थ गद्यमय चित्र है जिसमें मानव मन के प्रसाधन की अद्भुत क्षमता है। उपन्यासकार यह कार्य सफल चरित्र चित्रण के सहारे करता है। “
(4) बेकर अर्नेस्ट ए०- “उपन्यास को हम गद्यमय कल्पित आख्यान के माध्यम से की गयी जीवन की व्याख्या कह सकते है।’
(5) एडिथ हार्टन- “उपन्यास एक ऐसी कल्पित आख्या है जिसमें सुन्दर कथानक एवं भली प्रकार चित्रित पात्र होते हैं।”
(6) प्रेमचन्द- “मै उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मानता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है।”
उपन्यास के तत्व
पाश्चात्य विद्वान विलियम हेनरी हडसन के अनुसार उपन्यास के प्रमुख तत्व निम्न होते है- (1) कथावस्तु (कथानक) (2) पात्र या चरित्र-चित्रण (3) कथोपकथन अथवा संवाद (4) देशकाल (वातावरण) (5) भाषा-शैली (6) उददेश्य
(1) कथानक अथवा कथावस्तुः- उपन्यास की मूल कहानी कथानक या कथावस्तु कहलाती है। कथानक उपन्यास का प्राण तत्व है। उपन्यास की कथावस्तु जीवन, के उपन्यास होते हुए भी उसमें कल्पना का ही तत्व अधिक होता है। उपन्यासकार कथावस्तु का चयन कहाँ से करता है यही उसकी क्षमता का परिचायक है। उपन्यास की सफलता और असफलता इसी पर निर्भर करती है। कथानक का चयन करते समय उपन्यासकार कथानक विशेष में तीन बातों का ध्यान रखता है। (1) कौतुहल (2) विश्वसनियता तथा (3) सम्बद्धता |
उपन्यास का मूल कथानक एक माला के समान होता है जिसमें प्रत्येक घटना मोती के समान अपना महत्व रखती है। इसलिए उपन्यास की सभी घटनायें एक-दूसरे से सम्बद्ध रहनी चाहिए तभी पाठकों में कौतूहलता बनी रह पाती है।
(2) पात्र या चरित्र चित्रण:- उपन्यास में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण तत्व पात्र या चरित्र’ चित्रण होता है। पात्र ही उपन्यास की कथावस्तु के निर्वाहक होते हैं उपन्यास के पात्रों का वर्गीकरण दो प्रकार से हो सकता है-
1. कथानक की दृष्टि से एवं 2. चरित्र की दृष्टि से ।
कथानक की दृष्टि से पात्र प्रकार के हो सकते हैं- (1) प्रधान पात्र एवं (2) गौड़ पात्र और चरित्र की दृष्टि से प्रधान पात्रों के चार उपभेद हैं-
1. नायक- नायिका (धीरोदात्त, धीरललित, धीरोद्धात, धीरप्रशांत)
2. प्रतिनायक- प्रतिनायिका -खलनायक- खलनायिका।
3. पताका नायक-पताका नायिका सहायक सहनायिका।
(3) कथोपकथन अथवा संवादः उपन्यास में संवाद या कथोपकथन की भी आवश्यकता पड़ती है। यह कथानक के विकास और पात्रों के चरित्र’ चित्रण में भी सहायक सिद्ध होता है। पात्रों के भाव-विचार क्रिया प्रतिक्रियाओं के व्यक्तीकरण एवं मानव मन के अर्थात पात्रों के चरित्र, उसके संवाद पात्रानुकूल होते हैं। जयशंकर प्रसाद के कंकाल, तितली, इरावती ऐसे ही संवाद प्रधान उपन्यास हैं। प्रेमचन्द्र के संवादों की यह विशेषता है कि मौलवी जहाँ अपनी भाषा में उर्दू का प्रयोग करता है वहीं पण्डित संस्कृतमय भाषा का प्रयोग करता है।
(4) देशकाल (वातावरण ): उपन्यास में देशकाल से तात्पर्य उस देश (स्थान) और समय से हैं। इसे हम वातावरण का नाम भी देते हैं। मानव मन को बिना उसके देशकाल में जाने उसकी क्रिया प्रतिक्रियाओं का वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। इसलिए उस देशकाल के सन्दर्भ में ही परखना बहुत आवश्यक होता है। उपन्यासकार को चाहिए कि अपने उपन्यास में जिस देशकाल एवं वातावरण के कथानक को वह प्रस्तुत कर रहा हो उसी देशकाल एवं वातावरण की धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों को प्रस्तुत करे अर्थात् उपन्यास का कथानक देशकाल एवं वातावरण के समसामयिक हो। समसामयिकता के अभाव में कथानक अविश्वासनीय लगता है।
(5) भाषा- शैली उपन्यास में भाषा शैली का बहुत महत्व होता है। उपन्यास की रोचकता भाषा शैली की रोचकता पर निर्भर करती है। अतः भाषा शैली का रोचक होना जरूरी है। प्रसिद्ध आलोचक वफन का कहना हैं कि Style is the man himself अर्थात उपन्यासकार स्वयं को ही अपनी भाषा के रूप में प्रस्तुत करता है। उपन्यासकार प्रायः जिन शैली रूपों, घटनाओं की अभिव्यक्ति करता है वे है-
1. वर्णनात्मक शैली- चन्द्रकांता संतति (देवकी नन्दन खत्री )
2. कथात्मक शैली- गोदान (प्रेमचन्द्र )
3. आत्मकथात्मक शैली- त्यागपत्र (जैनेन्द्र ) ।
4. पत्र शैली- चन्द्र हसीनों के खतूत- पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ।
भाषा प्रायः पात्रानुरूप होती है, विषयानुरूप होती है एवं घटनानुरूप होती है, देशकालानुरूप होती है। उपन्यासकार पात्रों के अनुरूप की भाषा का प्रयोग उसका वर्ण्य विषय होता है। उसके अनुरूप भाषा का प्रयोग करता है और जैसा कथानक हो, उसके अनुरूप भाषा प्रयोग करता है। भाषा के सन्दर्भ में सबसे अधिक विचारणीय भाषा का देशकाल, सापेक्षता इस दृष्टि से बहुत सशक्त उपन्यासकार कामरेड यशपाल है, जिनके ‘झूठा सच’ की भाषा ‘दिव्या’ से बिल्कुल अलग हैं।
( 6 ) उद्देश्यः प्रत्येक उपन्यासकार का उपन्यास लिखने का कोई उद्देश्य अवश्य होता है। पाठकों के मनोरंजन के साथ ही प्रेमालाप अथवा, भ्रष्टचार, गरीबी, का दुष्चक्र जातिवाद, ‘साम्प्रदायिकता का जहर’ नारी पर अत्याचार’ आदि को प्रदर्शित करना उपन्यास का उद्देश्य हो सकता है। कुछ उपन्यास का उद्देश्य समाज का उत्थान होता है। उपन्यास के सृजन का उद्देश्य सदैव महान होना चाहिए जिससे समाज और मानव को अच्छे कार्यों हेतु प्रेरित किया जा सकें।
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