तुलसी का काव्य लोकसमन्वय की विराट चेष्टा का प्रतिफलन है। इस कथन की पुष्टि कीजिए।
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘लोकनायक तुलसी के विषय में कहा है कि लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय जनता में नाना प्रकार की परम्परा विरोधी संस्कृतियाँ, साधनायें, जातियां, आचार, निष्ठा और विचार पद्धतियां प्रचलित हैं, तुलसी ने अपने युग को परख लिया था उन्होंने यह माना कि युग में परिवर्तन होने ही युग धर्म भी बदल जाता है। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि प्राचीन में सुन्दर है जो उसका समन्वय हो, इसलिए तुलसी एक श्रेष्ठ समन्वयकारी कवि थे। उनका कहना है कि हर व्यक्ति, हर प्राणी की पीड़ा को दूर करना ही अपना धर्म समझता है। समाज के लिए समर्पित ऐसे व्यक्ति लोकनायक कहे गये।
गोस्वामी तुलसीदास प्रारम्भ से कहते हैं:
“कीराति भनिति भति भलिसोई।
सुरसरि सम सबु कर हित होई॥
पर पीड़ा को अधमाई मानने वाले गोस्वामी तुलसीदास ने राम के रूप में ऐसे स्वरूप का वर्णन किया जिसका उद्देश्य केवल लोक का उद्धार था। जाति, वर्ण, धर्म, राष्ट्र के भेद को मिटाकर तुलसी के राम पर-पीड़ा दूर करने में तत्पर रहे। उनके जीवन में चाहे जितने संकट आये उन्होंने लोकोद्धार के संकल्प का परित्याग नहीं किया। तुलसी की एक लोकोद्धार छवि ही उन्हें लोकनायक सिद्ध करती है। तुलसी के काव्य में संघर्ष और कलह के स्थान पर सामाजिक समरसता के सिद्धान्त को सर्वोपरि माना गया है। इसीलिये जार्ज ग्रियर्सन ने तुलसी को लोकनायक कहा है।
तुलसीदास का युग विरोधाभासों का युग था। जीवन के हर क्षेत्र में विसंगतियाँ व्याप्त थीं। हिन्दू धर्म में संतों एवं भक्तों के आविर्भाव के बावजूद नाना पंथ प्रचलित हो रहे सामाजिक सद्भाव का अभाव था। साहित्य एवं कला के क्षेत्र में भी विसंगतियाँ विद्यमान थीं। ऐसे युग में हिन्दू समाज छिन्न-भिन्न हो रहा था। आवश्यकता थी एक अनुशासन की। समाज रूढ़िबद्ध होने के कारण अनुशासन तो स्थापित किया लेकिन उनका अनुशासन पर आधारित न होकर समन्वय पर केन्द्रित था। उन्होंने विरोधाभासों को मिटाकर उनके उदात्त को स्वीकार किया और समन्वय पर बल दिया। निर्गुण-सगुण के परम्परित विवाद को उन्होंने एक सिक्के के दो पहलू सिद्ध कर विराम दिया। नाना पक्षों और मतों को राह बताकर लक्ष्य एक बताया। भाषा विरोध सिद्ध किया। उनमें उन सबसे परे और उन सबसे व्याप्त है। इस प्रकार गोस्वामीजी ने सिद्धान्तों का विरोध न कर उन्हें एकता के सूत्र में संग्रहित किया। समन्वय की यह विराट चेष्टा और सम्पूर्ण जगत् में सीताराम की व्याप्ति ही तुलसी का संदेश है।
1- राजनीतिक क्षेत्र में समन्वय-
‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
सो नृप अवसि नरक अधिकारी ॥ “
2- प्रजा का आदर्श-
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुँहि व्यापा ||
3. साधना ज्ञान एवं भक्ति में समन्वय-
‘ज्ञानहिं भक्तहिं नहिं कछु भेदा ।
उभय हरहिं भव सम्भव खेदा ||
4. धार्मिक समन्वय-
शिवद्रोही मम दास कहावा । सो नर मोहिं सपनेहुँ नहि भावा।
संकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोहि मम दास।
सो नर करँऊ कलप भरि, घोर नरक महुँ बास ॥”
इसके साथ ही तुलसी ने जो जीव जगत् ईश्वर माया आदि से सम्बन्धित विचार व्यक्त किये हैं उनमें भी उनका समन्वयवादी दृष्टिकोण ज्ञात होता है। इसी प्रकार संस्कृत, ब्रज और अवधी भाषाओं में प्रबन्ध और मुक्तक दोनों काव्य रूपों की रचना करके तुलसी ने साहित्यिक समन्वय का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है।
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