दोहरा लेखा प्रणाली से आप क्या समझते हैं? इनके मुख्य गुण-दोष का संक्षेप के वर्णन कीजिये?
द्वि-प्रविष्टि प्रणाली (Double Entry System)– सामान्य शब्दों में, “द्वि-प्रविष्टि प्रणाली प्रत्येक व्यवहार के दोहरे प्रभाव को उल्लेखित करने की विधि है।”
विलियम विकिल्स के अनुसार, “द्वि-प्रविष्टि प्रणाली में मुद्रा अथवा मुद्रा के रूप में व्यक्त प्रत्येक व्यवहार को दोहरे पहलू से लिखा जाता एक खाता लाभ प्राप्त करता है तथा दूसरा खाता उसी लाभ का समर्पण करता है प्राप्त करने वाले खाते को नाम या डेबिट किया जाता है, तत्पश्चात् देने वाले खाते को जमा या क्रेडिट किया जाता है।
जे. आर. बाटलीबॉय के अनुसार, प्रत्येक व्यापारिक व्यवहार का दोहरा प्रभाव होता है और यह दो खातों को विपरीत दिशा में प्रभावित करता है। अतः यदि किसी व्यवहार का पूर्ण लेखा रखा जाए तो यह आवश्यक होगा कि एक खाते को डेबिट (विकलित) तथा दूसरे खाते को क्रेडिट (समाकलित) किया जाए। प्रत्येक व्यवहार के इस दोहरे प्रभाव के लेखन ने ही “द्वि-प्रविष्टि” शब्द को जन्म दिया।”
एम. जे. केलर के अनुसार, “एक उपक्रम से लेखांकन की सबसे अधिक लोकप्रिय एवं सामान्य पद्धति द्वि-प्रविष्टि पद्धति है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है इसमें प्रत्येक सौदे के लिए की गयी प्रविष्टि के दो भाग होते हैं-एक डेबिट और दूसरा क्रेडिट ।”
डोनेल्ड एच. मैकेन्जी के अनुसार, “द्वि-प्रविष्टि प्रणाली में प्रत्येक व्यवहार के लिए समान डेबिट (नामे/ऋणी) और केडिट (जमा/धनी होते हैं। यह सम्पत्तियों, देयताओं, स्वामित्व आय या व्यय को प्रभावित करने के लिए प्रत्येक व्यवहार के दोहरे प्रभावों पर आधारित है।”
आर.एन. कार्टर के अनुसार, द्वि-प्रविष्टि प्रणाली पुस्तपालन की वह प्रणाली है। जिसमें व्यक्तिगत एवं अव्यक्तिगत दोनों ही प्रकार के खातों द्वारा लेखा किया जाता है।”
निष्कर्ष (Conclusion)- उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि “द्वि-प्रविष्टि प्रणाली से आशय लेखाकर्म की उस प्रणाली से है जिसमें प्रत्येक सौंद के दो रूपों में से एक रूप को डेबिट (नामे/ऋणी) तथा दूसरे रूप को क्रेडिट (जमा/धनी) कुछ निश्चित नियमों के आधार पर किया जाता है।”
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द्वि-प्रविष्टि प्रणाली के गुण (Merits)
(1) पूर्ण विवरण- इस प्रणाली में प्रत्येक वित्तीय व्यवहार का उल्लेख उससे सम्बन्धित दो खातों में पृथक्-पृथक् रूप से किया जाता है जिससे प्रत्येक व्यवहार का पूर्ण विवरण दिया जा सकता है।
(2) व्यवसाय से सम्बन्धित प्रमुख सूचनाओं का ज्ञान- द्वि-प्रविष्टि प्रणाली में व्यक्तिगत खातों के साथ-साथ वास्तविक एवं आय-व्यय से सम्बन्धित खाते भी रखे जाते हैं। इससे व्यवसाय में लगी पूँजी, सम्पत्तियों तथा व्यवसाय सम्बन्धी दायित्वों की जानकारी सरलतापूर्वक प्राप्त की जा सकती है।
(3) गणितीय शुद्धता की जाँच- इस प्रणाली में प्रत्येक डेबिट (नामे) की क्रेडिट (जमा) प्रविष्टि की जाती है जिससे गणितीय शुद्धता की जाँच तलपट (परीक्षा-सूची) तैयार कर को जा सकती है।
(4) जालसाजी एवं कपट की कम सम्भावना – प्रत्येक व्यवहार के दोहरे उल्लेख से इस प्रणाली में जालसाजी एवं कपट की सम्भावना कम होती है। जालसाजी एवं कपट होने पर उसे सरलतापूर्वक ढूँढ़ा जा सकता है।
(5) लाभ-हानि की जानकारी- इस प्रणाली द्वारा एक निश्चित अवधि के अन्त में लाभ-हानि खाता तैयार कर लाभ अथवा हानि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
(6) व्यवसाय की आर्थिक स्थिति की जानकारी- इस प्रणाली में किसी निश्चित तिथि पर चिट्ठा (स्थिति-विवरण) तैयार कर व्यवसाय की वित्तीय स्थिति की जानकारी सरलतापूर्वक प्राप्त की जा सकती है।
(7) तुलनात्मक अध्ययन द्वारा उपयोगी निष्कर्ष- इस प्रणाली द्वारा तैयार किये गये चालू वर्ष के व्यापार एवं लाभ-हानि खाते तथा चिट्ठे (स्थिति विवरण) की तुलना गत वर्षों से सम्बन्धित व्यापार एवं लाभ-हानि खाते तथा चिट्ठे (स्थिति विवरण) से कर महत्वपूर्ण उपयोगी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
(8) अन्य लाभ- इस प्रणाली के अन्य लाभ निम्नानुसार हैं-
(i) व्यवसाय की वास्तविक स्थिति का ज्ञान सरलतापूर्वक सम्भव होने से यह प्रणाली व्यवसाय की ख्याति के निर्धारण, ऋण लेने तथा व्यवसाय के क्रय-विक्रय में सहायक होती है।
(ii) पुस्तपालन की वैज्ञानिक प्रणाली होने के कारण यह प्रणाली व्यावसायिक विवादों को हल करने में सहायक होती है।
(iii) वैधानिक मान्यता के कारण इस प्रणाली से कर निर्धारण सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
(iv) यह प्रणाली दिवालिया घोषित होने में उपयोगी होती है।
(v) यह प्रणाली साझेदारी फर्म में साझेदार के प्रवेश करने, अवकाश ग्रहण करने अथवा फर्म के विघटन पर हिसाब-किताब के निपटारे में सहायक होती है।
द्वि-प्रविष्टि प्रणाली के दोष एवं सीमाएँ (Demerits & Limitations of Double Entry System)
(1) नियमों के पालन में कठिनाई- इस प्रणाली में डेबिट (नामे) एवं क्रेडिट (जमा) सम्बन्धी नियमों को क्रियाशील करना अत्यन्त कठिन होता है।
(2) त्रुटियों की सम्भावना- यह प्रणाली यद्यपि पूर्ण वैज्ञानिक है किन्तु फिर भी लेखा पुस्तकों में गलतियों एवं त्रुटियों की सम्भावना बनी रहती है।
(3) भ्रमपूर्ण निष्कर्ष- इस प्रणाली में सिद्धान्तों का पूर्णतः पालन करना अनिवार्य होता है। सिद्धान्तों में थोड़ी-सी भूल भ्रामक निष्कर्ष प्रदान करती है।
(4) खर्चीली प्रणाली- यह प्रणाली छोटे व्यापारियों के लिए अधिक खर्चीली है।
(5) योग्य कर्मचारियों की आवश्यकता- इस प्रणाली में पूर्ण दक्षता प्राप्त करने के लिए शिक्षा, प्रशिक्षण एवं व्यावहारिक ज्ञान आवश्यक होता है।
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