आधुनिक समय में विद्यालय का कार्यक्षेत्र समयबद्ध पठन-पाठन के सीमित घेरे से निकलकर एक व्यापक रूप धारण कर चुका है एवं इसमें निरन्तर वृद्धि भी होती जा रही है जिसके कारण इसकी सीमाएँ निश्चित कर पाना बहुत कठिन होता जा रहा है। चूँकि विद्यालयों में आयोजित की जाने वाली समस्त क्रियाएँ पाठ्यचर्या का ही अंग होती हैं। इसलिए पाठ्यचर्या के क्षेत्र का निर्धारण करना अत्यन्त कठिन कार्य है फिर भी विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने पाठ्यचर्या को उसके अन्तर्गत सम्पादित किए जाने वाले कार्यों के आधार पर सीमांकित करने का प्रयास किया है जो इस प्रकार हैं-
1) लक्ष्यों एवं उद्देश्यों का निर्धारण – जिस प्रकार शिक्षा के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाता है ठीक उसी प्रकार पाठ्यचर्या छात्रों के लिए कुछ निश्चित उद्देश्यों का निर्धारण भी करता है एवं उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए बालकों को प्रेरित करता है।
2) बालकों के संज्ञानात्मक विकास का पोषण- पाठ्यचर्या का उद्देश्य बालकों का सर्वांगीण विकास एवं ज्ञानवर्द्धन करना भी होता है एवं वह बालकों को विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्रदान करके उनका संज्ञानात्मक विकास करता है।
3) बालकों के मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य संवर्द्धन- मानव एक सामाजिक प्राणी है एवं समाज में रहते हुए उसे कुछ अधिकारों का उपयोग तथा कर्त्तव्यों का निर्वहन करना पड़ता है। इसके अलावा एक बालक पूर्ण रूप से स्वस्थ तभी माना जाता है जब वह मानसिक तथा मनोवैज्ञानिक रूप से सुदृढ़ हो।
4) शैक्षणिक स्रोतों का उपयोग- पाठ्यचर्या मात्र बालकों को अधिगम के लिए व्यवस्था ही नहीं प्रदान करता अपितु बालकों को विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्रदान करने हेतु अनेकों शैक्षणिक स्रोतों का भी उपयोग करता है तथा अनेकों पुरातन शैक्षिक अभिलेखों में से बालकों के लिए उपयोगी विषय-वस्तु प्रदान करता है।
5) अधिगम हेतु व्यवस्था- अधिगम एक जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। जिस प्रकार स्थिर (ठहरे हुए) पानी में विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ एवं गन्दगी पनपने लगती हैं, उसी प्रकार जब व्यक्ति अधिगम कार्य बन्द कर देता है तो उसमें भी रूदिबद्धता आ जाती है। इस प्रकार पाठ्यचर्या समय-समय पर बालकों को नवीन तथा विभिन्न प्रकार के अधिगम हेतु सुविधा प्रदान करता है।
6) नवीन प्रवृत्तियों का साहचर्य – पाठ्यचर्या एक व्यापक अवधारणा का रूप लेती जा रही है। अतः वर्तमान समय में प्रचलन में आने वाली अनेक नवीन प्रवृत्तियों का साहचर्य भी इसके क्षेत्र में आता है।
7) समस्त कार्यक्रमों एवं बालकों के कार्यों का मूल्यांकन- जैसा कि हम जानते हैं कि पाठ्यचर्या विषय-वस्तुओं का समावेश मात्र न होकर विभिन्न क्रियाओं एवं कार्यकलापों का भी समन्वय है। पाठ्यचर्या बालकों को ज्ञान प्रदान करने के साथ ही साथ उनके कार्यों तथा अन्य समस्त कार्यक्रमों का मूल्यांकन भी करता है।
8) छात्रों का व्यक्तिगत बोध एवं उनके अनुरूप शिक्षण – पाठ्यचर्या द्वारा बालकों का वैयक्तिक विकास तथा ज्ञानवर्द्धन किया जाता है। प्रत्येक बालक की अभिरुचियाँ व क्षमताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं तथा पाठ्यचर्या प्रत्येक छात्र के व्यक्तिगत बोध के अनुरूप ही शिक्षण व्यवस्था प्रदान करता है।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि वास्तव में पाठ्यचर्या का कार्यक्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। विद्यालय में रहते हुए छात्र जो भी क्रियाएँ करते हैं वे पाठ्यसहगामी क्रियाएँ कहलाती हैं एवं जो अभिरुचि की पूर्ति से सम्बन्धित कार्य करते हैं, उन प्रवृत्तियों के आधार पर ही पाठ्यचर्या का क्षेत्र विस्तृत होता चला जाता है।
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