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पाठ्यचर्या का विकास एवं प्रकृति | Development and Nature of Curriculum in Hindi

पाठ्यचर्या का विकास एवं प्रकृति | Development and Nature of Curriculum in Hindi
पाठ्यचर्या का विकास एवं प्रकृति | Development and Nature of Curriculum in Hindi

पाठ्यचर्या का विकास एवं प्रकृति (Development and Nature of Curriculum)

पाठ्यचर्या एक ऐसा अवयव है जो सदैव अपूर्ण ही रहता है क्योंकि पाठ्यचर्या का विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया या कभी न समाप्त होने वाली प्रक्रिया है। इसलिए इसका उद्भव काल जानना भी कठिन है। जिस प्रकार शिक्षण का परिणाम छात्रों की उपलब्धियों एवं उनके अधिगम स्तर से जाना जाता है। उसी प्रकार उद्देश्यों की प्राप्ति का मूल्यांकन छात्रों के व्यावहारिक बदलाव के आधार पर किया जाता है। इस प्रक्रिया को निम्नांकित चक्रव्यूह के आधार पर समझा जा सकता है।

प्रतिक्रिया ⇔ शिक्षण के उद्देश्य ⇔ शिक्षण के माध्यम ⇔ परीक्षा प्रणाली

शिक्षा का इतिहास हमें बताता है कि समय-समय पर पाठ्यचर्या की प्रकृति कैसी रही है? कभी पाठ्यचर्या संकीर्ण रही है तो कभी पाठ्यचर्या व्यापक रही है। इसका स्वरूप या प्रकृ ति सदैव परिवर्तित होती रही है। पाठ्यचर्या स्वयं में कई तत्त्वों को समेट लेती है। पाठ्यचर्या किसी भी देश का भविष्य हो सकती है, किसी विद्वान का विचार हो सकती है या पाठ्यचर्या आवश्यकता भी हो सकती है।

पाठ्यचर्या ने समय के साथ-साथ स्वयं में परिवर्तन किया है। प्राचीन काल में पाठ्यचर्या की प्रकृति सामान्य रूप से संकीर्ण थी जिसमें कुछ विशेष वर्गों को उनकी जाति अथवा धर्म के अनुसार शिक्षा दी जाती थी। मध्यकाल में पाठ्यचर्या अत्यन्त संकीर्ण हो गयी थी। उस समय पाठ्यचर्या एक गौण वस्तु थी। कुछ धार्मिक पाठ्यवस्तु के अतिरिक्त शिक्षा शून्य थी किन्तु आधुनिक काल में पाठ्यचर्या में विराट और आमूल-चूल परिवर्तन हुए। विशेषकर ब्रिटिश सत्ता ने पाठ्यचर्या में बहुत सीमा तक परिवर्तन किया तथा हमारे भारतीय शिक्षाविदों, महापुरुषों आदि ने पाठ्यचर्या को एक सुन्दर, नवीन तथा आवश्यकतानुकूल रूप प्रदान किया। इसे उपयोगी तथा परिणाम प्रदाता बनाया। इसमें ज्ञान के साथ-साथ विज्ञान, आधुनिकता, तकनीकी आदि को सम्मिलित किया। पाठ्यचर्या की प्रकृति परिवर्तनशील रही है। वर्तमान में इसमें समाजोपयोगी तत्त्व शामिल रहते हैं। वर्तमान में पाठ्यचर्या का स्वरूप और अधिक विस्तृत रूप में सामने आया है। इसमें व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक की क्रियाओं का चिन्तन तथा मनन किया गया है तथा शिक्षार्थी के वे सभी अनुभव, जिन्हें वह कक्षा, प्रयोगशाला, खेल का मैदान, पुस्तकालय, पाठ्येत्तर क्रियाओं द्वारा प्राप्त करता है, समाहित होते हैं अर्थात् पाठ्यचर्या की प्रकृति में वे सभी अनुभव सम्मिलित होते हैं, जो विद्यालय में शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।

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Anjali Yadav

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