प्रबन्ध की विभिन्न सीमाओं को समझाइये।
प्रबन्ध की विभिन्न सीमाएँ (Limitation of Management)
प्रबन्ध किसी भी समस्या के समाधान की रामबाण औषधि नहीं है। वास्तव में यह सामाजिक विज्ञान है। जो कुछ मान्यताओं पर आधारित है। विभिन्न बातों को लेकर प्रबन्ध की आलोचना की जाती है। इन्हीं आलोचनाओं को हम प्रबन्ध की सीमाएँ कह सकते हैं-
(1) प्रबन्ध के सिद्धान्तों की परिवर्तनशीलता- प्रबन्ध के सिद्धान्त हमेशा के लिए स्थायी नहीं होते, परिस्थितियों के अनुरूप उनमें परिवर्तन करने की आवश्यकता महसूस की जाती है। सरकार की नीतियों, ग्राहकों की रुचियों तथा नवीन तकनीकों का आविष्कार होने से प्रबन्ध के पुराने सिद्धान्त बेकार हो जाते हैं और शीघ्रता से उनमें परिवर्तन करना पड़ता है। अतः प्रबन्ध की आलोचना का यह भी एक प्रमुख आधार है ।
(2) नौकरशाही के दोष सामने आना- प्रबन्ध के कारण नौकारशाही के दोष सामने आते हैं, जैसे ऊँच-नीच की भावना, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, वर्ग भेद आदि। इस सम्बन्ध में रिचर्ड टिटमस का कहना है कि, “आर्थिक सत्ता का केन्द्रीयकरण कुछ ऐसे व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित हो जाता है जो कि बड़े उपक्रमों के शीर्ष प्रबन्ध में सम्मिलित हो तथा ऐसे लोगों को पेशेवर विशेषज्ञों तथा लेखापालकों का सहयोग प्राप्त होता है।
(3) परिस्थितियों के अनुसार प्रबन्ध सिद्धान्तों का प्रयोग— प्रत्येक देश का व्यावसायिक वातावरण अलग-अलग होता है, एक उपक्रम की विभिन्न इकाइयों में समानता नहीं होती, व्यावसायिक इकाइयों के प्रारूप एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। इस प्रकार प्रबन्ध की विभिन्न तकनीकों का देश, काल एवं समय के अनुसार परिवर्तन कर ही प्रयोग किया जा सकता है।
(4) मानव आचरण की स्वतन्त्रता प्रबन्ध विज्ञान के विकास में बाधक है— प्रबन्ध विज्ञान का सम्बन्ध मानवीय आचरण से होता है और मानवीय आचरण में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। मानवीय आचरण में परिवर्तन होने से ही प्रबन्ध विज्ञान का स्वतन्त्रापूर्वक विकास नहीं हो सकता। ऑलीवर शेल्डन ने इस सम्बन्ध में कहा है कि, “जहाँ भी मानव से सम्बन्ध होगा, प्रबन्ध सिद्धान्त व्यर्थ सिद्ध हो सकते हैं।”
(5) निजी हित को अधिक प्राथमिकता — प्रबन्ध की इस आधार पर भी आलोचना की जाती है कि प्रबन्धक जिस उपक्रम में कार्य करते हैं, वे पहले अपनी प्रगति का ध्यान रखते हैं, बाद में उपक्रम की प्रगति का ।
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