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फणीश्वर नाथ रेणु के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते योगदान का विवरण दीजिए।
ग्राम्य जीवन तथा परिपार्श्व पूर्णता के शलाका पुरुष फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 5 मार्च, 1921 ई. को बिहार के औराही हिंगना नामक गाँव में हुआ था। रेणु की प्रारम्भिक शिक्षा फारबिसगंज के ‘ली अकादमी’ स्कूल से शुरू हुई। इनका परिवार मध्यवर्गीय किसान के संस्कारों का परिवार था। फारबिस गंज के अतिरिक्त नेपाल व काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से इन्होंने शिक्षा ग्रहण की। 1942 ई. में यह जन-आन्दोलन में कूद गये तथा तीन वर्ष तक नजरबन्द रहे। किसान आन्दोलन का नेतृत्व करते हुए सामंती शोषण के शिकार नेपाल के मजदूरों के बीच भी कार्य किया। 1950 ई. में नेपाल के मुक्ति आन्दोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन् 1946 ई. के आसपास इनकी लिखी कुछ कहानियाँ कलकत्ते से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘विश्वामित्र’ में प्रकाशित हुई और यहीं से यह राजनीति के स्थान पर साहित्य सृजन की ओर उन्मुख हुये। 1950 ई. में यह टी. बी. रोग से ग्रसित हुये परन्तु शीघ्र ही स्वस्थ होकर श्रीमती लतिका रेणु के साथ परिणय सूत्र में आबद्ध हुए और पटना आकर स्थायी रूप निवास करते हुए साहित्य साधना में लग गये। इनकी पत्नी व बच्चे गाँव में खेती बाड़ी सम्भालने लग गये। 1954 ई. में इनका महत्वपूर्ण उपन्यास ‘मैला आंचल’ प्रकाशित हुआ और इसके साथ ही यह हिन्दी के शीर्ष रचनाकारों की पंक्ति में प्रतिष्ठित हो गये। नई कहानी के दौर में इनकी महत्वपूर्ण कहानी ‘मारे गये गुलफाम’ प्रकाशित हुई, जिस पर फिल्मकार शैलेन्द्र ने चर्चित फिल्म ‘तीसरी कसम’ का निर्माण किया। जीवन की सांध्य बेला में पुनः राजनीतिक आन्दोलनों से जुड़ाव रहा तथा जे.पी. के साथ पुलिस दमन के शिकार हुए व जेल भी गये। सत्ता के दमनचक्र के विरोध में पद्मश्री सम्मान भी लौटा दिया तथा 1976-77 ई. में गंभीर रूप से बीमार पड़ने के पश्चात् अन्ततः 14 अप्रैल, 1977 ई. को इनकी मृत्यु हो गयी।
साहित्यिक कृतियाँ
व्यक्ति और कृतिकार दोनों ही रूप में अप्रतिम फणीश्वरनाथ रेणु ने कथा-साहित्य के अतिरिक्त संस्मरण, रेखाचित्र और रिपोर्ताज आदि विधाओं में भी लिखा। उनकी साहित्यिक कृतियां निम्नलिखित हैं।
उपन्यास – ‘मैला आंचल’, ‘परतीः परिकथा’, ‘दीर्घतपा’, ‘जुलूस’।
कहानी संग्रह- ठुमरी, अग्निखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी, दोपहरी की धूप, सम्पूर्ण कहानियाँ |
रिपोतार्ज– ऋणजल धनजल, नेपाली क्रान्ति कथा ।
संस्मरण – वन तुलसी की गन्ध, श्रुत-अश्रुत पूर्व।
हिन्दी साहित्य में योगदान- सन् 1950 के बाद छठे दशक में ग्रामांचल की कहानियों ने ध्यान आकृष्ट किया। ग्रामांचल के कहानीकारो में रेणु का नाम मुख्य है। इनकी कहानियों में गाँव की मिट्टी की जो सोंधी महक और गाँव के लोगों का जो जीवन देखने को मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। वस्तुतः यह स्वयं अपने गाँव को छोड़ शहर में आकर बस गये थे अतः पीछे छूटी गाँव की यादों का रूमानियत से भर उठना स्वाभाविक था, इसीलिए वे पूरे भावावेश के साथ अभिव्यक्त हुई है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, रोमांटिक यथार्थ का सर्वाधिक चटकीला, के और आत्मीयतापूर्ण रंग रेणु की कहानियों में मिलता है। वे आदिम रसगन्धों के कथासार हैं। गाँव की धूल-माटी, आंगन की धूप, बैलों की घण्टियाँ, धान की झुकी हुई बालियाँ, गमकता चावल, मेला-ठेला, हंसी-ठिठोली आदि के वर्णन में गाँव ही नहीं, पूरा अंचल उभर आता है। इस दृष्टि से ‘लाल पान की बेगम’ और ‘तीसरी कसम’ विशेष रूप से दृष्टव्य हैं।” रेणु ने हिन्दी कथाधारा का रुख ही नहीं बदला बल्कि उसे ग्रामीण भारत के बिम्बों और ध्वनियों से समृद्ध भी किया और से हिन्दी गद्य की भाषा को पद्यात्मक लयात्मकता व ध्वन्यात्मकता से युक्त किया। उनका कथा-जगत् भारत की सांस्कृतिक चेतना का प्रतिबिम्ब है। रेणु की 27 अगस्त, 1944 में प्रकाशित प्रथम कहानी ‘वट बाबा’ से लेकर नवम्बर, 1972 में प्रकाशित अन्तिम कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ तक की उनकी कहानियों में लेखक ने लोकभाषा, जनसाधारण के जीवन और परिवेश को, लोक संस्कृति को अपने समग्र रूप में तूलिकाबद्ध करने का सफल प्रयास किया है।
इस प्रकार रेणु ने अपनी प्रत्येक कहानी में किसी अंचल विशेष की सांस्कृतिक परम्पराओं का सूक्ष्म अध्ययन कर व्यष्टि-सत्य के माध्यम से समष्टि हित-चिंतन किया है।
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