बाल्यावस्था क्या है? बाल्यावस्था में शिक्षा का क्या स्वरूप होना चाहिए?
विकास की अवस्थाएँ – यद्यपि विचारकों में विकास के विभिन्न सोपानों के विषय में मतभेद हैं, लेकिन सामान्य रूप से सभी ने मानव विकास को निम्नांकित अवस्थाओं में विभाजित किया है-
- प्रारम्भिक बाल्यकाल (जन्म से 12 वर्ष की आयु तक)
- पूर्व किशोरावस्था (12 वर्ष से 16 वर्ष की आयु तक)
- किशोरावस्था (16 वर्ष से 21 वर्ष की आयु तक)
- वयस्कावस्था (21 वर्ष के बाद)
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने प्रारम्भिक बाल्यकाल को निम्नांकित शीर्षकों में विभाजित किया हैं-
- शैशव ( जन्म से 3 वर्ष की आयु तक)
- पूर्व बाल्यकाल ( 3 वर्ष से 6 वर्ष की आयु तक)
- उत्तर बाल्यकाल ( 6 से 12 वर्ष की आयु तक)
उपर्युक्त अवस्थाओं का सुविधाजनक अध्ययन करने के लिए डॉ रनेस्ट जोन्स द्वारा किया गया विकास की अवस्थाओं का विभाजन अधिक उपयुक्त माना गया है। इनके अनुसार मनुष्य का विकास चार सुस्पष्ट अवस्थाओं में होता है-
- शैशवावस्था (जन्म से 5 या 6 वर्ष)
- बाल्यावस्था (6 से 12 वर्ष तक)
- किशोरावस्था (12 से 18 वर्ष तक)
- प्रौढ़ावस्था (18 वर्ष के बाद)
Contents
बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप
यह हम सब भली भांति जानते हैं कि बालक के निर्माण का दायित्व बालक के माता-पिता, शिक्षक, विद्यालय और समाज पर है। बालक की शिक्षा का स्वरूप क्या हो यह शिक्षकों, प्रशासकों, शिक्षाशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों के सोच पर निर्भर करता है। बाल्यावस्था में शिक्षा देते समय निम्न बातों को दृष्टिगत रखना उपयुक्त होगा-
1. माता-पिता, अभिभावकों और शिक्षकों को बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिए।
2. पाठ्यक्रम बनाते समय निम्न बातों का ध्यान रखा जाए –
- पाठ्यक्रम बालक की आयु, योग्यता और रुचि के अनुकूल हो ।
- पाठ्य विषय वस्तु ऐसी हो जो बालक को अच्छी लगे और भविष्य में व्यावहारिक जीवन में काम आये।
- भाषा के ज्ञान देने पर अधिक से अधिक बल दिया जाये।
- बालक की जिज्ञासा प्रवृत्ति को संतुष्ट कर रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था हो ।
- बालक की रुचि के अनुसार नाटक, वार्तालाप, वीर पुरुषों की कहानियां, साहस के कार्यों की तथा आश्चर्यजनक बातों के लिए स्थान हो ।
3. बालक के गिरोह या साथियों की ओर ध्यान रखा जाए कि गिरोह में बुरे सदस्य न हों।
4. सामूहिक खेलों के साथ सामूहिक पी०टी० का विद्यालयों में नियमित आयोजन किया जाए।
5. विद्यालयों में स्काउटिंग, गर्ल्स गाइड तथा छात्र संघ की उचित व्यवस्था हो । स्कूल में प्रदर्शनी, पर्यटन, नाटक, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं आदि सहगामि क्रियाओं का भी आयोजन किया जाए।
6. बालकों को क्रिया द्वारा शिक्षा देकर कार्यशील बनाया जाये।
7. शिक्षक और अभिभावक बालक साथ स्नेह और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व प्रेरणाप्रद हो। ब्लेयर जोन्स और सिम्पसन के अनुसार शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन चक्र में बाल्यावस्था से अधिक महत्वपूर्ण और कोई अवस्था नहीं है। जो अध्यापक इस अवस्था के बालकों को शिक्षा देते हैं उन्हें बालक का उनकी आवश्यकताओं का, उनकी समस्याओं का और उन परिस्थितियों का पूर्व ज्ञान होना चाहिए। जो उनके व्यवहार को रूपान्तरित और परिवर्तित करती है।
बाल्यावस्था में बालक का शारीरिक विकास :
1. वजन – 6 वर्ष से लेकर 12 वर्ष तक की अवस्था बाल्यावस्था कहलाती है। इस अवस्था में बालक का शारीरिक विकास बहुत धीमी गति से होता है। प्रारम्भ में बालक के वजन में तीव्र गति से वृद्धि होती है और 12 वर्ष के अंत में उसका वजन 80 से 95 पौण्ड हो जाता है। वह वर्जन बालक की शारीरिक रचना पर ही निर्भर करता है, अतः कुछ बालकों का वजन बहुत अधिक हो जाता है तथा कुछ बालकों का बहुत कम होता है।बाल्यावस्था में बालिकाओं का वजन बालकों की अपेक्षा कम होता है।
2. लम्बाई – इस अवस्था में बालक की लम्बाई में वृद्धि की दर बहुत कम होती हैं। आमतौर पर देखा गया है कि 6 से 12 वर्ष की उम्र में बच्चों की लम्बाई केवल 2 या 3 इंच ही बढ़ पाती है। लड़कियों की लम्बाई लड़कों की अपेक्षा कम बढ़ती है।
3. मस्तिष्क- मस्तिष्क के भार में इस अवस्था में परिवर्तन आता है। 9 वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते बालक के सिर का वजन उसके शरीर के कुल भार का 90 प्रतिशत हो जाता है। जैसे-जैसे बालक किशारोवस्था की ओर बढ़ता है त्यों-त्यों उसके मस्तिष्क का आकार चपट एवं सुडौल होने लगता है।
4. दांत – 6 वर्ष की आयु में बालक के दूध के दांत गिरने लगते हैं और उसके स्थान पर स्थायी दांत आने प्रारम्भ हो जाते हैं। 12 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते बालक के सभी दूध के दांत गिर जाते हैं और उनके स्थान पर नए दांत आ जाते हैं। इन दांतों की कुल संख्या 32 होती है।
5. हड्डियां – इस अवस्था में बालकों की हड्डियों की संख्या भी बढ़ने लगती है। शैशवास्था में 270 हड्डियां बढ़कर 350 हो जाती है।
6. अन्य तत्व – 6 से 9 वर्ष तक फेफड़ों का आकार नसों तथा धमनियों की अपेक्षा छोटा होता है। बालक की पाचन क्रिया के अंग बहुत कोमल होते हैं लेकिन 12 वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते बालक की पाचन क्रिया के सम्पूर्ण अवयव परिपक्व हो जाते हैं। बालकों के हृदय की धड़कन इस उम्र में 1 मिनट में 85 बार धड़कना हो जाती है। बाल्यावस्था के अंतिम पड़ाव पर ही ज्ञानेन्द्रियों एवं यौनेन्द्रियों का पूर्ण विकास हो जाता है। उनमें शारीरिक क्रियाशीलता बढ़ जाती है और वे खेलकूद में ज्यादा दिलचस्पी लेना प्रारम्भ कर देते हैं।
बाल्यावस्था में मानसिक विकास :
6 से 12 वर्ष तक का काल बाल्यावस्था के रूप में जाना जाता है। इस अवस्था में. बच्चे प्रायः विद्यालयों में जाना प्रारम्भ कर देते हैं और उनकी मानसिक योग्यताओं का चहुंमुखी विकास होना प्रारम्भ हो जाता है। बालक के पास ऐसा मानसिक धरातल विद्यमान रहता है जिसके ऊपर वह अपने चिंतन एवं व्यवहार का निर्माण करता है। इस समय अपने समूह के साथियों के साथ की गयी क्रियाएं उसमें मानसिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। छठें वर्ष में बालक के छोटे-छोटे प्रश्नों का उत्तर दे सकता है। गिनती सुना सकता है और चित्रों को देखकर उनमें अंतर कर सकता है। चित्रों का वृतान्त सुना सकता है। चित्रों की समानताएं असमानताएं बता सकता है। सातवें वर्ष तक पहुंचते-पहुंचतें बालक दो वस्तुओं का अंतर समझने लगता है वह साइकिल व मोटर साइकिल में अंतर समझने लगता है। आठ वर्ष की आयु में बालक की स्मरण शक्ति भी काफी विकसित हो जाती है। 15 या अधिक शब्दों के वाक्यों को वह याद कर सकता है। कविताएं याद कर सकता है और उसमें साधारण समस्याओं का समाधान करने की शक्ति आ जाती है। नवें वर्ष में बालक को सिक्कों का ज्ञान हो जाता है। दिन एवं तारीख महीना, सप्ताह आदि का ज्ञान भी उसे हो जाता है। 11वें वर्ष में बालक में जिज्ञासा एवं तर्क शक्ति का विकास होता है। वह प्रत्येक वस्तु को सूक्ष्मता से देखता है, अध्ययन करता है और दो वस्तुओं में अंतर एवं समानताओं का अध्ययन करने का प्रयास करता है। 12 वर्ष में बालक समस्या समाधान की शक्ति का पूर्ण विकास हो जाता है। बालक बहुत से विषयों पर तर्क करने लगता है। कठिन शब्दों को समझने लगता है व उनकी व्याख्या करना प्रारम्भ कर देता है। वह कार्य कारण के सम्बन्ध में समझने लगता है।
बाल्यावस्था संवेगात्मक विकास:
6 से 12 वर्ष की अवस्था बाल्यावस्था कहलाती है। इस अवस्था में बालक के संवेग निश्चित एवं स्थिर हो जाते हैं और संवेगों की शक्ति कम हो जाती है और अब यह संवेग बालक को उस सीमा तक उत्तेजित नहीं करते| जिस सीमा में बालक को शैशवास्था में उत्तेजित करते हैं। 6 वर्ष की उम्र में बालक विद्यालय जाने लगता है और काफी सीमा तक वे माता-पिता एवं परिवार के नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं। वे अपनी उम्र के अन्य बच्चों के साथ समय गुजारते हैं। इसी कारण इस उम्र को दल अवस्था भी कहा जाता है। अब बच्चे पर माता-पिता व परिवार के प्रभाव के अतिरिक्त शिक्षक तथा विद्यालय के वातावरण और उसके अपने स्थितियों का भी प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ने लगता है। अब बालक में भय की मात्रा कम होने लगती है। इस अवस्था में शिक्षक का यह दायित्व है कि वह बालक के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करे और भय के इस संवेग को कम करने में उनकी सहायता करे। देखा गया है कि अधिक दण्ड देने वाले अध्यापकों के कारण बालकों में भय की यह प्रवृत्ति बनी रहती है जो उनके मानसिक विकास में बाधक होती है। शिक्षकों को चाहिए कि बालकों को कठोर दण्ड के माध्यम से अनुशासित करने का प्रयास न करें। ऐसा करने से बालकों में हीन भावना का विकास होता है और उनका संवेगात्मक विकास रुक जाता है। बाल्यावस्था में बालकों में काम प्रवृत्ति न के बराबर होती है। अतः वह अपने समलिंगी साथियों के साथ ही खेलना-कूदना पसंद करते हैं।
IMPORTANT LINK
- व्यक्तित्व के प्रमुख प्रकार | Major personality types in Hindi
- व्यक्तित्त्व भेद का शिक्षा में क्या महत्त्व है? What is the importance of personality difference in education?
- वैयक्तिक विभिन्नता क्या है? इसके विभिन्न प्रकार एंव कारण
- बुद्धि का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार | Meaning, definitions and types of intelligence in Hindi
- “व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान शिक्षक के लिए अनिवार्य है।”
- बुद्धि का स्वरूप क्या है? बुद्धि के दो खण्ड सिद्धान्त एंव योग्यताएं
- बुद्धि लब्धि क्या है? बुद्धि लब्धि वितरण एवं स्थिरता What is intelligence gain? IQ Distribution and Stability
- बुद्धि परीक्षण क्या है? बुद्धि परीक्षणों के प्रकार | What is an IQ test? types of intelligence tests
- व्यक्तित्व का अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएँ | Meaning, Definition and Characteristics of Personality in Hindi
Disclaimer