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भूमि का महत्त्व (Importance of Land)
भूमि उत्पादन का एक प्राथमिक तथा अनिवार्य उपादान है। भूमि के बिना कोई भी उत्पादन कार्य सम्भव नहीं है। उत्पादन कार्य में भूमि का वही स्थान होता है जो बच्चे के जन्म में माता का होता है इसलिए भूमि को ‘धरती माता’ कहा जाता है। उत्पादन में भूमि का महत्त्व निम्न बातों से भली-भांति स्पष्ट हो जायेगा
(1) काम करने तथा रहने का आधार-भूमि की सतह या जमीन पर मनुष्य चलते-फिरते हैं, काम करते हैं, विभिन्न प्रकार के व्यवसाय करते हैं तथा मकान, दुकान व कारखाने बनाते हैं। भूमि के अभाव में ये सब कार्य असम्भव हैं। फिर सम्बन्धित क्षेत्र की जलवायु का मनुष्य के स्वभाव पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। भूमि से ही मनुष्य को वायु, धूप, पानी आदि प्राप्त होते हैं जो उसके जीवन के लिए अनिवार्य है। इस प्रकार भूमि मनुष्य के आर्थिक तथा सामाजिक जीवन का आधार है।
(2) आर्थिक विकास का आधार-किसी देश का आर्थिक विकास बहुत कुछ वहाँ पर पाए जाने वाले प्राकृतिक संसाधनों (भूमि) पर निर्भर करता है। किसी देश में जितनी अधिक मात्रा में खनिज पदार्थ, उपजाऊ भूमि, जल, अनुकूल जलवायु, वन आदि पाए जाते हैं वह उतनी ही तीव्रता से अपना आर्थिक विकास कर सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों की बहुलता है जिस कारण आज वह एक धनी देश है। इसके विपरीत, जिन देशों या क्षेत्रों में प्रकृति कम कृपालु है वहाँ के लोगों को विकास कार्यों में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
(3) प्राथमिक उद्योगों का विकास-कृषि, मछली पालन, खनिज-व्यवसाय, वन व्यवसाय आदि प्राथमिक उद्योगों प्रकृति के उपहारों पर निर्भर करता है। जिस देश में कृषि योग्य भूमि, जल, वन, खाने, अनुकूल जलवायु आदि प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं वहाँ प्राथमिक व्यवसायों का विकास स्वाभाविक रूप से हो जाता है।
(4) शक्ति के साधन–वर्तमान युग में हर प्रकार के उत्पादन के लिए बिजली, कोयला, तेल आदि की आवश्यकता पड़ती है। शक्ति के इन सभी साधनों का स्रोत भूमि ही है।
(5) गीण धन्धों तथा कल-कारखानों का विकास-भूमि से अनेक प्रकार के कच्चे पदार्थ उपलब्ध होते हैं, जैसे लोहा, ताँबा, कोयला आदि। साथ ही भूमि से कृषि पदार्थ, जैसे कपास, गन्ना, जूट आादि तथा अनेक प्रकार के पशु-पदार्थ, जैसे चमड़ा, माँस, इट्टियाँ आदि तथा अनेक प्रकार के शक्ति के साधन उपलब्ध होते हैं, जैसे कोयला, तेल, जल, वायु आदि। इन सबकी सहायता से देश में विभिन्न प्रकार के व्यवसायों तथा कल-कारखानों की स्थापना की जाती है।
(6) व्यापार का आधार- भूमि का किसी देश के व्यापार में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। अधिकतर देशों का अधिकांश आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार भूमि द्वारा उत्पादित वस्तुओं, जैसे गेहूं, चावल, चाय, तेल, दूध, खनिज पदार्थ, लकड़ी, चमड़ा, ऊन आदि में ही होता है।
(7) परिवहन तथा संचार के साधनों का विकास-किसी देश में परिवहन तथा संचार के साधनों, जैसे सड़क, रेलमार्ग, डाक-तार आदि का विकास भूमि की बनावट पर निर्भर करता है। भूमि के तमतल होने पर इन साधनों का विकास आसानी से कम समय में तथा कम लागत पर कर लिया जाता है, जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में इन साधनों का विकास कठिन तथा महंगा होता है। इसके अतिरिक्त, जल-मार्ग तथा वायु मार्ग का विकास जलवायु पर निर्भर होता है।
(8) रोजगार का आधार- मनुष्य को रोजगार प्रदान करने में भूमि का बहुत अधिक महत्त्व है। भारत में लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर आश्रित है। खानी तथा वनों का भी लोगों को रोजगार दिलाने में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
भूमि की कार्यक्षमता या उत्पादकता (Productivity of Land)
अर्थ (Meaning)– ‘भूमि की कार्यक्षमता का अर्थ भूमि के किसी टुकड़े की उत्पादन-शक्ति से लिया जाता है। अन्य बातें समान रहने पर, भूमि के जिस भाग से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है उसकी कार्यक्षमता (उत्पादकता) अपेक्षाकृत अधिक होती है। भूमि की कार्यक्षमता एक सापेक्ष अवधारणा है। भूमि के विभिन्न टुकड़ों के उत्पादन की परस्पर तुलना करके ही यह जाना जा सकता है कि किसी भूखण्ड की कार्यक्षमता कम है या अधिक है। कार्यक्षमता या उत्पादकता ज्ञात करने के लिए उत्पादन की मात्रा तथा गुण दोनों पर ध्यान दिया जाता है।
भूमि की कार्यक्षमता को प्रभावित करने वाले तत्त्व-भूमि की कार्यक्षमता को मुख्यतया निम्न बातें प्रभावित करती हैं-
(1) प्राकृतिक तत्त्व-भूमि की उत्पादन-शक्ति, मिट्टी, जलवायु, मौसम, वर्षा, स्थिति, सूर्य का प्रकाश आदि प्राकृतिक तत्त्वों पर निर्भर करती है। कहीं की भूमि रेतीली होती है तो कहीं की चिकनी, कहीं पर समुचित वर्षा होती है तो कहीं पर कम। उदाहरणार्थ, उत्तर प्रदेश के गंगा-यमुना के क्षेत्र की भूमि की उत्पादकता राजस्थान की रेतीली भूमि की अपेक्षा कहीं अधिक है।
(2) भौगोलिक स्थिति-भूमि की उत्पादकता उसकी स्थिति पर भी निर्भर करती है। गाँव शहर तथा मण्डी के पास की भूमि अधिक उत्पादक समझी जाती है। ऐसी भूमि तक खाद, बीज, श्रमिक आदि आसानी से तथा कम लागत पर पहुंचाए जा सकते है। इसके अतिरिक्त, ऐसी भूमि के उत्पादन को कम परिवहन लागत पर मण्डियों तक पहुंचाया जा सकता है।
(3) भूमि का उचित प्रयोग- कोई भूमि प्राकृतिक रूप से जिस कार्य के लिए उपयुक्त होती है, उसका प्रयोग उसी कार्य में करने पर उसकी कार्यक्षमता अधिक होती है। उदाहरणार्थ, भिन्न-भिन्न मिट्टियाँ भिन्न-भिन्न फसलों के लिए उपयुक्त होती हैं। काली मिट्टी कपास के लिए तथा दोमट मिट्टी गेहूं, चावल, मक्का आदि खायान्नों के उत्पादन के लिए उपयुक्त होती है। शहरों के पास की भूमि मकानों व कारखानों के लिए अधिक उपयुक्त होती है।
(4) मानवीय तत्त्व-भूमि की उत्पादकता उस पर काम करने वाले किसानों तथा श्रमिकों की योग्यता पर भी निर्भर करती है। फिर मनुष्य अपने परिश्रम तथा बुद्धि से बंजर भूमि तथा रेतीले मैदानों को भी उपजाऊ भूमि में परिणत कर लेता है। उन्नत बीज व खाद का प्रयोग करके तथा सिंचाई के साधनों का विकास करके भूमि से कहीं अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, पंजाब व हरियाणा के किसानों ने अपने परिश्रम तथा योग्यता से कृषि उत्पादन में असाधारण वृद्धि कर ली है।
(5) आर्थिक कारण-भूमि की कार्यक्षमता निम्न आर्थिक कारणों पर भी निर्भर करती है-
(1) पूँजी- पर्याप्त मात्रा में पूंजी प्राप्त होने पर किसान आधुनिक कृषि यन्त्रों, उत्तम बीज का प्रयोग करके तथा भूमि में स्थाई सुधार करके अधिक उत्पादन कर सकता है। (ii) भूमि का स्वामित्व- यदि कृषक स्वयं ही भूमि का स्वामी है तो यह लगन, परिश्रम तथा उत्साह से खेती करेगा जिससे भूमि की उत्पादकता बढ़ जायेगी। (iii) संगठनकर्त्ता की योग्यता-उत्पादन का एक निष्क्रिय साधन होने के कारण भूमि स्वयं कोई उत्पादन नहीं कर सकती। इसकी उत्पादकता संगठनकर्ता की योग्यता पर निर्भर करती है। कुशल संगठनकर्ता भूमि पर उत्पादन के अन्य उपादानों का उचित में प्रयोग करके अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकता है।
(6) स्वाई भूमि सुधार- भूमि पर विभिन्न स्थाई सुधार करके भूमि की उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है। इसी कारण भारत में भूमि सुधार सम्बन्धी कई कानून पारित किए गए हैं। इन कानूनों ने-(1) जमींदारी प्रथा को समाप्त कर दिया है, (II) जोतों की उच्चतम सीमा निर्धारित कर दी है, (iii) देश में जोतों की चकबन्दी की गई है, (iv) सहकारी खेती को प्रोत्साहन दिया गया है आदि।
(7) उन्नत तकनीक- भूमि की उत्पादन क्षमता पर उत्पादन की उन्नत तकनीकों के प्रयोग का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। उत्पादन की आधुनिक तथा वैज्ञानिक विधियों द्वारा कृषि उत्पादन को कई गुना बढ़ाया जा सकता है।
(8) सामाजिक तथा राजनीतिक तत्त्व-भूमि की उत्पादकता पर देश की सामाजिक तथा राजनीतिक दशाओं का भी प्रभाव पड़ता है। भारत में उत्तराधिकार के नियमों ने उपविभाजन तथा विखण्डन की समस्याएँ उत्पन्न करके भूमि की उत्पादकता को कम कर दिया है। संयुक्त परिवार तथा राजनीतिक अस्थिरता का भी भूमि की उत्पादन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
(9) सरकारी नीति-यदि सरकार उचित कृषि नीति अपनाती है, किसानों को पर्याप्त साख-सुविधाएँ प्रदान करती है, सिंचाई-सुविधाओं का विकास करती है, अनुसंधान कार्य को प्रोत्साहन देती है तथा किसानों को उत्तम बीज, खाद आदि सुलभ कराती है तो इससे भूमि की उत्पादकता बढ़ती है।
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