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मुद्रा का प्रादुर्भाव (Origin of Money)
जैसे-जैसे मनुष्य की आवश्यकताएं बढ़ती गई वैसे-वैसे वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयाँ भी बढ़ती गई और लोगों को अनेक प्रकार की असुविधाएं होने लगीं। लोगों द्वारा किसी ऐसी वस्तु या माध्यम (medium) की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी जो वस्तु विनिमय की कठिनाइयों को दूर कर सके तथा समाज की आर्थिक व सामाजिक उन्नति में सहायक सिद्ध हो सके। इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए ‘मुद्रा‘ का आविष्कार किया गया जिसके आधार पर वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों को मापा जाने लगा।
समय तथा परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ मुद्रा का स्वरूप भी बदलता गया। प्रारम्भ में वस्तुओं का ही मुद्रा के रूप में प्रयोग किया गया, अर्थात् सर्वप्रथम वस्तु-मुद्रा (Commodity Money) का प्रयोग किया गया। शिकारी युग में खाल व तीर का, पशुपालन-युग में बैल, गाय, बकरी, भेड़ आदि पशुओं का तथा कृषि युग में अनाज, तम्बाकू आदि का मुद्रा के रूप में प्रयोग किया गया। प्राचीन काल में चमड़ा, पत्थर, मूँगा, मोती, कौड़ियों आदि का भी मुद्रा के रूप में प्रयोग किया गया। किन्तु विभिन्न वस्तुओं को मुद्रा के रूप में प्रयोग करने पर अनेक व्यावहारिक कठिनाइयों आई, जैसे वस्तुओं के संचय की कठिनाई, वस्तुओं के हस्तान्तरण की कठिनाई, वस्तुओं के प्रमापीकरण में कठिनाई आदि। परिणामतः पदार्थ-मुद्रा के स्थान पर धातु-मुद्रा या सिक्कों (Coins) का प्रयोग किया जाने लगा। सर्वप्रथम लोहे तथा ताबे की छड़ों (bars) तथा सिक्कों का प्रयोग किया गया। बाद में स्वर्ण तथा रजत (चाँदी) का भी मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। जब इन धातुओं की कमी पड़ी तो पत्र मुद्रा (Paper Money) का प्रचलन आरम्भ हो गया। धीरे-धीरे बैंकिंग पद्धति के विकास तथा अर्थव्यवस्था के संगठित हो जाने पर चक, हुण्डियाँ (Hundies) आदि साख-पत्रों (Credit Instruments) का प्रयोग किया जाने लगा।
मुद्रा द्वारा वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों का समाधान- निःसन्देह मुद्रा ने वस्तु विनिमय की सभी गम्भीर कठिनाइयों को दूर कर दिया है जैसा कि निम्न विवरण से स्पष्ट है-
(1) आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की आवश्यकता ही नहीं- वस्तु विनिमय प्रणाली में क्रेता तथा विक्रेता की विभिन्न आवश्यकताओं के दोहरे संयोग का होना अत्यन्त कठिन होता है। किन्तु मुद्रा ने इस संयोग की आवश्यकता को ही समाप्त कर दिया है। मुद्रा के माध्यम से प्रत्येक वस्तु बाजार में खरीदी व बेची जा सकती है।
(2) मूल्य का आधार-मुद्रा ने विभिन्न वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य को मापने की कठिनाई को समाप्त कर दिया है, क्योंकि अब प्रत्येक वस्तु का मूल्य ‘मुद्रा’ में मापा जाने लगा है।
(3) वस्तुओं की विभाज्यता- मुद्रा की सहायता से अब छोटी से छोटी तथा बड़ी से बड़ी वस्तु को खरीदा व बेचा जा सकता है।
(4) पन का संचय- मुद्रा ने धन का संचय या बचत को अत्यन्त सरल बना दिया है। बचत ने पूँजी निर्माण को प्रोत्साहित किया है जिससे देश का तीव्रता से आर्थिक विकास करना सम्भव हो गया है।
(5) मूल्य का हस्तान्तरण – मुद्रा ने वस्तु विनिमय की इस कठिनाई को भी दूर कर दिया है। अब कोई भी व्यक्ति अपनी अचल सम्पत्तियों के मूल्य की मुद्रा के रूप में प्राप्त करके किसी अन्य स्थान में जाकर बस सकता है।
(6) भविष्य में भुगतान- वस्तुओं के टिकाऊ न होने तथा उनके मूल्यों में उतार-चढ़ाव होते रहने के कारण वस्तु-विनिमय व्यवस्था में उच्चार लेन-देन अत्यन्त कठिन था। किन्तु अब मुद्रा की सहायता से वस्तुओं तथा सेवाओं का उधार क्रय-विक्रय बड़ी आसानी से हो जाता है।
(7) सेवाओं का भुगतान-जब मुद्रा की सहायता से यकील, डॉक्टर आदि की सेवाओं का भुगतान अत्यन्त सुविधाजनक हो गया है।
इस प्रकार उक्त विवरण से स्पष्ट है। मुद्रा ने वस्तु विनिमय प्रणाली की सभी गम्भीर कठिनाइयों को दूर कर दिया है।
आधुनिक युग में वस्तु-विनिमय (Barter in Modern Times)
वस्तु-विनिमय प्रणाली की सफलता के लिए जो दशाएँ आवश्यक हैं उनका निरन्तर लोप होता जा रहा है जिस कारण आधुनिक समय में वस्तु-विनिमय का प्रयोग सम्भव नहीं रह गया है। अब लोगों की आवश्यकताएँ सीमित न रहकर असीमित हो गई है। फिर आधुनिक युग में विभिन्न क्षेत्रों की आर्थिक प्रगति, परिवहन के विकसित साधन, विशालस्तरीय उत्पादन, श्रम-विभाजन तथा विशिष्टीकरण, बैंकिंग सुविधाओं के विकास तथा विस्तार आदि जैसे क्रान्तिकारी परिवर्तनों ने वस्तु विनिमय व्यवस्था को अव्यावहारिक बना दिया है।
यद्यपि आजकल वस्तु विनिमय का केवल ऐतिहासिक महत्त्व रह गया है फिर भी इसका प्रचलन अभी पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हो पाया है। आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में भी वस्तु-विनिमय प्रणाली का प्रचलन निम्न दशाओं में पाया जाता है-
(1) ग्रामीण क्षेत्रों में- आज भी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रणाली सीमित रूप में प्रचलित है। गाँवों में किसान, मजदूर, बढ़ई, लुहार, आदि अपनी सेवाओं का पुरस्कार मुद्रा के अलावा अनाज के रूप में भी प्राप्त करते हैं। गाँवों में लोग अनाज के बदले कपड़े, फल, नमक, तम्बाकू आदि वस्तुएँ प्राप्त करते हैं।
(2) शहरी क्षेत्रों में- कुछ मात्रा में यह प्रणाली कस्बों तथा शहरों में भी प्रचलित है जहाँ स्त्रियाँ फटे-पुराने कपड़ों के बदले में प्लास्टिक का सामान, काँच व स्टील के बर्तन आदि वस्तुएँ प्राप्त कर लेती है। शहरी क्षेत्रों में नई वस्तुओं, जैसे कार, टेलीविजन आदि का आशिक भुगतान पुरानी कार, पुराने टेलीविजन आदि के रूप में स्वीकार किया जाता है। वैसे इस प्रकार का वस्तु विनिमय अत्यन्त सीमित मात्रा में ही पाया जाता है।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में- आजकल अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी वस्तु-विनिमय प्रणाली का सीमित मात्रा में प्रयोग किया जा रहा है। उदाहरणार्थ, भारत तथा रूस ने कई बार ऐसे व्यापारिक समझौते किए हैं जिनके अन्तर्गत दोनों ने परस्पर विभिन्न वस्तुओं का आदान-प्रदान किया है। इन समझौतों के अन्तर्गत भारत ने कुछ वस्तुएँ रूस को भेजी है तथा रूस ने बदले में कुछ अन्य वस्तुएँ भारत को प्रदान की है। किन्तु वस्तु-विनिमय की यह मात्रा कुल विदेशी व्यापार का एक अत्यन्त मामूली भाग होती है जिस कारण यह मानना ठीक नहीं होगा कि विश्व में वस्तु विनिमय-व्यवस्था लोकप्रिय होती जा रही है। वास्तविकता तो यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय वस्तु विनिमय में भी मुद्रा ही हिसाब-किताब की इकाई का कार्य करती है। कैसे? रूस जितना माल भारत को भेजता है उसका भुगतान रुपयों में किया जाता है। रुपयों को भारतीय बैंकों में जमा कर दिया जाता है जिसकी सहायता से रूस भारत से सामान खरीदता रहता है। इस प्रकार भारत तथा रूस के बीच विशुद्ध वस्तु-विनिमय के बजाय अप्रत्यक्ष वस्तु-विनिमय हुआ।
(4) आर्थिक संकट में- कुछ आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक संकट के समय भी वस्तु विनिमय प्रणाली को अपनाया गया है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूरोप के देशों में अति मुद्रास्फीति (hyper-inflation) की स्थिति उत्पन्न हो गई थी जिस कारण कीमतों में अत्यधिक वृद्धि हो गई थी। ऐसी स्थिति में इन राष्ट्रों में वस्तुओं का प्रत्यक्ष रूप से विनिमय किया जाने लगा था। इसी प्रकार द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् जर्मनी के बर्तन बनाने वाले कारखानों में श्रमिकों को मजदूरी का भुगातन वर्तनों के रूप में किया जाने लगा था।
निष्कर्ष (Conclusion) वस्तु विनिमय प्रणाली एक प्राचीन तथा सरल प्रणाली है तथा आधुनिक जटिल अर्थव्यवस्थाओं में इसका कोई महत्त्व नहीं है। आजकल इसका स्थान ‘मुद्रा’ ने ले लिया है। हो, इतना अवश्य है कि आर्थिक तथा व्यापारिक दृष्टि से पिछड़े क्षेत्रों व जातियों में यह प्रणाली अब भी थोड़ी बहुत मात्रा में प्रचलित है। इसके अतिरिक्त, आजकल आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में जो वस्तु-विनिमय-व्यवस्था प्रचलित भी है उसमें ‘मुद्रा’ ही हिसाब किताब का कार्य करती है तथा मूल्य के मापदण्ड में मुद्रा का ही प्रयोग होता है। विशुद्ध वस्तु विनिमय प्रणाली तो आजकल विश्व में कहीं भी प्रचलित नहीं है। हाँ, कुछ परिस्थितियों में मुद्रा पर अप्रत्यक्ष रूप से आधारित संशोधित वस्तु विनिमय व्यवस्था अवश्य प्रचलित है।
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