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श्रम के स्वरूप (Kinds of Labour)
श्रम के अनेक रूप बताए गए हैं। इसके प्रमुख रूप या भेद निम्नवत है-
(1) उत्पादक तथा अनुत्पादक श्रम (Productive and Unproductive Labour)-इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में मतभेद रहा है कि किस श्रम को उत्पादक कहा जाए तथा किसको अनुत्पादक परम्परावादी (Classical) अर्थशास्त्रियों ने केवल उसी श्रम को उत्पादक माना है जिससे भौतिक वस्तुओं का उत्पादन होता है। इस दृष्टि से वकील, डॉक्टर, अध्यापक आदि की सेवाएं अनुत्पादक श्रम हुई। किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार किसी भी प्रकार का श्रम जिससे तुष्टिगुण का सृजन (creation of utility) होता है या उसमें वृद्धि होती है, उत्पादक श्रम कहलाता है। इस दृष्टि से वकील, डॉक्टर, अध्यापक आदि की सेवाएँ भी उत्पादक श्रम होती हैं। जिस श्रम से तुष्टिगुण का सृजन नहीं होता वह अनुत्पादक श्रम कहलाता है। उदाहरणार्थ, यदि किसी लेखक की कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हो पाती है तो उसकी मेहनत अनुत्पादक श्रम कहलायेगी।
(2) कुशल तथा अकुशल श्रम (Skilled and Unskilled Labour)—जिस मानसिक या शारीरिक कार्य को करने के लिए किसी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है उसे ‘कुशल श्रम’ कहते हैं, जैसे अध्यापक, वकील, डॉक्टर आदि का श्रम कुशल होता है। इसके विपरीत, जिस श्रम को करने के लिए किसी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती उसे ‘अकुशल श्रम कहते हैं, जैसे चपरासी, घरेलू नौकर आदि का श्रम|
(3) शारीरिक तथा मानसिक श्रम (Physical and Mental Labour)-जिस कार्य में मस्तिष्क या बुद्धि की अपेक्षा शरीर का अधिक प्रयोग होता है उसे शारीरिक श्रम कहते हैं, जैसे कुली, घरेलू नौकर आदि का श्रम इसके विपरीत, जिस कार्य में शरीर की अपेक्षा मस्तिष्क या बुद्धि का अधिक प्रयोग किया जाता है उसे ‘मानसिक श्रम’ कहते हैं, जैसे अध्यापक, डॉक्टर, इन्जीनियर आदि का कार्य|
(4) प्रत्यक्ष तथा परोक्ष श्रम (Direct and Indirect Labour) वह श्रम जिसके द्वारा भौतिक वस्तुओं, जैसे अनाज, फर्नीचर आदि का उत्पादन होता है, प्रत्यक्ष श्रम कहलाता है। उदाहरणार्थ, किसान, बढ़ई आदि का कार्य प्रत्यक्ष श्रम कहलाता है। किन्तु जिस कार्य से भौतिक वस्तुओं का उत्पादन नहीं होता वह परोक्ष या अप्रत्यक्ष श्रम’ कहलाता है, जैसे सरकारी कर्मचारियों तथा बैंक, बीमा कम्पनियों आदि में लगे व्यक्तियों का कार्य ।
श्रम का महत्त्व (Importance of Labour)
श्रम का महत्त्व निम्न बातों से भली-भांति स्पष्ट हो जायेगा-
(1) उत्पादन का अनिवार्य तथा सक्रिय उपादान-श्रम के बिना किसी भी प्रकार के धन का उत्पादन नहीं किया जा सकता। भूमि तथा पूंजी उत्पादन के निष्क्रिय उपादान है जबकि श्रम सक्रिय उपादान है। श्रम के सहयोग के अभाव में भूमि तथा पूँजी स्वयं कोई भी उत्पादन कार्य नहीं कर सकते।
(2) आर्थिक विकास में महत्त्व- प्राचीन काल से अब तक मनुष्य ने जो भी प्रगति की है उसका प्रमुख श्रेय श्रम को ही ने जाता है। किसी देश का आर्थिक विकास मुख्यतः दो साधनों पर निर्भर करता है- (1) प्राकृतिक संसाधन तथा (ii). मानवीय संसाधन) प्राकृतिक संसाधन निर्जीव होने के कारण स्वयं कुछ नहीं कर पाते। यह तो मानवीय संसाधन (श्रम) है जो अपनी योग्यता व कुशलता से प्राकृतिक संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग करके देश का तीव्रता से आर्थिक विकास कर सकता है। फिर आधुनिक युग में बड़ी-बड़ी मशीनों को चलाने के लिए योग्य तथा प्रशिक्षित कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ती है।
(3) आविष्कार तथा अनुसन्धान में महत्त्व-बड़ी आधुनिक मशीनों के आविष्कार एवं निर्माण तथा नई-नई उत्पादन विधियों के अनुसन्धान में कुशल तथा प्रशिक्षित श्रमिकों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है फिर नई मशीनों का संचालन तथा आधुनिक विधियों का प्रयोग करके श्रमिक ही उत्पादन में वृद्धि करते हैं।
(4) श्रम उत्पादन का साधन तथा साध्य दोनों- श्रमिक वस्तुओं का केवल उत्पादन ही नहीं करते बल्कि उनका उपभोग भी करते हैं। अतः श्रमिकों की संख्या पर ही विभिन्न वस्तुओं के बाजार का क्षेत्र निर्भर करता है क्योंकि श्रमिक उत्पादन के साधन होने के साथ-साथ उपभोक्ता (साध्य) भी होते हैं।
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