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सामुदायिक विकास तथा अन्य प्रायोजनाएँ (Community Development and Other Projects)
“सामुदायिक विकास प्रायोजना एक ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा पंचवर्षीय योजना गाँव में सामाजिक और आर्थिक जीवन का रूपान्तर करने की एक प्रक्रिया प्रारम्भ करना चाहती है।
-ए० आर० देसाई
सामुदायिक विकास प्रायोजना का अर्थ
आयोजना आयोग (Planning Commission) ने सामुदायिक विकास परियोजना की इन शब्दों में व्याख्या की है, “सामुदायिक विकास स्वयं जनता के प्रयत्नों द्वारा ग्रामीण जीवन का सामाजिक और आर्थिक रूपान्तर करने का एक प्रयत्न है।” इस प्रकार सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं से तात्पर्य ग्रामों में सामाजिक एवं आर्थिक पुनर्निर्माण की उन योजनाओं से है जिन्हें ग्रामीण समुदाय के लोग अपने आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा सर्वांगीण विकास के लिए सरकार के साथ मिलकर चलाते हैं। सामुदायिक विकास कार्यक्रम में सरकार का दायित्व तो आर्थिक सहायता तथा मार्गदर्शन करना होता है जबकि कार्यक्रम का संचालन स्वयं ग्रामीण समुदाय करता है।
भारत सरकार द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा गया है, “यह सहायता प्राप्त स्वयं-सेवा का एक कार्यक्रम है जिसको ग्रामवासी स्वयं आयोजित और कार्य रूप में परिणित करेंगे जबकि सरकार केवल आवश्यक निर्देश तथा आर्थिक सहायता देगी इसका लक्ष्य व्यक्ति में आत्मनिर्भरता और ग्रामीण समुदाय में प्रेरणा उत्पन्न करना है। सामुदायिक विचार और सामूहिक कार्य को पंचायतों, सहकारी समितियों, विकास खण्डों आदि जनता की संस्थाओं द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है।”
सामुदायिक प्रायोजनाओं के उद्देश्य
भारत सरकार के सामुदायिक विकास मन्त्रालय द्वारा प्रकाशित A Guide to Community Development’ में सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं के निम्नलिखित मुख्य उद्देश्य बताए गए हैं-
(1) जनता के मानसिक दृष्टिकोण में परिवर्तन करना।
(2) गाँव में उत्तरदायी और क्रियाशील नेतृत्व का विकास करना।
(3) गाँव वालों को आत्मनिर्भर और प्रगतिशील बनाना।
(4) गाँव वालों के आर्थिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए एक ओर कृषि का आधुनिकीकरण (modernisation) और दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर तथा लघु उद्योगों का विकास करके रोजगार के अधिक अवसर जुटाना।
(5) ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का प्रसार करना।
(6) परिवहन तथा संदेशवाहन के साधनों का विकास करना।
(7) गांवों में प्रारम्भिक शिक्षा, जनस्वास्थ्य तथा मनोरंजन के केन्द्रों की उन्नति करना।
(8) गाँवों में सफाई का प्रबन्ध तथा पेय जल की व्यवस्था करना।
(9) जनता में सहकारिता की भावना उत्पन्न करना।
सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं के उद्देश्यों को दो भागों में बाँटा गया है—अल्पकालीन ध्येय और दीर्घकालीन ध्येय दोनों प्रकार के ध्येय निम्नलिखित हैं-
(1) अल्पकालीन उद्देश्य – (i) कृषि उत्पादन में यथासम्भव वृद्धि।
(ii) गाँवों में बेकारी की समस्या को हल करना।
(iii) गाँवों में संदेशवाहन के साधनों का विकास।
(iv) गाँवों में प्रारम्भिक शिक्षा, जनस्वास्थ्य और मनोरंजन के केन्द्रों को उन्नत करना।
(v) मकानों की दशा में सुधार करना।
(vi) देशी दस्तकारी और गृह-उद्योगों को प्रोत्साहित करना।
(2) दीर्घकालीन उद्देश्य- सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं का दीर्घकालीन उद्देश्य योजनाबद्ध रूप से सभी भौतिक और मानवीय साधनों का पूर्ण विकास करना है। इनमें सब ग्रामवासियों को पूरा रोजगार दिलाने की व्यवस्था की जायेगी। सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं का लक्ष्य गाँवों का ऐसा विकास करना है कि एक कल्याणकारी राज्य के आदर्श के अनुरूप देश के नागरिकों को किसी भी प्रकार का अभाव न रहे, सबको पर्याप्त भोजन मिले और सबकी सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक उन्नति हो।
संक्षेप में, सामुदायिक विकास प्रायोजनाएँ स्वयं गाँव वालों के प्रयत्न से और सरकार की सहायता से गाँव का सर्वांगीण विकास करने का उद्देश्य लेकर सरकार के निर्देश में गाँव वालों द्वारा ही संचालित की जाती हैं।
भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम का प्रारम्भ एवं प्रगति
भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम का श्रीगणेश महात्मा गाँधी के 84वें जन्म दिवस के शुभ अवसर पर 2 अक्टूबर, 1952 को चुने हुए 55 जिलों में किया गया। प्रारम्भ में सामुदायिक विकास योजना की दृष्टि से सम्पूर्ण देश को 5,255 सामुदायिक विकास खण्डों में बाँटा गया था। परन्तु पुनर्गठन के कारण बाद में विकास खण्डों की संख्या 5,011 गई।
प्रत्येक सामुदायिक विकास खण्ड में लगभग 100 गाँव होते हैं जिनका क्षेत्रफल 620 वर्ग किलोमीटर और जनसंख्या लगभग 92,000 होती है। ये विकास खण्ड ही नियोजन और विकास की इकाई होते हैं। विकास खण्ड का मुखिया विकास अधिकारी होता है। इसके अतिरिक्त, 8 विस्तार अधिकारी होते हैं जो कृषि, पशुपालन, ग्रामोद्योग, सहकारिता, पंचायत राज समाज शिक्षा, निर्माण कार्य आदि के विशेषज्ञ होते हैं। उनकी सहायता के लिए 10 ग्राम सेवक तथा 2 ग्राम सेविकाएँ होती हैं। जनता का सहयोग प्राप्त करने के लिए 1959 में पंचायती राज की स्थापना की गई।
वित्तीय व्यवस्था
सामुदायिक विकास प्रायोजनाएँ सरकार और जनता दोनों के प्रयत्नों पर आधारित है। प्रत्येक विकास खण्ड में विकास प्रायोजनाओं की प्रगति इस बात पर निर्भर करती है कि जनता कहाँ तक इन्हें अपना सहयोग देती है। जनता का सहयोग रुपए, वस्तुओं और श्रम किसी रूप में भी हो सकता है। सरकार के अन्तर्गत केन्द्रीय और राज्य सरकार दोनों का भाग होता है। उत्पादन कार्यक्रमों, जैसे सिंचाई आदि की विकास प्रायोजनाओं में केन्द्रीय सरकार राज्य सरकारों को ऋण देती है। विकास खण्डों में राज्य सरकारें जिन व्यक्तियों को काम पर लगाती हैं उनके खर्चे का आधा भाग केन्द्रीय सरकार वहन करती है। 31 मार्च, 1966 को सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं में जनता का भाग 151.30 करोड़ रुपये और सरकारी खर्च 502.22 करोड़ रुपये था इस प्रकार जनता का हिस्सा सरकार के कुल व्यय का लगभग 32 प्रतिशत था। सन् 1978-79 में ‘सामुदायिक विकास कार्यक्रम’ का ‘समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम में विलय कर दिया गया।
ग्रामीण जीवन के लिए सामुदायिक विकास प्रायोजना का महत्त्व
ग्रामीण समुदाय के जीवन के लिए सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं के महत्त्व को द्वितीय योजना में इन शब्दों में स्पष्ट किया गया था, “जनतन्त्रीय नियोजन में विस्तार सेवाएँ और सामुदायिक संगठन प्राण-शक्ति के मुख्य स्रोत हैं और ग्राम विकास सेवाएँ वे साधन हैं जिनके द्वारा सहयोग, आत्म सहायता और स्थानीय प्रयत्नों से ग्राम और ग्राम-समूह अधिकाधिक मात्रा में सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक उन्नति दोनों प्राप्त कर सकते हैं और राष्ट्रीय योजना में भागीदार बन सकते हैं।”
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू ने इन प्रायोजनाओं के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा था, “में समझता हूँ कि पिछले कुछ वर्षों में विश्व के किसी भी देश में कोई इतनी महत्त्वपूर्ण घटना नहीं घटी जितनी कि भारत में सामुदायिक विकास का शुभारम्भ।”
सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं से गाँव के जीवन में सामाजिक और आर्थिक सुधार होगा। ग्रामीण जीवन पर इन विकास प्रायोजनाओं के मुख्य प्रभाव निम्नलिखित है—
(1) कृषि का विकास – कृषि ग्रामीण आर्थिक जीवन का आधार है। गांव का सुख और समृद्धि खेती की उन्नति पर आधारित है। भारत के गाँवों में दरिद्रता का मुख्य कारण खेती का पिछड़ापन है। भारतीय खेती की मुख्य समस्याएँ हैं-खेती के पुराने तरीके, नये औजारों की कमी, उर्वरकों और खाद का अभाव, आर्थिक जोतों का छोटे-छोटे खेतों में विखण्डन, सिंचाई के साधनों की कमी, भूमि कटाव, कीटनाशक दवाइयों की कमी इत्यादि। सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं ने भारतीय कृषि की अनेक समस्याओं को हल करने का प्रयास किया है। खेती की नई विधियों का गाँवों में प्रदर्शन किया जाता है। खाद, बीज, आजारों तथा उर्वरकों का वितरण किया जाता है। सामुदायिक योजनाओं के अन्तर्गत पुराने कुओं की मरम्मत की जाती है और नये कुएं बनवाए जाते हैं जिससे किसानों को सिचाई को आवश्यक सुविधाएँ प्राप्त हो सकें। भूमि संरक्षण के उपाय किए जाते हैं।
(2) आर्थिक विकास– भारत में ग्रामीण जीवन की सबसे बड़ी समस्या गरीबी है। सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं ने कुटीर उद्योगों और दस्तकारियों को प्रोत्साहन दिया है। सहायक और हितकारी सेवाओं द्वारा बेकार लोगों को काम दिलाने का प्रयास किया जाता है। यद्यपि ये प्रयास अभी अपर्याप्त है, परन्तु आशा है कि इन प्रयत्नों को उत्तरोत्तर बढ़ाने से भविष्य में ग्रामवासियों का जीवन सुखमय हो जायेगा।
(3) पशु सम्बन्धी विकास- भारतीय ग्रामों की एक बड़ी समस्या पशुओं की बुरी दशा है। भारत में अब भी खेत जोतने के लिए अधिकतर बैल तथा अन्य पशुओं से ही काम लिया जाता है। सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं ने पशुओं की नस्ल सुधारने के लिए उत्तम जाति के सांडों का प्रबन्ध किया है। पक्षी-पालन के विकास के लिए सुधरे पक्षियों का भी प्रबन्ध किया गया है।
(4) शिक्षा का विकास– भारत के गाँवों में अधिकांश लोग अशिक्षित और निरक्षर हैं। इस कारण उनमें आधुनिक ज्ञान का भी बड़ा अभाव है। शिक्षा के विकास तथा विस्तार के बिना भारत के गाँवों में किसी भी प्रकार के सुधार की आशा नहीं की जा सकती। सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं ने चालकों और वयस्कों, स्त्री-पुरुष सभी की शिक्षा की ओर समुचित ध्यान दिया है। प्राथमिक तथा प्रौढ़ शिक्षा के लिए स्कूल खोले गए हैं। सामाजिक शिक्षा का प्रबन्ध किया गया है।
(5) विकास के लिए प्रशिक्षण- भारत के गाँवों में सामाजिक एवं आर्थिक विकास यों ही नहीं किया जा सकता, इसके लिए प्रशिक्षित (trained) कर्मचारियों और स्वयं सेवकों की आवश्यकता है। सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं में ग्राम सेवकों, ग्राम सेविकाओं, खण्ड विकास अधिकारियों तथा ग्राम विकास से सम्बन्धित अन्य व्यक्तियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है।
(6) परिवहन के साधनों का विकास- भारत के गाँवों में परिवहन के साधनों की बड़ी कमी है जिससे व्यापार, उद्योग आदि में बड़ी बाधा आती है। सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं ने पुरानी सड़कों का पुनरुद्धार किया है और नई सड़कों का निर्माण किया है। आवश्यक स्थानों पर पुलियाओं का निर्माण किया गया है। इससे व्यापार तो बढ़ेगा ही, साथ-साथ गाँव वालो का बाहर की दुनिया से सम्पर्क भी बढ़ेगा।
(7) सफाई- भारत के गाँवों में गन्दगी का बोलबाला है। इससे अनेक प्रकार की बीमारियों फैलती हैं और स्वास्थ्य का स्तर नीचा रहता है। सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं में गाँव की सफाई की ओर ध्यान दिया गया है। लाखों गज लम्बी नालियों बनाई गई हैं और गांवों में पानी के कुओं को साफ रखने का प्रबन्ध किया गया है।
(8) स्वास्थ्य रक्षा और उपचार- भारत के गाँवों में बीमारियों के कारण स्त्री, बच्चों पुरुषों की भारी संख्या में मृत्यु होती है। गांवों में दवा-दारू और प्रसूति का कोई उचित प्रबन्ध नहीं है। इससे स्त्री व बच्चों के स्वास्थ्य की दशा बड़ी खराब है। सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं में प्रत्येक विकास खण्ड में एक स्वास्थ्य केन्द्र की व्यवस्था की गई है। चिकित्सालयों तथा चलते-फिरते औषधालयों (mobile dispensaries) की भी व्यवस्था की गई है। मिडवाइफों और नसों के प्रशिक्षण का भी प्रबन्ध किया गया है।
(9) मकानों की व्यवस्था – गाँवों में अधिकांश मकान पुराने ढंग के और छोटे-छोटे होते हैं। सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं ने गाँव वालों को मकान बनाने में सहायता देने का आयोजन किया है और मकानों के नए-नए डिजाइन तैयार करने तथा अच्छे और सस्ते मकान बनाने की व्यवस्था की है।
(10) सामाजिक कल्याण- सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं ने गाँवों में सामाजिक कल्याण की ओर भी ध्यान दिया है। खेल, तमाशा आदि से जनता के मनोरंजन का प्रबन्ध किया जाता है। ग्रामोफोन, रेडियो, सिनेमा आदि से जनता का, नवीन ज्ञान की प्राप्ति के साथ-साथ मनोरंजन भी होता है।
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