साहित्यिक पत्रकारिता से आप क्या समझते हैं? विवेचना कीजिए।
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साहित्यिक पत्रकारिता : अर्थ तथा परिभाषा
- मनुष्यों को महत् भावों की ओर अग्रसर कराने के लिए ही साहित्य की सृष्टि होती है।
- साहित्य में हृदय का इतिहास व्याप्त रहता है, जैसे- प्रेम में आकर्षण, श्रद्धा में विश्वास और करुणा में कोमलता।
- साहित्य में पाप के दमन और पुण्य के उदय द्वारा द्विविध चित्रों से निवृत्ति और प्रवृत्तिमूलक शिक्षा दी जाती है।
- साहित्य यह जानता है कि हत्या काव्य नहीं है।
- साहित्य का सम्बन्ध ही मनुष्य के हृदय अथवा अन्तर्जगत से है, वह अन्तर्भावनाओं का बाह्य स्वरूप है।
- प्रकृति का आवरण दूर करके अन्तिम सत्य का रूप जानने की चेष्टा साहित्य में की गयी है।
- समाज से, जनता के हृदय से पृथक हो जाने पर तो साहित्य का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता।
- साहित्य ही बताता है कि सब देव हैं और सब में दानव भी।
- साहित्य जातियों और रूढ़ियों को पारकर द्वन्द्व का भाव मिटाने का प्रयत्न करता है।
- साहित्यकार अपनी अनुभूतियों को सभी वस्तु में आरोपित करता है।
- साहित्य के अन्तर्गत वह सारा वाङ्मय लिखा जा सकता है, जिसमें अर्थबोध के अतिरिक्त भावोन्मेष अथवा चमत्कारपूर्ण अनुरञ्जन हो ।
मुखर पत्रकार हेरम्ब मिश्र के इस विचार से सहमति व्यक्त की जा सकती है कि हिन्दी हो अथवा और कोई भाषा, उसका साहित्य किसी समय पत्रकारिता से भले ही अलग न रहा हो बाद में तो जब दैनिक पत्रों की पत्रकारिता व्यापक होने लगी और पत्रकारिता नाम लेते ही सीधे दैनिक पत्रों की ही ओर ध्यान जाने लगा, वह अलग हो ही गया।
जो कुछ भी हों, दैनिक पत्रों को साहित्य से सर्वथा अलग नहीं रखा जा सकता। प्रख्यात साहित्यकार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने एक बार कहा था-कुशल पत्रकार साहित्यकार से भिन्न नहीं होता।
प्रतिष्ठित पत्रकार राजनीतिज्ञ पं० कमलाप्रसाद त्रिपाठी ने अपनी अभिव्यक्ति दी थी, ‘कवि के लिए अनुभूति की अभिव्यक्ति का आलोचक के लिए जीवन की स्थूल और सूक्षम धारा के विवेचन को, साहित्य के लिए लौकिक और अलौकिक, यथार्थ और भावुक जगत को प्रकाश में लाने का पथ एक साथ ही उपस्थित करने में सिवा पत्रकारिता के आज कौन समर्थ है?’ साहित्य के छोटे-बड़े प्रवाहों को प्रतिबिम्बत करने में पत्रकारिता के समान दूसरा कौन सफल होता है ।
तटस्थ भाव से पत्रकारिता और साहित्य के अन्तर्गत बिन्दुओं को समझने से जिन विचारों का उदय होता है, वह निम्नलिखित है-
साहित्यिक पत्रकारिता का परिचय एवं इतिहास
सरस्वती से लेकर हंस तक साहित्यिक पत्रकारिता की समृद्ध परम्परा रही है। इस काल की साहित्यिक पत्रिकाएँ हिन्दी-क्षेत्र के विवेक और प्रातिभ ऊर्जा की समग्रता में प्रतिनिधित्व करती थीं। आजादी के बाद 1960 तक यह परम्परा रही। वर्तमान में हिन्दी पत्रकारिता का समृद्ध शिल्प विधान हिन्दी की शक्ति का ज्वलंत प्रमाण है। पुरानी पीढ़ी के हिन्दी पत्रकार स्वभाषा गर्व से स्फूर्त थे। अपनी भाषा की उन्नति को वे समग्र उन्नति मूल मानते थे। हिन्दी पत्रकारिता के सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि प्रायः सभी प्रमुख साहित्यकारों का सम्बन्ध एक न एक पत्रिका से रहा है।
गाँधी युग की जातीय चेतना को उभारने वालों में प्रमुख पत्रकार थे बाबूराव विष्णु पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी और माखनलाल चतुर्वेदी जिन्हें सत्य अहिंसा पर आधारित गाँधीजी की राजनीति और सत्याग्रह की महत्ता मालूम थी।
राष्ट्रीय उद्वेलन पर टिप्पणी करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा था लेना, यह पथ कमजोरों का है। इस पथ के पापियों ने सभ्यताओं का संहार किया है और मेदिनी के शरीर से खून के झरने बहाये हूँ।” सत्याग्रह की महत्ता को बताते हुए उन्होंने पुनः कहा – “सत्याग्रह वहाँ भी विजयी होता है जहाँ कमांडरों की क्रूरता मनुष्यता को रक्त स्नान करा रही हो।”.
उर्दू के प्रसिद्ध शायर फिराक ने भी स्वीकार किया था कि चतुर्वेदी जी को स्वकीय “शस्त्र विचार सम्पदाओं ने उनकी तरह हजारों नौजवानों में नई ऊर्जा का संचार किया था।”
पत्रकारिता और साहित्य ने परस्पर एक-दूसरे का सहारा लिया और सहारा बने। पत्रकारिता और साहित्य में उतना ही अन्तर समझना चाहिए जितना शास्त्रीय और सुगम संगीत में है। संगीत दोनों में हैं, परन्तु एक को जाने बिना दूसरे में डूबना कठिन है। हल्के फुल्के सिनेमाई गीत अगर कोई गुनगुनाता है तो वह स्वतः संगीत की गहराई में पहुँचना चाहता है। फलतः साधना कर शास्त्रीय संगीत में निपुणता प्राप्त करने की चेष्टा करता है।
पत्रकारिता के साहित्यिक महत्व को नकारने वालों का लक्ष्य कर आचार्य शिवपूजन सहाय ने लिखा है कि- “हिन्दी दैनिकों ने जहाँ देश को उद्बुद्ध करने में अथक प्रयास किया है वहाँ जनता में साहित्यिक चेतना जगाने का भी श्रेय पाया है।”
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालकृष्ण भट्ट, बाबूराव विष्णु पराड़कर, शिवपूजन सहाय, प्रेमचन्द, निराला आदि द्वारा पत्रों में लिखित स्तम्भ साहित्य छोड़ चुके हैं जिनको सार्वकालिक महत्व नकारा नहीं जा सकता।
1874 की ‘कविवचन-सुधा’ में भारतेन्दु द्वारा एक प्रतिज्ञा पत्र प्रकाशित हुआ-
“हम लोग सर्वान्तर्यामी सब स्थल में वर्तमान सर्वद्रष्टा और नितयं सत्य परमेश्वर को साक्ष्य देकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा न पहिरेंगे और जो कपड़ा के पहले से मोल ले चुके हैं और आज की मिति तक हमारे पास है उसको तो जीर्ण हो जाने तक काम में लावेंगे पर नवीन मोल लेकर किसी भाँति का भी विलायती कपड़ा न पहिरेंगे, हिन्दुस्तान का ही बना कूपड़ा पहिरेंगे। हम आशा रखते हैं कि इसको बहुत ही क्या प्रायः सब लोग स्वीकार करेंगे और अपना नाम इस श्रेणी में होने के लिए श्रीयुत बाबू हरिश्चन्द्र की अपनी मनीषा प्रकाशित करेंगे और सब देश हितैषी इस उपाय की वृद्धि में अवश्य उद्योग करेंगे।”
भारतेन्दु की इस अभीप्सा पर डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी की टिप्पणी थी “बंगाल में आरम्भ हुई पुनर्जागरण चेतना मध्य प्रदेश पहुँचकर अधिक प्रखर रूप में राष्ट्रीय हो जाती है और उसके वाहक बनते हैं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ।”
1880 के ‘उचित वक्ता के सम्पादकीय में जातीय मानस की पीड़ा प्रकट की गयी है— “भारतवर्ष का अंग्रेज राजपुरुषों ने शोषण कर लिया है। इसे ऐसा दूहा है कि अब अस्थिचर्मावशिष्ट हो गयी है इसके शरीर में रक्त-माँस का लेशमात्र भी नहीं रहा।”
‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा- “भारतवर्ष के जिन-जिन अंचलों में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित होता गया, उन सब स्थानों में दरिद्रता छाती गयी।”
1879 की ‘सार-सुधानिधि’ में सदानन्द मिश्र ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है— “प्रजा के आवेदन पर नजर नहीं करना अति-संकीर्ण राजनीति है। इस प्रकार की नीति अवलम्बन करने से राज्य भी बहत दिन तक रहने का नहीं।”
स्पष्ट है कि देश की स्थिति और अंग्रेजों के कुशासन पर बेबाक प्रतिक्रिया करने वाले पत्रकारों और साहित्यकारों ने समय को पहचान कर ही अपनी लेखनी से काम लिया था। ऐसे भी इतिहास साक्षी है कि पहले पत्रकार, गद्यकार और साहित्यकार भी था। आज की स्थिति भले ही थोड़ी परिवर्तित मालूम पड़े, परन्तु लगभग पुरानी स्थिति ही ज्यादा बेहतर मानी जा सकती है।
उदाहरण के तौर पर गाँधी युग के प्रमुख पत्र को लें। पहला- ‘मतवाला’, दूसरा ‘आदर्श’ और इन दोनों के सम्पादक थे बाबू शिवपूजन सहाय। इसी समय कलकत्ता से दो अन्य पत्र निकले, जिनसे हिन्दूवाद उभरकर सामने आया हिन्दू पंच और सेनापति ।
‘हंस’ के बाद जिन पत्रिकाओं ने अपनी उपस्थिति से लोगों को अपनी ओर खींचा इनमें प्रमुख चाँद, सुधा, मनोरमा, नई धारा, संगम, आलोचना, नया समाज, कल्पना, ज्ञानोदय, राष्ट्रवाणी, आजकल, नई कहानियाँ आदि थे।
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