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अपभ्रंशकालीन जैन कवियों का परिचय एवं विशेषताएँ
इन कवियों के काव्य में साहित्य की सामग्री मिलती है। साथ ही इस काव्य के दो रूप मिलते हैं-
(1) धार्मिक आश्रय-युक्त रचनाएँ- इसमें ऐसी रचनायें आती हैं जो धार्मिक आश्रय पाकर अपने मूल रूप अर्थात् प्रामाणिक रूप में सुरक्षित बनी रहीं और जब जैन प्रन्यागरों में प्राप्य हैं।
(2) धार्मिक-इतर रचनाएँ- ये रचनायें धार्मिक तो हैं ही, साथ ही इनमें तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों की अच्छी झलक मिलती है। डॉ. जयकिशन प्रसाद के अनुसार- “ये रचनाएँ हमें तत्कालीन परिस्थितियों एवं परवर्ती लोक भाषा के काव्य रूपों का उदभव एवं विकास समझने में सहायता देती हैं। इन रचनाओं से उस काल की भाषा, परिस्थितियों एवं प्रवृत्तियों का स्वरूप भी स्पष्ट हो जाता है। जहाँ तक काव्य रूपों का सम्बन्ध है, आदिकालीन चरित-काव्यों का विकास करने वाले जैन अपभ्रंश के तीन प्रसिद्ध कवि स्वयंभू, पुष्पदत्त और धनपाल हैं। इन कवियों ने उत्कृष्ट काव्यों की रचना की है। डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में- “इन चरित-काव्यों के अध्ययन से परवर्ती काल के हिन्दी साहित्य के कथनकों, कथनक-रूढ़ियों, काव्य-रूपों, कवि-प्रसिद्धियों, छन्द-योजना, वर्णन शैली, वस्तु-विन्यास, कवि-कौशल आदि की कहानी बहुत स्पष्ट हो जाती है। इसलिए इन कवियों से हिन्दी साहित्य के विकास के अध्ययन में बहुत महत्वपूर्ण सहायता प्राप्त होती है।”
प्रमुख कवि और काव्य
(1) हेमचन्द्र- ये अपने समय के सबसे प्रसिद्ध जैन आचार्य थे। इनका ‘सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन’ व्याकरण प्रन्थ प्रसिद्ध है। इसमें उन्होंने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश-तीनों का समावेश किया है। इसके अतिरिक्त ‘द्वयाश्रय-काव्य’ की भी रचना की है, जिसके अन्तर्गत ‘कुमारपाल चरित’ नामक एक प्राकृत काव्य भी हैं। इनके व्याकरण का एक उदाहरण देखिये-
पिय संगमि कउ निद्दड़ी ? पिय ही परक्खहो कैव।
मई विनिवि बिन्नासिया, निद्द न राँच न तैव ॥
(प्रिय के संगम में नींद कहाँ और प्रिय के परोक्ष में भी क्यों कर आवै ? मैं दोनों प्रकर से विनाशिता हुई, न यो नींद न त्यों ।)
(2) क्षोभप्रभ सूरि- इनका ‘कुमारपाल प्रतिबोध’ नामक गद्य-पद्यमय संस्कृत-प्राकृत काव्य सम्वत् 1241 का मिलता है। इसके एक दोहे के यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-
बेस बिसिइ बरियइ जइबि मणोहर गत्त ।
गंगाजल पक्खालियवि सुणिहि कि होइ पवित ॥
(वंश विशिष्टों के वारिए अर्थात् बचाइये, यदि मनोहर मात्र हो तो भी गंगाजल से धोई कुतिया क्या पवित्र हो सकती है ?)
(3) जैनाचार्य मेरूतुंग- इन्होंने सम्वत् 1361 में ‘प्रबन्ध चिन्तामणि’ नामक एक संस्कृत ग्रन्थ बनाया, जिसमें बहुत से प्राचीन राजाओं के आख्यान संग्रहित किए। इन आख्यानों में पद्म भी उद्धृत हैं।
(4) विद्याधर- इन्हें शुक्ल जी ने 13वीं शताब्दी का माना है। इनका ग्रन्थ ‘प्राकृत पिंगल सूत्र’ है। जिसमें कन्नौज के किसी राठौर सम्राट के प्रताप पराक्रम का वर्णन है। यथा-
भअभज्जिअ बंगा भंगुकलिंगा तेलंगा रण मुत्ति चले ।
मरहट्ठाधिट्ठा लग्गिअ कट्ठा सोरट्ठा भअ पाअ पले ॥
(5) शांर्गधर- इनका आर्युवेद का ग्रन्थ तो प्रसिद्ध ही है। साथ ही ये अच्छे कवि और सूत्रकार भी थे। इन्होंने ‘शांगघर पद्धति’ के नाम से एक सुभाषित संग्रह भी बनाया है। आचार्य शुक्ल ने इनका समय 14वीं शताब्दी का अन्तिम चरण में माना है। इन्होंने ‘हम्मीर रासो’ नामक वीरगाथा काव्य की भी भाषा में रचना की थी। इनके काव्य की एक झलक देखिये-
ढोला मारिय ढिल्लि मुहँ मुच्छिउ मेच्छ-सरीर।
पुरणज्जल्ला मेतिवर चालिअ वीर हम्मीर ।।
(6) कवि स्वयम्भू- इनका काल 783 ई. के आस-पास माना जाता है। इनकी तीन रचनाओं का उल्लेख है- पउमचरिउ’, ‘रिट्टणेमिचरिउ’ तथा ‘स्वयम्भू छन्द’ ।
(7) मुनिराज रामसिंह – इनका समय सम्वत् 1000 के लगभग माना जाता है, इनकी रचना ‘पाछुड़दोहा’ है, जिसमें उपदेश है ।
(8) पुष्यदत्त – इनका काल 10वीं सदी के आस-पास माना जाता है। इनकी रचनाएँ हैं- ‘णायकुमार चरिउ’, ‘महापुराण’ और ‘जसहर चरिठ’ । इनमें ‘महापुराण’ जैन धर्म का उत्तम ग्रन्थ है जो अपनी काव्यगत विशेषताओं के कारण काव्य-क्षेत्र में भी विशेष प्रतिष्ठा है।
(9) धनपाल – ये भी 10वीं सदी के आस-पास के कवि हैं। इनका ‘भविसयतकहा’ लोकप्रिय काव्य है।
(10) कवि घाहिल- ये भी 1वीं सदी के आस-पास के कवि हैं। इनकी रचना ‘पउमसिरी चरिउ’ काव्य-गुण सम्पन्न हैं।
(11) महाकवि वीर- इनका समय 11वीं शताब्दी है। इनका ‘जम्बूसामी चरिठ’ वीर एवं श्रृंगार रस का काव्य है।
(12) नयनन्दि- इनका महाकाव्य ‘सुन्दसण चरिउ’ सम्वत् 110 का है।
(13) मुनि कनकामर- ये 12वीं शताब्दी के हैं। इनका ‘करिकण्ड चरित’ एक धार्मिक चरित-काव्य है।
जैन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ- डॉ. जयकिशन प्रसाद के अनुसार जैन साहित्य की अनेक विधाओं में चरित काव्य, कथात्मक काव्य, रासो ग्रन्थ, जैन स्रोत, सन्धि ग्रन्थ, चूनरी, चर्चरी, कुलक तथा उपदेश-प्रधान आध्यात्मिक ग्रन्थ हैं। डॉ. जयकिशन प्रसाद के अनुसार उनकी प्रवृत्तियाँ संक्षेप में इस प्रकार हैं-
(1) चरित काव्य- इस काव्य में चरित काव्यों की दीर्घ परम्परा मिलती है जिसमें काव्य-सौन्दर्य झलकता है। ये ग्रन्थ प्रायः दो प्रकार के हैं- (i) जिनमें त्रिषष्टि श्लाका पुरुषों का वर्णन है। यथ-जसहर, पासणाह चरिउ आदि । (ii) जिनमें धार्मिक पुरुषों के जीवन चरित मिलते हैं। यथ-पउमसिरी चरिउ, भवियत्त चरिउ।
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार- ‘इधर जैन अपभ्रंश चरित-काव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध है। वह सिर्फ धार्मिक सम्प्रदाय की मुहर लगाने मात्र से अलग कर दी जाने योग्य नहीं है। स्वयंभू, चतुर्मुख, पुलस्यदत्त और धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्य-क्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते।’
(2) कथात्मक ग्रन्थ- इन प्रन्थों के माध्यम से सदाचार के सिद्धान्तों को जनमानस तक पहुँचाना श्रेय है। जनसामान्य को प्रभावित करने हेतु कथात्मक साहित्य उपयोगी है। अतः धार्मिक विषय को स्पष्ट करने हेतु कथा समन्वित ग्रन्थों की रचना की गयी। डॉ. जयकिशन प्रसाद की मान्यता है- “अमरकीर्ति रचित ‘छक्ककमोकएस’ (पट्कर्मोपदेश) में कवि ने गृहस्थों को देव-पूजा, गुरू सेवा, शस्त्राभ्यास, संयम, तप और दान-इन षट्कर्मों के पालन का उपदेश सुन्दर कथाओं द्वारा दिया है। “
(3) रासौ काव्य- ये धार्मिक ग्रन्थ हैं। जिन दत्त सूरि कृत ‘उपदेश रसायन’ रास में धार्मिकों के कृत्यों का उल्लेख करते हुए गृहस्थे के लिए उपदेश हैं।
(4) जैन स्रोत- इनमें तीर्थंकर या पौराणिक पुरुष अथवा गुरू की स्तुति है। अभयदेव सूरि कृत ‘जयतिहुयण स्तोत्र’ प्रमुख ग्रन्थ हैं।
(5) सन्धि ग्रन्थ – इन ग्रन्थों में एक या दो सन्धियों में किसी एक पौराणिक पुरुष या प्रसिद्ध पुरुष का चरित है।
(6) चूनरी, चर्चरी और कुलक- डॉ. हरिवंश कोछड़ के अनुसार- “विनयचन्द्र मुनि को लिखी चूनरी में लेखक ने धार्मिक भावनाओं और सदाचारों की रँगी चूनरी ओढ़ने का उपदेश दिया है। जिनदत्त सूरि रचित चर्चरी में गुरू का गुणगान है।”
(7) उपदेश-प्रधान ग्रन्थ- इनमें उपदेशात्मकता प्रमुख होने के कारण काव्यात्मकता गौण हो गयी है। योगीन्दु का परमात्मप्रकाश और योगसार इसी कोटि के हैं। ऐसे ग्रन्थों में आत्मस्वरूप, आत्मज्ञान, संसार की असारता और वैराग्य भावना का प्रतिपादन है।
(8) शैली- शैली की दृष्टि से इनके काव्य, महाकाव्य, खण्ड-काव्य और मुक्तक काव्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। डॉ. हरिवंश कोछड़ ने इनके महाकाव्यों का साहित्यिक मूल्यांकन इस प्रकार किया है- “इन ग्रन्थों में अनेक काव्यात्मक सुन्दर स्थल मिलते हैं। महाकाव्य प्रतिपादित लक्षण इनमें भी न्यूनाधिक रूप में पाये जाते हैं। किसी नायक के चरित का वर्णन, श्रृंगार, वीर, शान्तादि रसों का प्रतिपादन, संध्या, रजनी, सूर्योदय, चन्द्रोदय आदि प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन भी है।
उपसंहार – यह माना जाता है कि इनमें धार्मिकता प्रधान रहने के कारण काव्य-रस पूर्ण रूप से उभरकर सामने नहीं आ पाया, फिर भी इन्हें सुन्दर काव्य ग्रन्थ माना गया है साहित्य में इनका महत्व है।
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