हिन्दी साहित्य

कबीर की भाषा की मूल समस्याएँ

कबीर की भाषा की मूल समस्याएँ
कबीर की भाषा की मूल समस्याएँ

कबीर की भाषा

कबीर की कृतियों का अध्ययन करने से पता चलता है कि उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम को किसी एक भाषा तक ही सीमित नहीं रखा उनकी भाषा न केवल हिन्दी, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं का मिश्रण ही है, बल्कि उसमें खड़ी बोली, अवधी, भोजपुरी, पंजाबी, मारवाड़ी आदि अनेक उपभाषाओं का भी प्रयोग हुआ है। यूं तो प्रायः सभी भाषाओं में किसी न किसी मात्रा में अन्यान्य विशेष भाषाओं के शब्दों का प्रयोग मिलता है, किन्तु फिर भी प्रत्येक भाषा किसी न किसी नाम से पुकारी जाती है, उदाहरणार्थ, हिन्दी भाषा को ले लीजिये, उसमें उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया जाता है इस पर भी न तो हम उसे हिन्दी के अतिरिक्त किसी अन्य नाम से पुकारते हैं और न ही उसे पंचमेल खिचड़ी कहकर संतोष कर लेते हैं, फिर अनेक भाषाओं तथा उपभाषाओं के सम्मिश्रण होने के कारण कबीर की भाषा को ‘साधुक्कड़ी’ या पंचमेल खिचड़ी क्यों कहा जाता है ? कारण स्पष्ट है। किसी भाषा के स्वरूप उसके शब्दों के आधार पर निर्धारित नहीं किया जाता बल्कि भाषा के स्वरूप निर्धारण में उसमें प्रयुक्त क्रिया पदों, कारकों तथा सर्वनामों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। कबीर की भाषा न केवल शब्दों की ही खिचड़ी है, बल्कि वह क्रिया पदों, कारकों सर्वनामों की दृष्टि से भी खिचड़ी है।

कबीर की भाषा की मूल समस्याएँ

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और उनकी गोल के आलोचकों ने कबीर को न तो कवि माना और न ही काव्योचित आदर दिया। इसी कारण कबीर वाणी के भाव पक्ष का ही अध्ययन किया गया तथा कला पक्ष की प्रायः अवहेलना की गयी। कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी, खिचड़ी, पंचरंगी आदि कहने के पीछे तत्संबन्धी वास्तविकता को उद्घाटित करने से कहीं अधिक यहीं अवहेलना की दृष्टि प्रतीत होती है।

बाबू श्यामसुन्दर दास जैसे प्रसिद्ध भाषा-वैज्ञानिक भी कुछ क्रियापदों और कारक-चिन्हों की चलती चर्चा करके अन्त में कबीर ग्रंथावली की भाषा को ‘पंचमेल-खिचड़ी’ बता कर छुट्टी कर लेते हैं। इन आलोचकों के ये कथन कबीर की भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में एक ऐसे पूर्वाग्रह को पुष्ट करते हैं कि जिसका मोह-बंधन त्याग कर इस विषय का स्वतंत्र अध्ययन कम ही हो सका है। वास्तव में कबीर की भाषा का अध्ययन तीन दृष्टियों से होना चाहिए-

  1. काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से कबीर की भाषा।
  2. जन-वाणी की दृष्टि से कबीर की भाषा।
  3. भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से कबीर की भाषा।

इन दृष्टि-बिंदुओं को आधार बनाकर कबीर के भाषा सम्बन्धी अनुशीलन में कुछ विशेष समस्याओं का सामना करना पड़ता है जैसे –

(1) कबीर वाणी का प्रमाणिक पाठ किसे माना जाए-कबीर पंथावली को, आदि-ग्रंथ को (जिसका उल्टा डा० रामकुमार वर्मा ने ‘संत-कबीर’ के नाम से प्रकाशित) या बीजक को।

(2) कबीर वाणी में विभिन्न बोलियों या क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग मिलते हैं। क्या कबीर वाणी की कोई मूलाधार बोली या भाषा भी है ?

(3) स्वयं ‘मसि कागज’ न छूने वाले कबीर की वाणी मौखिक परम्परा से होकर ही लिपिबद्ध हुई है अतएव उसके पदों आदि के मौलिक रूप का निर्धारण तथा पाठ भेद की शंकाओं का निवारण कैसे हो।

(4) अशिक्षित कबीर की वाणी में व्याकरणिक अव्यवस्था का होना स्वाभाविक है। अतएव ऐसी स्थिति में कबीर की वाणी को व्याकरणिक कसौटी पर कस कर कोई निर्णय देना उपयोगी हो सकता है या नहीं।

इस प्रकार कबीर की भाषा परीक्षण कई जटिल समस्याओं और उलझनों से परिपूर्ण है। हम केवल पंचरंग मेल, सधुक्कड़ी आदि कहकर उसके अध्ययन की अवहेलना कर सकते हैं किन्तु उसकी भाषा के स्वरूप और शक्ति का परिचय पाने के लिए तो हमें इस अव्यवस्थित और असाधु भाषा की छान-बीन करनी ही होगी।

कबीर की भाषा के सम्बन्ध में विभिन्न मत

(1) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत- शुक्ल जी कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी नाम से अभिहित करते हैं। उन्होंने बुद्ध चरित्र की भूमिका में सधुक्कड़ी का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है- “कबीरदास ने यद्यपि पचरंगी मिली-जुली भाषा का व्यवहार किया है जिसमें बजभाषा का उस खड़ी बोली या पंजाबी तक से पूरा मेल है जो पंथ वालों की सधुक्कड़ी भाषा हुई, पर पूरब का मेल उसमें अधिक है। “

शुक्ल जी ने सधुक्कड़ी भाषा पर निम्नलिखित टिप्पणियाँ दी हैं-

(1) “खड़ी बोली मुसलमानों की भाषा हो चुकी थी। मुसलमान भी साधुओं की प्रतिष्ठा करते थे, चाहे वे किसी दीन के हों। इससे खड़ीबोली दोनों धर्मों के अनपढ़े लोगों को साथ लगाने वाले और किसी एक के भी शास्त्रीय पक्ष से सम्बन्ध न रखने वाले साधुओं के बड़े काम की हुई। जैसे इधर अंग्रेजों के काम की हिन्दुस्तानी हुई । “

(2) ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में शुक्लजी का कहना है- “कबीर आदि सन्तों को नाथ-पंथियों से जिस प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ शब्द मिले उसी प्रकार साखी और बानी के लिए बहुत कुछ सामग्री और सधुक्कड़ी भाषा भी । “

(3) कबीर की भाषा में खड़ी, ब्रज, राजस्थानी आदि का मेल है, यह हम बराबर देखते आए हैं। पर इसका सधुक्कड़ी नाम मुख्यतः यह सूचित करता है कि यह सामान्य काव्य भाषा से अलग साधुओं की कृत्रिम भाषा है।

(2) बाबू श्यामसुन्दर दास का मत- “कबीर ग्रन्थावली” की प्रस्तावना में कबीर की भाषा का विवेचन करते हुए उन्होंने लिखा है-

“कबीर में केवल शब्द ही नहीं, क्रियापद, कारक चिन्हादि भी कई भाषाओं में मिलते हैं। क्रियापदों के रूप अधिकतर बज भाषा और खड़ी बोली के हैं। कारक चिन्हों में से ‘कै’, ‘सन’, ‘सा’ आदि अवधी के हैं। ‘कौ’ ब्रज का है और ‘ये’ राजस्थानी का यद्यपि उन्होंने स्वयं कहा है- “मेरी बोली पूरबी’, तथापि खड़ी, बज, राजस्थानी, पंजाबी, अरबी-फारसी आदि अनेक भाषाओं का पुट भी उनकी उक्तियों पर चढ़ा हुआ है। पूरबी से उनका क्या तात्पर्य है यह नहीं कह सकते। उनका बनारस-निवास पूरबी से अवधी का अर्थ लेने के पक्ष में है, परन्तु उनकी रचना में बिहारी का भी पर्याप्त मेल है; यहाँ तक कि मृत्यु के समय उन्होंने मगहर में जो पद कहा है उसमें मैथिली का भी कुछ संसर्ग दिखायी देता है। यदि ‘बोली’ का अर्थ मातृ-भाषा लें और ‘पूरब’ का बिहारी, तो कबीर के जन्म के विषय पर एक नया ही प्रकाश पड़ जाता है। उनका अपना अर्थ जो कुछ भी हो, पर पाई जाती हैं उनमें अवधी और बिहारी दोनों बोलियाँ।

(3) डॉ० रामकुमार वर्मा का मत- कबीर की भाषा में पंजाबीपन अधिक है। कबीर की भाषा में भोजपुरी के पुट की चर्चा करते हुए डा० रामकुमार वर्मा ने सोदाहरण परिचय देने के उपरांत यह मत प्रकट किया है कि कबीर की भाषा के बहुत से शब्द रूप मूल में भोजपुरी ही थे किन्तु लिपिकारी द्वारा यहाँ भी रूपान्तर प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है।

(4) डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत- कबीर की भाषा पर विचार करते हुए डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-

“भाषा पर कबीर का जबर्दस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को जिस रूप में उन्होंने प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया है- बन गया है तो सीधे साधे, नहीं तो दरेरा देकर भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नजर आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को नाही कर सके और अकह कहानी का रूप देकर मनोमाही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत कम लेखकों में पाई जाती है। असीम अनन्त ब्रह्मानन्द में आत्मा का साक्षीभूत होकर मिलना कुछ वाणी के अगोचर-पकड़ में न आ सकने वाली ही बात है। पर बेहद्दी मैदान में रहा कबीरा सोय’ में न केवल उस गम्भीर निगूढ़ तत्व को मूर्तिमान कर दिया गया है बल्कि अपनी फक्कड़ाना प्रकृति की मुहर भी मार दी है।” इतना ही नहीं ‘कबीर’ पुस्तक के विश्लेषण वाले अध्याय में द्विवेदी जी लिखते हैं- “ब्रह्माचारों की जीवन्त प्रतिक्रिया, शास्त्रीय विचार की अनभिज्ञता के कारण निर्भीक आक्रमणकारिता और अपनी निर्दोषता का जो परिपूर्ण भरोसा है उसने उनके आत्मविश्वास को भी आक्रामक बना दिया था और उनकी लापरवाही को भी रक्षणात्मक बना दिया था। इसीलिए वह सीधी बात को भी ललकारने की भाषा में ही बोलते थे।’

और भी-

“अत्यन्त सीधी और सहज बात कहते समय भी उनके आत्मविश्वास का आक्रामक रूप प्रकट हो ही गया। ‘झीनी-झीनी बीनी बदरिया में सारी बात कुछ इस लहजे में कही गई है कि वह आक्रमणमूलक हो गई है। पर लक्ष्य करने योग्य है कहने वाले की लापरवाही। वह इतनी बड़ी चिढ़ा देने वाली बात कह गया है लेकिन कटुता के साथ नहीं, और प्रत्याक्रमण की चिन्ता के साथ तो बिल्कुल नहीं ।”

इसी अध्याय में अन्यत्र है- “इस कदर सहज और सरल ढंग से चकनाचूर करने वाली भाषा कबीर के पहले बहुत कम दिखाई दी है। व्यंग्य वह है, जहाँ कहने वाला अधरोष्ठों में हँस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बना लेना हो जाता हो।”

(5) डा० पीताम्बर दास बड़थ्वाल का मत- कबीर की भाषा पर विचार करते हुए डॉ० बड़थ्वाल ने ‘हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय’ के अन्तर्गत कहते हैं-

“जिन लोगों को काव्य एवं भाषा की चमक-दमक को एक साथ देखने का अभ्यास है उनके लिए ये सुन्दर नहीं जँचा करतीं । परन्तु इन आत्मदृष्टाओं के निकट हमें उनकी अभिव्यक्ति के सौंदर्य के लिए नहीं किन्तु भावना-सौन्दर्य के लिए जाना उचित है।” और जैसा कि विलियम ने (रेशनल मिस्टिसिज्म Rational Mysticism) ऐसे आत्मदृष्टाओं के लिए कहा है- “जिस जीवित सत्य से उसकी आत्मा अनुप्राणित है उसे भाषा कहाँ तक प्रकट कर सकती है ?”

कबीर की वाणी में प्रयुक्त भाषाएँ

जिन ग्रंथों में कबीर की वाणियाँ संग्रहीत हैं उनमें अब तक केवल दो ही ग्रंथ अधिक प्रमाणित माने जाते हैं। कबीर ग्रंथावली और संत कबीर। इन दोनों ग्रन्थों का सम्पादन क्रमशः बाबू श्यामसुन्दर दास तथा डॉ० रामकुमार वर्मा ने किया है। ये दोनों ही हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान माने जाते हैं, फिर डॉ० रामकुमार वर्मा तो विशेष रूप से कबीर साहित्य के मर्मज्ञ हैं। ‘संत कबीर’ में उन्होंने सिक्खों के ‘ग्रंथ साहब’ में पाये जाने वाले पदों का संग्रह किया है। कबीर ग्रंथावली’ तथा ‘संत कबीर में संग्रहीत कबीर की वाणियों के आधार पर उनकी भाषा में विषय में निम्नांकित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

(1) पंजाबीपन- उपर्युक्त दोनों ही ग्रन्थों में संग्रहीत पदों तथा साखियों की भाषा में पंजाबी भाषा का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। कबीर के जीवन-वृत्त का अध्ययन करते समय हमने देखा कि उनका अधिकांश समय काशी तथा उसके आस-पास के स्थानों पर व्यतीत हुआ, फिर उनकी भाषा में यह पंजाबीपन कहाँ से आ गया ? इस पर प्रकाश डालते हुए डॉ० गोविन्द त्रिगुणायत ने लिखा है, ‘इस सम्बन्ध में मेरा अनुमान है कि कबीर ने अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग देशाटन में व्यतीत किया था। वे कई बार हज भी गए थे। हज्ज जाते समय पंजाब से गुजरना पड़ा होगा। संभव है कि कुछ दिन वहाँ भी रहे हों। उस समय पंजाब सूफी साधु संतों का केन्द्र था। उनमें थोड़े दिन रम रहना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पंजाब में रहने के कारण उनमें पंजाबीपन का आ जाना स्वाभाविक था।’ इसके साथ ही इस स्थल पर यह भी विचारणीय है कि ‘ग्रंथ साहब’ में संग्रहीत कबीर की वाणियाँ भी गुरुमुखी लिपि में लिखी गयी हैं। अतः यह हो सकता है कबीर की वाणी मूल रूप में हिन्दी में रही होगी, किन्तु लिपि भेद के कारण उसका स्वरूप परिवर्तित हो गया हो। क्योंकि कबीर की भाषा में पाए जाने वाला पंजाबीपन गौण रूप में ही है। ऐसा मान लेने पर कबीर को हज्ज ले जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी क्योंकि अनेक विद्वानों का मत है कि कबीर हज्ज नहीं गये, फिर भी उनकी भाषा पर पंजाबी भाषा का प्रभाव है, इसमें कोई संदेह नहीं। यह प्रभाव कैसे पड़ा, इसमें मतभेद हो सकता है। पंजाबी भाषा से प्रभावित एक दोहा देखिये-

अंपडियाँ झाई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।

जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि पुकारि ॥

इसमें ‘अपड़ियाँ’ और ‘जीभड़ियाँ’ रूप पंजाबी के हैं। पड़या प्रयोग राजस्थानी प्रभाव के द्योतक हैं।

(2) खड़ी बोली का पुट- कबीर की भाषा में खड़ी बोली का न केवल पुट ही है, बल्कि कहीं-कहीं पर उसमें शुद्ध खड़ी बोली का प्रयोग भी मिलता है। यथा-

कबीर कहता जात हूँ, सुजाता है सब कोई।

राम कहै भला होइगा, नहिंतर भला न होई॥

कबीर की भाषा में खड़ी बोली के पुट के विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है कि सन्तों को खड़ी बोली की परम्परा सिद्धों से मिली है। सिद्धों ने टकसाली हिन्दी को जिस प्रकार अपने उपदेश का माध्यम बनाया, उसी प्रकार खड़ी बोली को सन्तों ने अपनाया किन्तु इसका विरोध करते हुए डॉ० त्रिगुणायत ने लिखा है, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि कबीर ने खड़ी बोली का प्रयोग इसलिए किया था कि उनकी पूर्वी बोली न जानने वाले सन्त भी उनकी बात समझ सकें। किन्तु हमारा अपना विचार है कि कबीर की भाषा के विषय में इस प्रकार के विवाद में न पड़ना ही अधिक संगत है। एक घुमक्कड़ तथा सत्संगी स्वभाव के सन्त की भाषा में विविध भाषाओं के प्रयोगों का पाया जाना स्वाभाविक ही है।

( 3 ) भोजपुरी का पुट – इस विषय में डॉ० रामकुमार वर्मा का प्रयास स्तुत्य है। उन्होंने अपने हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास में कबीर की भाषा में पाये जाने वाले संज्ञा के ऐसे अनेक लघ्वन्त तथा दीर्घान्त रूपों के उदाहरण दिये हैं जो कि भोजपुरी के हैं। खंभवा, पतखा, मानवा, खटोलवा आदि ऐसे ही रूप हैं। भोजपुरी का भूतकालिक क्रिया के ‘अके’ अथवा ‘अले प्रत्यय के भी कबीर की वाणियों से उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किये हैं-

जुलहै तनि बुनि पार न पावता।

त्रिगुण रहित फल रमि हमरावल ॥

(4) अरबी-फारसी का प्रभाव- कबीर की वाणियों का अध्ययन करने पर हमें एक महत्वपूर्ण बात का पता चलता है कि कबीर ने सदैव पात्रानुकूल, भावानुकूल और विषयानुकूल भाषा का ही प्रयोग किया। मुसलमान सन्त तथा मुस्लिम व्यक्ति भी उनके सम्पर्क में आये, जिससे बातचीत करने अथवा जिनसे कुछ कहने के लिए कबीर ने उनकी ही भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। यही कारण है कि उनकी वाणियों में उर्दू से प्रभावित अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। उनका ऐसा करना उचित भी था। हिन्दुओं की भाषा में मुसलमानों तक अपनी आवाज पहुँचाने का प्रयत्न करते सम्भवतः वह व्यर्थ ही सिद्ध होता तभी तो मुसलमानों को समझाने के लिए अरबी-फारसी भाषा के शब्दों को अपनाया। एक उदाहरण देखिये-

मीयाँ तुम्हसों बोल्योँ वणि नहीं आवै ।

हम मसकीन खुदाई बंदे, तुम्हरा जस महि मावै ॥

अलह अवालदीन का साहब, जोर नहीं फुरमाया।

मुरिसद पीर तुम्हरे है को कहो कहाँ हैं आया ॥

सेजा करें निवाज गुजारें, कलमैं मिसत न होई।

संवरि भावे इक दिल भीतरि, जे करि जानैं कोई ॥

उपर्युक्त भाषाओं के प्रयोग के अतिरिक्त कबीर की भाषा में बंगला, मैथिली, मारवाड़ी, लहरा आदि के प्रयोग भी दृष्टिगोचर होते हैं।

कबीर की भाषा श्रेष्ठ है अथवा निकृष्ट इस विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। यदि एक ओर के विद्वान् उसे निकृष्ट भाषा की ओर घसीटते हैं तो दूसरी ओर के विद्वान उसे श्रेष्ठता के चरम शिखर पर पहुँचा देते हैं। डॉ० रामकुमार वर्मा ने कबीर की भाषा के विषय में लिखा है, भाषा बहुत अपरिष्कृत है। उसमें कोई विशेष सौंदर्य नहीं है इसके विपरीत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है कि ‘भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया है- बन गया तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ के सामने लाचार-सी नजर आती है उसमें मानों ऐसी हिम्मत नहीं है कि उस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश की नाही कर सके और अकह कहानी को रूप देकर मनोपाही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत कम लेखों में पायी जाती है। असीम अनन्त ब्रह्मानन्द में आत्मा का साक्षीभूत होकर मिलना कुछ वाणी के अगोचर, पकड़ में न आ सकने बाली ही बात है। पर ‘बेहूदी मैदान में रहा कबीरा’ में न केवल उस गम्भीर निगूढ़ तत्त्व को मूर्तिमान कर दिया गया है, बल्कि अपनी फक्कड़ाना प्रकृति की मुहर भी लगा दी गई है। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य-रसिक काव्यानन्द का आस्वाद कराने वाला समझे तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।”

कबीर की भाषा का परीक्षण

(1) काव्योचित भाषा की दृष्टि से कबीर की भाषा का परीक्षण

(1) कबीर की भाषा अटपटी, अव्यवस्थित तथा व्याकरण की दृष्टि से अस्थिर है।

(2) कबीर ने शब्दों का यथावश्यकता अंग-भंग भी किया है।

(3) कबीर की भाषा में सरलता, सुबोधता तथा खरापन है। कहीं-कहीं पारिभाषिक प्रयोगों के कारण थोड़ी बहुत दुर्बोधता भी है।

(4) कबीर की भाषा संस्कारहीन है और गँवारूपन लिए है किन्तु इसके साथ ही उसमें खरेपन की मिठास भी है। व्यंग्य तो इस भाषा का प्राण है। जैसा कि डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है- “इस कदर सहज और सरस ढंग से चकनाचूर करने वाली भाषा कहाँ मिलती है। कबीर की भाषा का यह तिलमिला देने वाला व्यंग्य प्राण रूप अनुकरण से परे है। इसी कारण ही कबीर की वाणी में जीवित काव्य आ गया है तथा भाषा में अमोघ शक्ति और प्रभाव।

(5) कबीर के भाषा अधिकार की चर्चा करते हुए, डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें वाणी का डिक्टेटर कहा जिसके आगे भाषा लाचार खड़ी है। कबीर की वाणी में शब्दों का अंग-भंग दोष बनकर नहीं, गुण बनकर आया है। इन प्रयोगों से राष्ट्रों का अर्थ गौरव बढ़ा ही है-जैसे ‘बहरो होय खुदाय में।’

(6) कबीर की भाषा भावों की अनुगामिनी है और भले ही प्रेम की मस्ती हो या अक्खड़पन, खंडन हो या रूढ़ियों पर आक्रमण, रहस्य हो या व्यंग्य की चुभन, उसमें सब कुछ को अभिव्यक्त करने की अपार क्षमता है।”

(2) जनवाणी के रूप में कबीर की भाषा का परीक्षण

जनवाणी के रूप में कबीर की भाषा की सबसे बड़ी देन उसका संस्कृत के कूप जल को त्याग कर भाषा के बहते नीर को अपनाना है। इस दृष्टि से कबीर सर्वप्रथम भक्त थे जिन्होंने भाषा को धर्म-चर्चा का आधार बनाया तथा इस प्रकार अपनी वाणी से जनता का हित साधन किया। अतएव कबीर की भाषा इस दृष्टि से विशेष महत्ता रखती है। कबीर ने इस जनवाणी को एक निश्चित रूप पर अपनी वाणियों का सृजन किया। हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में जहाँ एक ओर तुलसी जैसे शास्त्रज्ञ विद्वान् तत्सम शब्दों की भरमार से शुद्ध हिन्दी का रूप निखारते रहे वहाँ कबीर के आदर्श पर चलकर सन्त-साधु जन-भाषा में अपनी खरी अनुभूतियों को वाणी देते रहे। इस प्रकार भाषा के बहते नीर को प्रतिष्ठा देने के कारण कबीर की देन स्तुत्य है।

(3) कबीर की भाषा का भाषा वैज्ञानिक परीक्षण

कबीर वाणी के भाषा वैज्ञानिक परीक्षण के लिए सबसे प्रथम कठिनाई यह समझी गई कि इसका प्रामाणिक संग्रह किसे समझा जाय- बीजक को या आदि ग्रन्थ में संग्रही स्लोकों आदि को या कबीर ग्रन्थावली को ।”

बीजक कबीर पंथ का महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाकर कबीर वाणी का प्रामाणिक संग्रह नहीं माना जाता क्योंकि अधिकांश आलोचकों की दृष्टि से एक तो इसका वर्तमान रूप 18वीं शताब्दी में कभी प्राप्त हुआ होगा और दूसरे इसमें जो पद संग्रहीत हैं उनमें खण्डन मण्डन की और ज्ञान की कथनी की प्रवृत्ति ही अधिक होने के कारण बीजक में कबीर का व्यक्तित्व बहुत कम है और जो है भी वह नकारात्मक दृष्टि से है।

आदि ग्रन्थ में संकलित कबीर के पदों का यद्यपि प्राचीनता की दृष्टि से विशेष स्थान है किन्तु इनकी प्रामाणिकता भी संदिग्ध है क्योंकि ग्रन्थ साहब में ही कभी-कभी दूसरे सन्तों के नाम से वही पद मिलते हैं जो कबीर के नाम से संग्रहीत हैं। शेष संग्रह कबीर ग्रन्थावली है जिसकी प्रामाणिकता के सम्बन्ध में बहुत कम सन्देह किया गया है। इस सम्बन्ध में डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी यद्यपि इसकी आधार प्रतियों की लिखावट को परवर्तीकाल की मानते हैं और इसकी ‘क’ प्रति को कबीर को मृत्यु से पन्द्रह वर्ष पूर्व की लिखी न मानकर 18वीं शताब्दी के अन्त्य भाग में संकलित मानते हैं, फिर भी उनका मत है कि भाव को दृष्टि से ‘कबीर ग्रंथावली’ के पदों में कबीरदास का मूल रूप अधिक सुरक्षित है। कबीर की वास्तविक देन उनकी भक्ति-भावना, घरफूँक मस्ती और फक्कड़ाना लापरवाही है जो कबीर ग्रन्थावली के पदों में अधिक मिलती है और बीजक में कम। इधर कबीर ग्रन्थावली के वैज्ञानिक सम्पादन के भी प्रयास हुए हैं और डा० पारसनाथ तिवारी ने इसका सुन्दर सम्पादन प्रस्तुत किया है। इस प्रकार कबीर की भाषा की भाषा-वैज्ञानिक परीक्षा के लिए कबीर-ग्रन्थावली और उसके पाठ को ही प्रामाणिक मानकर इस विषय की चर्चा सम्भव हो सकी है।

इस सम्बन्ध में व्याकरणिक प्रयोग वृत्तियों के आधार पर डा० माताबदल जायसवाल ने कबीर भाषा का भाषा वैज्ञानिक परीक्षण प्रस्तुत किया है। जिसके निष्कर्ष संक्षेप में निम्नवत् हैं

(1) कबीर प्रन्थावली के वर्ण ग्रामों का विश्लेषण करने पर यह सिद्ध होता है कि इसका प्रतिलिपिकाल संवत् 1696 भी मानने में संकोच होता है क्योंकि (वर्तमान डु) आदि वर्णग्राम भी प्रयुक्त हुए हैं जोकि हिन्दी में कालांतर में ईसा की 17वों शताब्दी के बाद विकसित हुए।

(2) कबीर मन्थावली में एक ‘चौंतीस रमैनी’ है जिसमें हर एक रसैनी को एक-एक व्यंजन से आरम्भ किया गया है। इस रमैनी के लिखित लिपिमामों के आधार पर भाषा-वैज्ञानिक विश्लेषण करने पर यह संकेत मिलता है कि कबीर ग्रन्थावली में कबीर काल तक भाषा के ध्वनियासात्मक गठन में जो परिवर्तन आ गया था उसे किसी-न-किसी प्रकार स्वीकार किया गया है अर्थात् वे पुराने ध्वनियाम जो अपनी ध्वनियामक स्थिति खो बैठे थे और संध्वनि के रूप में वर्तमान थे उन्हें केवल ध्वनि के रूप में हो व्यक्त किया गया और उस समय तक की हिन्दी में जो नई ध्वनियाँ या सध्वनियाँ विकसित हुई थीं उन्हें द्योतित नहीं किया गया।

(3) कबीर ग्रन्थावली में अनेक प्रकार के ध्वनि-परिवर्तन मिलते हैं।

(4) कबीर ग्रन्थावली में बहुतायत से ऐसे संज्ञा परसर्गों का प्रयोग हुआ है जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि काव्य भाषा में वियोगात्मक पद्धति की ही प्रधानता थी ।

(5) कबीर ग्रन्थावली की मूलाधार बोली और इस सम्बन्ध में पाई जाने वाली विभिन्नता को परखने के लिए भूतनिश्चयार्थ के एक वचन रूपों से सर्वाधिक सहायता मिल सकती है। खड़ीबोली का यह रूप आकारांत, बज, राजस्थानी आदि का औ- ओकारांत, अवधी का ‘वा’ कारांत आदि, भोजपुरी का इल् या लकारांत हो जाता है। इस प्रकार के व्याकरणिक प्रयोगों की आवृत्तियाँ कबीर ग्रन्थावली में डा० जायसवाल के अनुसार इस प्रकार हैं- खड़ी बोली की वृत्तियाँ 150, ब्रज की आवृत्तियाँ, की आवृत्तियाँ = 13, भोजपुरी की आवृत्तियाँ = 51 इन आवृत्तियों को देखते हुए डा० जायसवाल का निष्कर्ष है कि जहाँ तक भूत निश्चयार्थ एक वचन पुलिंग के रूपों का प्रश्न है कबीर ग्रन्थावली में खड़ी बोली के रूपों की प्रधानता है। = 30. अवधी

(6) प्रयोग की दृष्टि से कर्मणि प्रयोग पश्चिमी हिन्दी की विशेषता है और पूर्वी हिन्दी और भोजपुरी में इस प्रयोग का अभाव है। कबीर ग्रन्थावली में कर्तरि प्रयोग की अपेक्षा कर्मणि प्रयोग के उदाहरण ही अधिक मिलते हैं अतएव इस दृष्टि से भी यह खड़ी बोली की आवृत्ति लिए है।

(8) कबीर-काल के एक शर्ती पूर्व और एक शती उपरांत के भाषा स्वरूप को आधार बनाते हुए डा० जायसवाल ने कबीर ग्रन्थावली के संज्ञा एक वचन पुल्लिंग, संबंधकारक परसर्गों, विशेषणों, निजवाचक सर्वनामों, सहायक क्रिया, भूतनिश्चयार्थ क्रिया, भविष्य निश्चयार्थ क्रिया रूपों की प्रयोगावृत्ति की जाँच की है और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि-

(i) कबीर ग्रन्थावली में ब्रज, अवधी, पंजाबी, भोजपुरी की अपेक्षा खड़ीबोली के व्याकरणिक रूपों की अधिकता है। यह बोली ही मूलाधार मानी जा सकती है।

(ii) खड़ी बोली के रूपों के साथ-साथ ब्रज और अवधि रूपों के भी प्रचुर प्रयोग मिलते हैं जो कबीर की भाषा को आन्तरिक प्रकृति हैं न कि ऊपर से लादे हुए। प्रतीत होता है ऐसे मिश्रित प्रयोग (जैसे खड़ी बोली के सर्वनाम के साथ बज की क्रिया आदि का प्रयोग) कबीर के युग में खड़ी, ब्रज, अवधि की अविभक्त सम्पत्ति थे ।

(ii) इसके अतिरिक्त कुछ ब्रज के विशिष्ट प्रयोग मिलते हैं जिन्हें देखते हुए इनकी भाषा में आगरा की बोली का भी पुट मानना पड़ता है यद्यपि इसके केन्द्र में दिल्ली-मेरठ की बोली ही स्थित है।

(iv) इस प्रकार कबीर की भाषा बोलियों के सीमा क्षेत्र के चौखटे में नहीं बांधी जा सकती। खड़ी बज आदि के सहज मिलन से यही सिद्ध होता है कि खड़ी, ब्रज की सीमाएँ जितनी निश्चित हैं, वैसा अलगाव कबीर युग में नहीं था।

(v) कबीर की काव्य-भाषा को तत्कालीन हिंदवी की संज्ञा देना ही अधिक न्यायसंगत, अधिक वैज्ञानिक होगा।

(vi) ध्वनि पद-गठन के आधार पर (अठ, अइ का शब्द भी अन्तिम स्थिति में स्वर संयोग ‘ऐ’ और ‘ओ’ के प्रयोगों का अनुपात 60 : 40 का होगा) यह सिद्ध होता है कि कबीर-प्रन्थावली की भाषा 14वीं शताब्दी के बाद और 16वीं शताब्दी के पूर्व की सिद्ध हो जाती है।

इस प्रकार डा० उदयनारायण तिवारी ने यद्यपि कबीर की मूल भाषा भोजपुरी मानी है, डा० सुनीतिकुमार चटर्जी के अनुसार कबीर की सामान्य भाषा ब्रज है जिसमें कभी-कभी पूरबी (भोजपुरी) रूप भी झलक आता है। बाबू श्यामसुन्दर दास ने उनकी भाषा में केवल शब्द ही नहीं क्रियापद और कारक चिन्हादि भी कई भाषाओं के पाए हैं इसलिए इसे खिचड़ी कहा है। किन्तु व्याकरणिक प्रयोग सुत्तियों यह सिद्ध करती है कि उनमें खड़ी बोली के प्रयोगों की प्रचुरता है यद्यपि उस समय की भाषा-सम्बन्धी स्थिति के अनुसार उसमें अन्य भाषा-रूपों का स्वाभाविक मिश्रण हुआ है। इस प्रकार आचार्य शुक्ल ने जो खड़ी बोली और सधुक्कड़ी की चर्चा की है वह भाषा-वैज्ञानिक परीक्षण द्वारा भी प्रमाणित होती है।

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Anjali Yadav

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