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संत कबीर की उलटबांसियां क्या हैं? इसकी विवेचना कैसे करें?

संत कबीर की उलटबांसियां क्या हैं? इसकी विवेचना कैसे करें?
संत कबीर की उलटबांसियां क्या हैं? इसकी विवेचना कैसे करें?

संत कबीर की उलटबांसियां क्या हैं?

कबीर एक उच्च कोटि के साधक और उपदेशक थे। उन्होंने अपने काव्य में जानबूझकर प्रतीकों का प्रयोग नहीं किया है। उपदेशक होने के नाते कभी-कभी उन्हें स्वानुभूति को व्यक्त करने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता था और तब वे प्रतीकों का प्रयोग करने में लग जाते थे। वस्तुतः अध्यात्म तो अपने में स्वयं एक ऐसी विधा है कि उच्च से उच्च कोटि के योगी को भी उसकी व्याख्या करते समय अभिव्यक्ति सम्बन्धी विकट समस्या का सामना करना पड़ता है। कबीर इसके अपवाद न थे। इसके पहले कि हम कबीर की प्रतीक योजना पर विचार करें, ‘प्रतीक’ शब्द को स्पष्ट कर लेना आवश्यक है।

पं० परशुराम चतुर्वेदी के शब्दों में– “प्रतीक” से अभिप्राय किसी वस्तु की ओर इंगित करने वाला न तो संकेतमात्र है और न उसका स्मरण दिलाने वाला कोई चित्र या प्रतिरूप ही है। यह उसका जीता-जागता एवं पूर्णतः क्रियाशील प्रतिनिधि है, जिस कारण इसे प्रयोग में लाने वाले को इसके ब्याज से उसके उपयुक्त सभी प्रकार के भावों को सरलतापूर्वक व्यक्त करने का पूरा अवसर मिल जाया करता है।”

प्रतीकों के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए चतुर्वेदी जी कहते हैं कि इसकी सहायता बहुधा ऐसे अवसरों पर ली जाती है हमारी भाषा पंगु और अशक्त सी बनकर मौन धारण करने लगती है और जब अनुभवकर्ता के विविध भावशिला से चतुर्दिक टकराने वाले स्रोतों की भाँति फूट निकलने के लिए मचलने से लग जाते हैं। कभी-कभी किसी गोपनीय साधना से सम्बद्ध जब अप्रचलित प्रतीकों का भी प्रयोग किया जाता है। ऐसी स्थिति में इनका उद्देश्य केवल यह होता है कि वक्ता जो बात कह रहा है उसे केवल वे ही लोग समझ सकें जो उस गोप्य साधना से परिचित हैं। इस प्रकार के प्रतीकों का प्रयोग संध्या भाषा या उलटवांसियों में पाया जाता है। कबीर द्वारा प्रयुक्त प्रतीकों की ओर आने पर हम देखते हैं कि उन्होंने जिन प्रतीकों का प्रयोग किया है वे या तो नाथ तथा सिद्ध-सम्प्रदायों से लिये गये हैं, अथवा फिर भक्तिकालीन वातावरण से ग्रहीत हैं, या फिर उनका संचयन जन-साधारण के सम्पर्क से हुआ है। प्रतीकों के इन विभिन्न स्रोतों के होते हुए भी कबीर ने उन्हें अपनी मान्यताओं के रंग में रंगा है और इसीलिए कबीर के उन प्रतीकों का प्रयोग उबाने वाला न होकर नूतन-सा प्रतीत होता है। कबीर मूलतः अद्वैतवादी थे, वे ब्रह्म तथा जीव की पृथक् सत्ता नहीं मानते थे, इसीलिए ज्ञान साधना की स्थिति में वे यही कहकर सन्तोष लाभ कर लेते थे कि-

करत विचार मनहीं मन उपजी, नाँ कहीं गया न आया।

कबीर को जब भक्त रूप में स्वानुभूति का परिचय देना पड़ता था तब वे इस शैली को नहीं अपना सकते थे। बल्कि उस समय उन्हें इस शैली से नितान्त भिन्न शैली का आलम्बन लेना पड़ता था। अपनी भक्त्यात्मक अनुभूति के कथनार्थ कभी उन्हें दास्य भाव, कभी वात्सल्य भाव और कभी दाम्पत्य भाव की जैसी प्रवृत्तियों के अनुसार आचरण करना पड़ता था। प्रस्तुत भावों में द्वैधी भाव आ जाना स्वाभाविक है, अतः कभी-कभी सतही दृष्टि से देखने पर लगने लगता है कि कबीर की अपनी ही उक्तियों में अन्तर है, और कभी वे अद्वैतवादी तथा कभी द्वैतवादी प्रतीत होने लगते हैं, किन्तु तात्विक दृष्टि से देखने पर इस दोष का परिहार हो जाता है। यद्यपि दास्य-भाव में अद्वैत की स्थापना बड़ा ही कठिन कार्य है तथापि कबीर ने प्रतीक योजना के माध्यम से अपने को गुलाम और ब्रह्म को साहिब रूप में चित्रित कर दास्यभाव तथा निर्गुणवाद का सुन्दर सामञ्जस्य दिखाया है। यहाँ पर उन्होंने अपने को ब्रह्म के लिए पूर्णभावेन समर्पित कर दिया है। यथा-

“मैं गुलाम मोहि बेंचि गुसाँई,

तन मन धन मेरा रामजी कै ताई ॥

‘आनि कबीरा हाटि उतारा,

सोई गाहक सोई बेचनहारा ।।

बेचे राम तौ राखे कौंन, राखै रास तो बेचै कौन ॥

कहै कबीर मैं तन मन जरया, साहिब अपना छिन न बिसारया ॥

उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि माया की सांसारिक हार में जीवात्मा ने शरीर धारण किया है। परमात्मा इस हार में सर्वत्र विद्यमान है। यहाँ पर क्रेता-विक्रेता की जो पृथक स्थिति दृष्टिगत हो रही है, वह मात्र भ्रांति के कारण। भ्रान्ति के दूर होते ही विक्रेता क्रेता में तदाकार हो जाता है।

वात्सल्य भाव से सम्बन्धित प्रतीक योजना

वात्सल्य भाव के लिए कबीर की उस प्रतीक योजना को लिया जा सकता है जिसमें उन्होंने अपने को ‘बालक’ और परमात्मा को ‘जननी’ रूप में प्रस्तुत किया है। यद्यप्रि ऊपर से देखने में माता और पुत्र की स्थिति अलग-अलग दृष्टिगोचर होती है, तत्त्वतः उसमें कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि माता की ममता के समक्ष पुत्र के अनेकों अपराध विस्मृत हो जाते हैं और वह पुत्र के दुःख को अपना दुःख समझने लगती है। अतः माता-पुत्र में मौलिक भेद नहीं।

उदाहरणार्थ-

“हरि जननी में वालिक तेरा, काहे न अवगुण वकसहु मेरा।

सुत अपराध करे दिन केते, जननी के हित रहैं न तेते ॥

कर गहि केस करे जो घाता, तऊ न हेत उतारे माता।

कहे कबीर एक बुद्धि विचारी, बालक दुःखी दुःखी महतारी ॥

दाम्पत्य भाव से सम्बन्धित प्रतीक योजना

यदि हम कबीर के दाम्पत्यभाव वाले प्रतीकों को लें तो स्पष्ट हो जायेगा कि यहाँ पर उनके दाम्पत्यभाव तथा अद्वैतवाद में अन्तर रह ही नहीं जाता। दाम्पत्यभाव पर आधारित प्रतीक-विधान कबीर ने बहुत किया है और संयोगावस्था तथा वियोगावस्था दोनों के ही चित्र उन्होंने खींचे हैं। यहाँ पर सर्वप्रथम हम उनकी संयोगावस्था वाली प्रतीक योजना को लेते हैं, जिसमें उन्होंने अपने प्रियतम से पुनः नियुक्त न होने की बात कही है-

“अब तोहि जाँन न देहूं राम पियारे, ज्यूँ भाव त्यूँ होड़ हमारे।

बहुत दिनन के बिछुरे हरि पाये, भाग बड़े घरि बैठ आये ।

चरननि लागि करो बरियाई, प्रेम-प्रीति राखो उरझाई।

इत मन-मन्दिर रहौ नित चोषै, कहै कबीर सुन परहु मति धौषे।।

वियोगावस्था से सम्बन्धित प्रतीक योजना

वियोगावस्था से सम्बद्ध प्रतीक योजना को स्पष्ट करने के लिए कबीर के उस पद को लिया जा सकता है जिसमें उन्होंने विवाहोपरान्त ही वैधव्य के दुःख को उलटवांसियों द्वारा स्पष्ट किया है। इस पद में कबीर यह कहना चाहते हैं कि जब जीवात्मा शरीर धारण कर इस संसार में आती है तभी से वह परमात्मा के साथ रहती है, किन्तु उसे प्राप्त नहीं कर पाती, और इस प्रकार जीवन व्यर्थ चला जाता है। जीवात्मा का शरीर पाँच तत्वों से निर्मित होता है और उसका सम्बन्ध तीन गुणों की अवस्थिति से प्रपंचों के साथ हो जाता है। वृत्तियाँ विभिन्न प्रकार के मनोरथ करने लग जाती हैं, अतः सुख-दुःख की अनुभूति स्वाभाविक हो जाती है तथा माया-मोह की प्रन्थ दृढ़-से-दृढ़तर होती चली जाती है। ऐसी स्थिति में रचनानुभूति के आनन्द का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता और शरीरधारी जीवात्मा सुख भोग में ही लिप्त रहने लगता है। सौभाग्यवश जब कभी सत्संग की स्थिति आती है, तभी जीवनमुक्ति की बात सूझती है और अनाहत की साधना द्वारा हम आत्मोपलब्धि करते हैं-

‘मैं सामने पीव गौंहनि आई।

साँई संगि साध नहीं पूगी, गयौ जोवन सुपिनां की नाँई ॥

पंच जनाँ मिलि मंडप छायो तीनी जहाँ मिलि लगन लिखाई ।

सखी सहेली मंगल गावैं सुख दुख माथे हलद चढ़ाई ॥

नानाँ रंगै भाँवरि फेरी, गाँठि जोरि वैद पति ताई ।

पूरी सुहाग भयौ बिन दूलह चौक के रंगि धर्यो सगो भाई ।

अपने पुरषि मुख कबहु न देख्यौ, सती होत समझी समझाई।

कहै कबीर हूँ सर रचि मारि हूँ, तिरौं कन्त ले तूर बजाई ॥

कबीर के प्रतीक योजना की अन्य कवियों से तुलना

पं० परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर की प्रतीक योजना की तुलना अन्य कवियों से करते हुए उसकी विलक्षणता को बड़े सुन्दर ढंग से स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-

“दास्यभाव के समर्थक गोस्वामी तुलसीदास जैसे सगुणवादी कवि ने जहाँ परमात्मा से प्रतीक व अवतार को ‘राजा राम’ तथा अपने को ‘राम को गुलाम’ बतलाते हुए दोनों के पृथक् अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रखने का भी स्पष्ट प्रयत्न किया है, वहाँ कबीर साहब ने परमात्मा एवं जीवात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध के एक पक्ष-विशेष को केवल उदाहृत करने के हो लिए ‘साई’ एवं ‘गुलाम’ के प्रतीकों की अवतारणा की है। इसी प्रकार जननी-बालक-विषयक वात्सल्यभाव के समर्थक बंगला कवि रामप्रसाद जहाँ कवि को ‘माँ’ तथा अपने को उससे पृथक् उनका ‘छेले’ कहते हुए, उसके प्रति अपनी मृत्यु की अभिलाषा प्रकट करते हैं, वहाँ कबीर साहब केवल ‘जननी’ एवं ‘बालक’ के स्नेहात्मक सम्बन्ध तथा प्रथम के सह-संवेदन पर ही अधिक बल देते दीख पड़ते हैं और उसके प्रति की गई उनकी क्षमा-प्रार्थना भी कदाचित् उनके आत्मशोधन की ही निर्देशिका मात्र है। जहाँ तक दाम्पत्यभाव सम्बन्धी प्रतीक योजना का प्रश्न है, वैष्णव भक्त कवियों ने श्रीकृष्ण को ‘भुवन सुन्दर’ की दृष्टि से देखा है तथा उनकी प्रेमिका के रूप में राधा की कल्पना कर अधिकतर परकीया-रस का समर्थन किया है, जो बंगीय सहजिया भक्तों के ‘गोपीभाव’ के भी अनुकूल पड़ता है। परन्तु कबीर साहब का दाम्पत्यभाव स्वकीया के प्रेम का समर्थक है, जो कदाचित आडम्बारों के ‘नायक-नायकी’ सम्बन्ध तथा ईसाइयों के Boidal Mysticism में भी पाया जाता है। कबीर साहब परमात्मा के साथ उनकी पत्नी बनकर मिलना चाहते हैं और वे सिद्धों व सूफियों की भाँति अपनी किसी प्रियतमा के पीछे नहीं पड़ा करते। ये उसी के अनुसार, अपने अद्वैती दृष्टिकोण से आत्मोत्सर्ग तथा आत्मसमर्पण- जैसी पत्नी सुलभ वृत्तियों द्वारा भी लाभ उठाने में सफल हो जाते हैं।”

उपर्युक्त विवेचित प्रतीकों के अलावा हमें कबीर के काव्य में कुछ अन्य प्रतीकों के भी दर्शन होते हैं। इनमें से कुछ प्रतीक सामान्य जनजीवन से लिए गये हैं जैसे-बणजारा, जोलाहा, कुंभार, कमल आदि। कुछ प्रतीक ऐसे भी हैं, जो विभिन्न वस्तुओं अथवा भावों के नाम हैं। यथा गुड़िया, डोली, रहटा, कामधेनु, रस आदि। किन्तु इन प्रतीकों के नियोजन में कबीर को सफलता मिल नहीं पाई है। जहाँ कबीर ने प्रतीक विधान के लिए परम्परागत पारिभाषिक शब्दों, जैसे गंगा, यमुना, सुरति, निरति, सूर्य, चन्द्रह, अनहद, अजपा आदि को चुना है, वहाँ उन्हें अच्छी सफलता मिली है। भारतीय आध्यात्मिक ग्रन्थों में समागत कतिपय संख्यावाची शब्दों को भी कबीर ने प्रतीक रूप में लिया है। लेकिन काव्य रचना के सिद्धान्तों से अनभिज्ञ होने के कारण उनके बहुत से प्रतीकों में अलंकारों की प्रान्ति उत्पन्न हो जाती है।

उलटवाँसियाँ

भाव प्रकाशन एक विलक्षण शैली सन्त साहित्य में प्रचलित थी, जिसे उलटवांसी के नाम से जाना जाता था। यह शैली चमत्कारी इसलिए थी कि इसमें वस्तु के धर्म को उलट कर कहा जाता था, अर्थात् उसमें (वस्तु में) स्वाभाविक क्रिया के बदले उसकी विपरीत क्रिया का आख्यान होता था। यथा-

“पानी का काम बरसना है, न कि भीगना और कम्बल का काम भीगना है न कि बरसना। किन्तु यदि कहा जाय कि बरसे कम्बल भीजे पानी’ तो यह बात उल्टी मालूम पड़ेगी।” ऐसी ही उक्तियों को उलटवाँसी कहा गया है। इन उलटवासियों के सम्बन्ध में यह भी विचारणीय है कि इनका निर्माण किन मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों में हुआ होगा। हमारा अनुमान है कि साधारण जनता इन सन्तों के उपदेशों में रुचि नहीं लेती थी। इसलिए कोई ऐसा उपाय ढूँढना इन सन्तों के लिए आवश्यक हो गया, जिसके द्वारा वे जनता को आकृष्ट कर सकते। ऐसा कहा जाता है कि कबीर आदि सन्तों ने इसीलिए चमत्कारी पद्धति अपनाई । निश्चय ही यह प्रणाली आम जनता के लिए विस्मयजनक होने के कारण आकर्षक प्रमाणित हुई।

पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है कि “कबीर आदि सन्तों की इन उलटवांसियों का प्रभाव साधारण जनता पर पड़ा।” ये उलटवांसियाँ अर्थ बोध में दुःखद होने के कारण जनता में सम्मान नहीं पा सकीं, बल्कि विरोधाभासों एवं असम्भवप्रायः कार्य-व्यापारों के कारण जनता में आतंक के साथ प्रचारित हुई। इन उलटवाँसियों में न केवल वस्तुओं के विपरीत धर्म का आख्यान होता था बल्कि कुछ ऐसे पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग भी होता था जिनका विशिष्ट अर्थ जाने बिना पदों का अर्थ समझना पण्डितों के लिए भी टेढ़ी खीर था। ऐसे शब्दों का निश्चित अर्थ जानने के लिए कुछ स्रोत तो उपलब्ध हैं, किन्तु अधिकांश के लिए अभी भी माथापच्ची करनी पड़ती है।

कबीर के पदों में योगपरक रूपक एवं उलटबांसियों की अधिकता मिलती है। डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी की ‘कबीर’ पुस्तक से कुछ मनोरंजक उदाहरण निम्नवत हैं-

(1) “सूर्य प्रकाश और जीवन नहीं देता, वह तो मृत्यु का कारण है। चन्द्रमा से जो अमृत झरता है, वह सूर्य ही चट कर जाता है। उसका मुँह बन्द कर देना ही योगी का परम कर्तव्य है।” इसका अभीष्ट अर्थ है कि सूर्य नाभि के ऊपर रहता है और चन्द्रमा तालु के नीचे जो आकाश में चमक रहा है वह असली सूर्य नहीं है।

(2) गौ-मांस भक्षण महापाप नहीं है। वारुणी पीनी चाहिए। अभीष्ट अर्थ हुआ कि गो जिह्वा का नाम है और उसे तालु में उलटकर ब्रह्मरंध्र की ओर ले जाना ही गो मांस भक्षण है। तालु के नीचे जो चन्द्र है उससे जो सोमरस नामक अमृत झरा करता है वही अमर वारुणी है।

सहजयानियों की ऐसी उलटवाँसियों को सन्ध्या भाषा भी कहा जाता था। सन्ध्या भाषा के सम्बन्ध में विद्वानों ने अनेक अनुमान लगाए हैं। हठयोगी प्रदीपिका, शिव-संहिता और घेरण्डसंहिता आदि प्रन्थों के उपनामों द्वारा इन उलटवासियों के अर्थ समझने में सुविधा हो सकती है। एक उलटबांसी अवलोकनार्थ प्रस्तुत है-

काल न खा कल्प नाहि व्यापै, देह जरा गहि छोजै।

उलटि गंग समुद्रहि सोखे, ससि और शूर गरावै,

नवग्रह भारि रोगिया बैठे, जल में बिम्ब प्रकासै।

बिनु चरनन को दस दिसि घाव, दिन लोचन जग मूकै,

ससा सो उलटि सिंह को ग्रासै, ई अचरज कोउ बूझे।

आंधे घड़ा नहीं जल डूबे, सूधेसों घट भरिहा,

जेहि कारण नर भिन्न-भिन्न करु गुरुप्रसाद ते तरिया ।

पैठि गुफा में सब जग देखें, बाहर कछुक न सूझे,

उलटा बान पारिधिहि लागे, सूरा होय तो बूझे।

गायन कहे, कबहु नहिं गावै, मनवोला नित पावै,

नटवर नाजी पेखनी पैखै, अनहद हेतु बढ़ावै ।

कथनी बदनी निजुकै जो हैं, ई सब अकथ कहानी,

धरती उलटि आकासहि बेधै, ई पुरषहि की बानी।

बिना पियाला अमृत अजवै, नवी नीर मरि राखै,

कहै कबीर सो जुग-जुग जोवै, राम सुधा रा चाखै ।

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Anjali Yadav

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