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अष्टछाप कवि कौन-कौन से हैं ? हिन्दी साहित्य में अष्ट छाप के महत्व पर प्रकाश डालिए।
हिन्दी में कृष्ण काव्य का बहुत कुछ श्रेय श्री बल्लभाचार्य को है क्योंकि इन्हीं के चलाये हुए पुष्टिमार्ग में दीक्षित होकर सूरदास आदि अष्टछाप के कवियों ने अत्यंत मूल्यवान कृष्ण साहित्य की रचना की। वल्लभ संप्रदाय के अंतर्गत अष्टछाप के सूरदास आदि आठ कवियों की मंडली अष्टसखा के नाम से भी अभिहित की जाती है। संप्रदाय की दृष्टि से ये आठों कवि भगवान कृष्ण के साखा हैं। गुसाई विट्ठलनाथ ने सं० 1602 के लगभग अपने पिता वल्लभ के 84 शिष्यों में से चार तथा अपने 252 शिष्यों में से चार को लेकर संप्रदाय के इन आठ प्रसिद्ध भक्त कवि तथा संगीतज्ञों की मंडली की स्थापना की। अष्टछाप में महाप्रभु वल्लभ के चार प्रसिद्ध शिष्य थे-कम्भनदास, परमानन्ददास, सूरदास तथा कृष्णदास अधिकारी और गुसाई विट्ठलनाथ के प्रसिद्ध शिष्य थे-गोविन्द स्वामी, छीत स्वामी, चतुर्भुजदास तथा नन्ददास। इन अष्टछाप के कवियों में सबसे ज्येष्ठ कुम्भन दास थे तथा सबसे कनिष्ठ नन्ददास थे। काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से इनमें सर्वप्रथम स्थान सूरदास का है तथा द्वितीय नन्ददास का । पद-रचना की दृष्टि से परमानन्द दास का है। गोविन्द स्वामी ‘संगीत-मर्मज्ञ’ हैं। कृष्णदास अधिकारी का ‘साहित्यिक दृष्टि’ से कोई महत्त्व नहीं है पर ऐतिहासिक महत्व अवश्य है कृष्ण भक्तों में ‘साम्प्रदायिकता, लीलाओं में आध्यात्मिकता के’ स्थान पर इहलौकिकता श्रीनाथ के मन्दिर में विलास प्रधान ऐश्वर्य, कृष्ण-भक्ति साहित्य में ‘नख-शिख’ तथा ‘नायिका-भेद’ के वर्णन का बहुत कुछ दायित्व इन्हीं पर है। इस बात के सम्यक ज्ञान के लिए ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ का अध्ययन उपयोगी रहेगा। अष्टछाप के शेष कवियों की प्रतिभा साधारण कोटि की है।
अष्टछाप के ये आठों भक्त समकालीन थे। ये पुष्टि संप्रदाय के श्रेष्ठ कलाकार, संगीतज्ञ और कीर्तनकार थे। ये सभी भक्त अपनी-अपनी पारी पर श्रीनाथ के मन्दिर में कीर्तन, सेवा तथा प्रभुलीला सम्बन्धी पद रचना करते थे। गुसाई विट्ठलनाथ ने इन अष्ट सखाओं पर अपने आशीर्वाद की छाप लगाई अतः इनका नाम अष्टछाप पड़ा ।
हिन्दी साहित्य में महत्व
हिन्दी साहित्य में अष्टछाप का साहित्यिक, साम्प्रदायिक, धार्मिक, कलात्मक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक सभी दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है। अष्टछाप के सभी कवि भगवान कृष्ण की ‘नैमित्तिक लीलाओं से सम्बद्ध पदों की रचना किया करते थे। इन सभी कवियों में भगवान् के माधुर्यमय रूप के वर्णन की प्रवृत्ति पाई जाती है। प्रेम-लोक की विविध भावदाशाओं का जो अत्यंत सूक्ष्म से सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक वर्णन इन कवियों ने किया है, वह इनके काव्य कौशल का उत्कृष्ट नमूना है। सूर के सम्बन्ध में अक्सर कहा जाता है-“न भूतो न भविष्यति ।” नन्ददास आधुनिक कवि पंत के समान शब्दों के कुशल शिल्पी थे— “अन्य कवि गढ़िया नन्ददास जड़िया ।” परमानन्ददास के पद सौरस्यपूर्ण हैं और गोविन्द स्वामी में प्रशंसनीय संगीत का मधुर रस है । अष्टछाप के कवि प्रतिभाशाली साहित्यकार, सुकीर्तनकर्ता एवं अच्छे गायक थे। अतः इनके साहित्य में काव्य-कला तथा संगीत कला का प्रशस्य गंगा-यमुना संयोग है। ब्रजभाषा का काव्य क्षेत्र में निरंतर कई शताब्दियों तक जो एकाधिपत्य बना रहा वह इन्हीं महानुभावों के कारण है। इन कवियों की परिमार्जित एवं प्रौढ़ भाषा को देखकर सहज में ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी एक सुनिश्चित परम्परा थी। वह कोई एक दिन की गढ़ी हुई भाषा नहीं। यद्यपि अष्टछाप के कवियों ने स्वयं कोई भी रचना ब्रजभाषा गद्य में नहीं लिखी फिर भी उनके प्रासंगिक चरित ब्रजभाषा गद्य में लिखे गये। इस सम्बन्ध में ‘अष्ट सखान की वार्ता’, ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ तथा ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के नाम उल्लेखनीय हैं।
कवित्व की सबसे ऊँची वस्तु है तन्मयता और तल्लीनता । कविता का यह गुण सूरदास आदि कवियों में अपनी चरम सीमा पर पहुंचा हुआ दिखाई देता है। आचार्य द्विवेदी इस सम्बन्ध में लिखते हैं-“इन भक्ति भाव की रचनाओं के प्रचार के बाद लौकिक रस की परम्परा फीकी पड़कर निर्जीव हो गई। इन कवियों ने उसमें नया प्राण संचारित किया और नया तेज भर दिया। परवर्ती काल की ब्रजभाषा का लीलानिकेत भगवान का कृष्ण के गुणगान के साथ एकान्त भाव से बाँध देने का श्रेय इन्हीं कवियों को प्राप्त है।” यह दूसरी बात है इन कवियों की कविता का एक निश्चित विषय है, उसमें विविधता के लिए अवकाश नहीं है।
अष्टछाप का धार्मिक और साम्प्रदायिक महत्व भी अक्षुण्ण है। ये आठों कवि श्रीनाथ के अंतरंग सखा हैं और जो उनकी नित्य लीला में शरीक होते हैं। गिरिराज निकुंज के आठ द्वार हैं और यह उन द्वारों के अधिकारी हैं। लौकिक लीला में वे भौतिक शरीरों से इन द्वारों पर स्थिर रहते हैं और लीला की समाप्ति पर भौतिक शरीर को त्यागकर अलौकिक रूप से नित्य-लीला में लीन हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त नन्ददास का साहित्य पुष्टिमार्गीय सिद्धांतों को जानने के लिए तथा कृष्ण भक्ति की साम्प्रदायिकता के बोध के लिए उपयोगी है। इनके साहित्य में तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति का भी परोक्ष रूप से बोध हो जाता है। कलि-प्रभाव वर्णन और गोपी उद्धव संवाद आदि में इस बात का स्पष्ट संकेत है। तत्कालीन सरल ग्रामीण जीवन की सहज छटा इनके साहित्य में मिल जाती है। उत्सवों, पर्वों तथा लीलाओं के वर्णनों में उस समय की सांस्कृतिक झाँकी एवं कलाप्रियता का बोध हो जाता है। इन्होंने विभिन्न नैमित्तिक उत्सवों के लिए विविध राग-रागनियों में पदों की रचना की, जो आज तक भी हैं गायकों के गले का हार बने हुए हैं।
अष्टछाप कवियों की विशेषताएँ
अष्टछाप के कवियों की सबसे बड़ी सामान्य विशेषता है- उनका पुष्टिमार्गी होना। ये आठों कवि वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग में दीक्षित भक्त कवि थे पुष्टिमार्ग की भावना ने लोक-मर्यादा और वेद-मर्यादा दोनों का त्याग विधेय ठहराया। इस प्रेमलक्षण-भक्ति की जीव की प्रवृत्ति तभी होती है जब भगवान का अनुग्रह होता है। इसे ‘पोषण’ या ‘पुष्टि’ कहते हैं। आचार्य शुक्ल के ही शब्दों में, ‘इसी से वल्लभाचार्यजी ने अपने मार्ग का नाम ‘पुष्टि मार्ग’ रखा है। पुष्टिमार्ग में तीन प्रकार के जीव माने गये हैं- 1. जो भगवान के अनुग्रह का ही भरोसा रखते हैं और ‘नित्यलीला’ में प्रवेश पाते हैं। 2. जो वेद की विधियों का अनुसरण करते हैं और स्वर्गादि लोक प्राप्त करते हैं। 3. जो संसार के प्रवाह में पड़े संसारिक सुखों की प्राप्ति में ही लगे रहते हैं। पुष्टिमार्गी अष्टछप के ये आठों कवि ‘पुष्टि जीव’ ही कहलायेंगे जो भगवान् के अनुग्रह में ही भरोसा रखते हैं और ‘नित्यलीला’ में प्रवेश करते हैं।
अष्टछाप के कवियों की दूसरी विशेषता है- भगवदरति का आधिक्य । वह व्यसन या आसक्ति का भी अतिक्रमण करता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में यह ‘आसक्ति’ या व्यसन ही कृष्ण काव्य में रस का उत्स रहा है। यही कारण हैं कि कृष्ण काव्य जितना सरस रहा उतना राम काव्य नहीं। कृष्ण के लीला- पान भक्त हृदय इतने विभोर हो जाते हैं कि देश-काल का ज्ञान भी उन्हें नहीं रहता। क्या समाज, क्या संस्कृति, क्या नियम और क्या प्रकृति सबसे दुरातीत होकर ये कृष्ण के रूप माधुर्य की माधुरी में माधुर भाव से मग्न रहते हैं। उसी महाभाव से विभोर हो वे मूर्च्छित हो जाते हैं। यही रहस्य है कि कृष्ण-भक्तों के काव्य में जो स्वाभाविक भावुकता एवं मर्मान्तक मार्मिकता मिलती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
अष्टछाप के कवियों की तीसरी विशेषता को उनमें समाज के प्रति उदासीनता का भाव है। ये कवि जन-जीवन से दूर गोवर्धन पर्वत पर, कुटीरों में निवास करते थे- प्रकृति के आक्रोड़ में कृष्ण की ‘नित्यलीला’ का रास रचाते थे। कृष्ण के विरह में नारी हृदय की भाँति तड़पते थे, तरस तरस कर मूच्छित हो जाते थे। गोपिकाओं के मिस, सूर अपने हृदय की वेदना को किस प्रकार व्यक्त करते हैं-
निशिदिन बरसत नैन हमारे ।
सदा रहा पावस ऋतु हम पै जबते स्याम सिधारे।’
कृष्ण के प्रति अपने रागोद्रेक के अतिरेक में ये कवि समाज के प्रति उदासीन ही रहे। समाज ही क्या, राज्य तक उन्हें आकर्षित न कर सके। जिस समय अकबर विश्व के महानतम साम्राज्य का अधिपति था, उस समय राज्य का आदरणीय निमन्त्रण पाकर भी भक्त का यह कह उठना-
‘संतान को कहा सीकरी सो काम ।
आवत जात पनहिया टूटे, बिसर गयो हरि नाम ।
जिनको मुख देखि दुःख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।’
अष्टछाप के कवियों को गौरवान्तित कर देता है। कृष्ण के प्रति आसक्ति और संसार के सुखों के प्रति उतनी ही प्रबल अनासक्ति इन कवियों का मुख्य स्वभाव रहा है।
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