हिन्दी साहित्य

आदिकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियाँ: (सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ)

आदिकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियाँ: (सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ)
आदिकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियाँ: (सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ)

आदिकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियाँ: (सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ)

हिन्दी साहित्य का आदिकाल कई प्रकार की रचनाओं को अपने में समेटे है। एक ओर वीर रसात्मक रासो काव्य है, दूसरी ओर अपभ्रंश, नाथ सिद्ध साहित्य की कड़ी के साथ विद्यापति की पदावली और अमीर खुसरो की पहेलियों का महत्व है, पर जहाँ तक आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियों का प्रश्न है, वहाँ सामान्यतः वीर काव्य का आधार मानकर ही प्रायः इनका उल्लेख होता रहा है।

काव्य- आचार्य शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में बारह रचनाओं का उल्लेख किया है- (1) विजयपाल रासो (नल्लसिंह), (2) हम्मीर रासो (शांर्गधर), (3) कीर्तिलता और (4) कीर्तिपताका (विद्यापति), (5) खुमान रासो (दलपति विजय), (6) बीसलदेव रासो (नरपतिनाल्ह), (7) पृथ्वीराज रासो (चन्दबरदाई), (8) जयप्रकाश (भट्ट केदार), (9) जयमयंक जसचन्द्रिका (मधुर कवि), (10) परमाल रासो (11) खुसरो की पहेलियाँ, (12) विद्यापति की पदावली ।

इनमें प्रथम चार अपभ्रंश की हैं और अन्तिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर शेष सभी वीरगाथात्मक हैं। सम्भवतः इसी आधार पर उन्होंने इस काल का नाम ‘वीरगाथा काल’ किया है।

पूर्व-पीठिका – उस काल में भारत छोटे-छोटे राज्यों में बँट चुका था जो आपस में संघर्षरत थे, साथ ही मुसलमानों के आक्रमण भी प्रारम्भ हो गये थे और युद्धों का माहौल गर्म था। यह काल अशान्ति का काल था । राज्याश्रय की परम्परा होने से वीर अपनी प्रशंसा सुनने को उत्सुक रहते थे। राजागण एक-दूसरे की नारियों का अपहरण बलपूर्वक करते थे। राजा युद्ध में वीरगति पाना पुण्य मानते थे। नारियाँ भी वीर पत्नी होने का गौरव रखती थीं। डॉ. हजारी द्विवेदी ने इस युग की स्थिति को इस प्रकार स्पष्ट किया है-“लड़ने वालों की संख्या कम थी, क्योंकि लड़ाई की जाति विशेष का पेशा मान ली गई थी। देश-रक्षा के लिए या धर्म-रक्षा के लिए समूची जनता के सन्नद्ध हो जाने का विचार ही नहीं उठता था। लोग क्रमशः जातियों और उपजातियों में तथा सम्प्रदायों और उपसम्प्रदायों में विभक्त होते जा रहे थे। लड़ने वाली जाति के लिए सचमुच ही चैन से रहना असम्भव हो गया था, क्योंकि उत्तर-पूरब, दक्षिण-पश्चिम सब ओर से आक्रमण की सम्भावना थी। निरन्तर युद्ध के लिए प्रोत्साहित करने को ही एक वर्ग आवश्यक हो जाता था। चारण इसी श्रेणी या वर्ग के लोग हैं। उनका कार्य था-“हर प्रसंग में आश्रयदाता में युद्धोन्माद को उत्पन्न कर देने वाली घटना-योजना का आविष्कार।” परिणाम यह हुआ कि चारणों ने वीर-गाथाओं की सृष्टि की क्योंकि युद्धकाल में वीर रसात्मक काव्य रचना ही सम्भव थी। आचार्य शुक्ल का इस सम्बन्ध में कथन है-“राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लम्बा-चौड़ा वर्णन करके लाखों रूपये पाने वाले कवियों का समय बीत चुका था। राजदरबारों में शाखार्थों की वह धूम नहीं रह गयी थी। पाण्डित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढीला पड़ गया था। इस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रु- कन्या-हरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता था, या रण-क्षेत्र में जाकर वीरों के हृदयों में उत्साह की तरंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था।”

साहित्य की प्रवृत्तियाँ एवं विशेषताएँ

(1) आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा- इस युग का साहित्य प्रायः राज्याश्रित कवियों द्वारा लिखा गया। ये कवि अपने आश्रयदाता राजा को सर्वश्रेष्ठ वीर, पराक्रमी सम्राट, अद्वितीय रूपवान, अनुपम दानवीर, दृढप्रतिज्ञ, शरणागतवत्सल आदि सिद्ध करके उसका अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया करते थे। अत्यन्त अतिशयोक्तिपूर्णता की झाँक में इन्होंने ऐसे-ऐसे इतिहास-प्रसिद्ध वीरों को पराजित होते दिखा दिया जो समकालीन भी नहीं थे।

(2) वीर और श्रृंगार का सजीव चित्रण- उस काल में युद्धों का कारण प्रायः कोई सुन्दरी होती थी, उसकी प्राप्ति हेतु ही युद्ध होते थे। पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो आदि सभी प्रन्थों में युद्ध के मूल में कोई रमणी है। अतः सुन्दरी का रूप चित्रण राजा की उसके प्रति आसक्ति, विरह, फिर युद्ध द्वारा उसकी प्राप्ति तथा मिलन सुख का सरस चित्रण इन कवियों ने किया है। उन्होंने श्रृंगार और वीर रस को परस्पर सम्बद्ध करके काव्यशास्त्र की इस मान्यता को भी फीका कर दिया है कि श्रृंगार एवं वीर रस को परस्पर विरोधी रस हैं। इन काव्यों में श्रृंगार, वीर रस का प्रेरक बनकर आया है। पृथ्वीराज रासो में इच्छिनी, पुण्डरी, प्रथा, इन्द्रावती, हंसावती तथा संयोगिता का नख-शिख तथा सौन्दर्य वर्णन मिलता है। साथ ही वीर रस सम्बन्धी उत्कृष्ट छन्द न जाने कितनी संख्या में उपलब्ध हैं-

उठ्ठि राज पृथ्वीराज बाग मनों लग्ग वीर नट ।

कढ़त तेग मन वेग लगत मनौ बीज कट्ट घट ।।

इन कवियों ने रणभूमि की शोभा का भी बड़ा मनोहर और यथार्थ चित्रण किया है-

घर उप्पर भर परत करत अति रुद्ध महा भर ।

कहौ कमध, अरू लग्ग कहौं, कर चरन अन्तरूरि ।।

कहीं दंत मंत हयपुर उपरि, कुम्भ भुसुण्डहिं रूंड सब।

हिन्दुवान राने भय मान, मुष गही तेग चहुँवान जब ।।

(3) चरित काव्य- इन कवियों में राज्याश्रय प्रधानता के कारण चरित्र काव्य लिखने की प्रवृत्ति भी प्रधान थी। इस काल में लिखे गये अनेक रासो ग्रन्थ इस प्रवृत्ति ही देन हैं। इनमें कवि अपने नायक को भगवत्-स्वरूप बताकर कथा वस्तु में धार्मिकता का हल्का-सा पुट देने का प्रयत्न करते थे। विद्यापति की कीर्तिलता में तो यह बात विशेष रूप से दृष्टव्य है-.

पुरुश कहाणी हौं कहौं, जसु पत्यावै पुन्नु

(4) ऐतिहासिकता का अभाव- इन वीर काव्यों में आश्रयदाताओं की प्रशंसा गाते समय इतिहास की अवहेलना की गयी है। इसी कारण इन ग्रन्थों की प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। यह भूल क्यों हुई, यह तो कहना सम्भव नहीं, पर हुई अवश्य है। जैसे खुमान रासो में अठारहवीं सदी के राजाओं का वर्णन और पृथ्वीज रासो में अपने पूर्ववर्ती भीम चालुक्य से पृथ्वीराज का युद्ध-वर्णन । सम्वत् तिथियाँ भी अधिकांश कल्पित हैं।

(5) संकुचित राष्ट्रीयता- देश की स्थिति तथा उसके भविष्य के प्रति न तो राजागण सचेष्ट थे और न ही उनके आश्रित कविगण । उनके लिए राज्य की सीमा ही राष्ट्र की सीमा थी। विदेशी उनके लिए शत्रु थे, यह स्वाभाविक था। पर देशी नरेशों को भी वे उन्हीं के समान अपना शत्रु मानते थे। ये राजा आपस में व्यर्थ लड़ते रहे और विदेशी हमारे देश को पदाक्रान्त करते रहे। कहीं भी यह नहीं हो सका कि संगठित होकर विदेशी शत्रु का सामना करने की प्रवृत्ति सामने आयी हो। चारण कवि इस दृष्टि से राष्ट्रीयता के अभाव का दोषी ठहराता है, क्योंकि राजाओं की संकुचित राष्ट्रीयता के परिष्कार की जिम्मेदारी इन पर ही थी। काश, इन कवियों ने भूषण जैसी राष्ट्रीय चेतना को जगाया होता, तो भारत का इतिहास कुछ और ही होता ।

(6) प्रचारात्मक रचनाएँ- बौद्ध एवं जैन मुनियों तथा नाथ-सिद्धों ने उपदेशमूलक तथा हठयोग का प्रचार करने वाली रचनाएँ अधिक लिखीं। आश्रयदाताओं के शौर्य, पराक्रम, रूप, दानवीरता आदि की प्रशंसा भी उनके व्यक्तित्व का प्रचार करने में सहायक हुई। अतः इस काल का अधिकांश काव्य प्रचारात्मक ही है।

(7) युद्धों का सजीव वर्णन- इन काव्यों में युद्ध सम्बन्धी वर्णन ही प्रमुख है, फिर चाहे युद्ध का कारण- युद्धोन्माद, सेना-सज्जा, सेना प्रयाण अथवा प्रत्यक्ष युद्ध हो, क्योंकि इनके चरितनायकों का वीर योद्धा और युद्ध-प्रिय रूप ही सामने आता है। यह युद्ध वर्णन सजीव और कल्पनाग्राही तो था ही विम्बग्राही भी था। इन कवियों ने अपने चरितनायकों के कई कई युद्धों का सजीव चित्रण किया है क्योंकि वे यथार्थ दृष्टा थे। उनमें सजीवता इस कारण भी है कि इन ग्रन्थों के रचयिता स्वयं वीर योद्धा थे। चन्द के बारे में तो यह कहा जाता है कि वह तलवार और लेखनी दोनों के धनी थे। डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार- “कर्कश शब्दावली में युद्ध के वीर रसपूर्ण भाव से ओत-प्रोत हिन्दी के आरम्भिक युग का यह काव्य हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है। इनकी वीर वचनावली में शस्त्रों की झनकार स्पष्ट सुनायी पड़ती है। परवर्ती हिन्दी साहित्य में भूषण के अतिरिक्त फिर ऐसी कविता के दर्शन नहीं होते।”

(8) जनजीवन की अवहेलना – आश्रयदाताओं की प्रशंसा, युद्ध और श्रृंगार वर्णन के कारण तत्कालीन काव्य एकांगी और एकरस होकर रह गया। फलतः तत्कालीन जन-जीवन उपेक्षित रह गया। तत्कालीन राजनीतिक स्थिति की झलक तो थोड़ी-बहुत मात्रा में उनके काव्य में उपलब्ध है, पर सामाजिक स्थिति की झलक वहाँ नहीं है और न ही समाज के लिए कोई सन्देश मिलता है। दरबारी कवि से जन-जीवन के चित्रण की आशा भी नहीं की जा सकती जबकि उसका उद्देश्य प्रशंसा करके अपना हित साधना ही है।

(9) वस्तु-वर्णन और प्रकृति- इन कवियों ने वस्तु-वर्णन बड़े सजीव ढंग से किया है। नगर, नदी, पर्वत, वन, विहार, बारात, ज्यौनार-वर्णन, राजमहल की सज्जा आदि के बड़े सजीव चित्र उतारे हैं। साथ ही प्रकृति के आलम्बन उद्दीपन दोनों रूपों का चित्रण किया है, परन्तु उद्दीपन रूप के चित्र अधिक होने के साथ-साथ सजीव भी हैं।

(10) काव्य रूप- डॉ. सुधाकर की मान्यता है कि वीरगाथाएँ मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में मिलती हैं। प्रथम रूप का प्राचीन ग्रन्थ बीसलदेव रासो है और दूसरे का प्राचीन ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो। इन काव्यों में चरित-काव्य शैली और कवित्त-छप्पय की वीर-काव्य शैली का संयोग है।

(11) भावोन्मेष का अभाव- इस काव्य में वर्णनात्मकता एवं वस्तु-वर्णन की अधिकता के कारण भावात्मक सरसता का अभाव हो गया है। ये कवि उत्कृष्ट कोटि की भाव-व्यंजना करने में अधिक सिद्धता प्राप्त नहीं कर सके हैं।

(12) भाषा के विविध रूप- इन कवियों ने डिंगल, पिंगल के साथ संस्कृत तत्सम तद्भव का प्रयोग तो किया ही है साथ ही अरबी, फारसी के प्रयोग भी कम नहीं हैं तथा ब्रज भाषा का प्रभाव भी यत्र-तत्र लक्षित है। अतः इन काव्यों की भाषा का कोई निश्चित रूप नहीं है। साथ ही द्वित्व वर्णों का बहुलांश प्रयोग इन कवियों ने किया है।

(13) छन्द योजना- छन्दों के जितने अधिक प्रयोग इस काल में हुए उतने अन्यत्र दुर्लभ हैं। साथ ही दोहा, ताटंक, तोमर, गाथा, पद्धरि, आर्या, रोला, उल्लाला कुण्डलिया जैसे छन्दों का प्रयोग बड़ा कलात्मक बन पड़ा है। इन छन्दों में पाण्डित्य-प्रदर्शन का अभाव है, भावानुकूलता इनकी विशेषता है। चन्द को तो छन्दों का जादूगर माना जाता है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है- “रासो के छन्द जब बदलते हैं, तो श्रोता के चित्त में प्रसंगानुकूल नवीन कम्पन्न उत्पन्न कर देते हैं।”

महत्व- आदिकाल का ऐतिहासिक और साहित्यिक- दोनों दृष्टियों से महत्व आंका गया है। भले ही इस काल की ऐतिहासिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा हो, फिर भी बहुत से इतिहास सूत्र इन ग्रन्थों में सुरक्षित हैं। साहित्यिक दृष्टि से इसका महत्व दो रूपों में आंका जा सकता है। जहाँ एक ओर अपभ्रंश का समृद्ध साहित्य इस युग की देन हैं, वहीं हिन्दी भाषा के विकास की स्थिति भी इस युग में झलकती है। पिंगल का रूप अमीर खुसरों की खड़ी बोली, विद्यापति की पदावली तथा मुल्ला दाऊद के ‘चन्दायन’ में अवधी का प्रयोग (अवधी का विकास भक्ति काल में हुआ) इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार-“हम इस युग में उन काव्य रूपों और विचार-सारणियों को जन्म लेते और विकसित होता हुआ देखते हैं जो परवर्ती युग में साहित्य का मूलाधार बनी हैं। ‘चन्दायन’ की विकसित प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा का रूप जायसी आदि कवियों में विकसित हुआ और विद्यापति की पदावली ने परवर्ती गेय काव्य को प्रभावित किया। नाथ पंथी साहित्य का प्रभाव भी संत-काव्य पर कम नहीं रहा। श्रृंगार और वीर रस का उत्कृष्ट रूप भी इस साहित्य की देन है। “

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Anjali Yadav

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