आदिकालीन साहित्य से आप क्या समझते हैं ? आदिकाल की उपलब्धियों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए ।
कोई भी साहित्य का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपनी पूर्व परम्परा से विकास होता है। समकालीन साहित्य भी परस्पर प्रभावित होते रहते हैं। हिन्दी के आदि साहित्य को संस्कृत अपभ्रंश आदि ही विरासत में मिली थी। आदिकाल में भी हिन्दी के समानांतर संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य की रचना हो रही थी। संस्कृत का तो यद्यपि उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव बहुत थोड़ा दिखाई देता है, परन्तु अपभ्रंश का पूर्व और समानान्तर साहित्य हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था।
आदिकाल में अपभ्रंश के प्रमुख कवियों में स्वयंभू पुष्पदत्त, धनपाल, अब्दुल रहमान, जिनदत्त सूरी, जोइन्दर और नामसिंह हैं। स्वयंभू के “पउम चरिउ” “रिट्टणोमि चरिउ” “भविसयत कहा” आदि से हिन्दी में चरित काव्यों की नींव पड़ी हो जागे जाकर भक्तिकाल में भी विकसित हुए। लगभग सभी जैन कवियों के काव्य में धार्मिक और दार्शनिक प्रवृत्ति की प्रधानता है जो आदिकालीन और मध्यकालीन काव्य में विकसित हुई।
आदिकालीन साहित्य- आदिकाल की रचनाओं को निम्नांकित 6 वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- (1) सिद्ध साहित्य, (2) जैन साहित्य, (3) नाथ साहित्य, (4) रासो साहित्य, (5) लौकिक साहित्य, (6) गद्य रचनायें।
1. सिद्ध साहित्य- बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित जन भाषा में लिखा गया था, वह हिन्दी साहित्य की सीमा में आता है। राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है। जिनमें सिद्ध, सहरपा, लुइपा, डेम्भिषा, कण्हपा एवं कुक्कुरिपा मुख्य हैं।
सरहपा के द्वारा रचे 32 ग्रन्थों में से “दोहा कोष” प्रसिद्ध है। इनकी भाषा सरल है उस पर कहीं-कहीं अपभ्रंश का प्रभाव है। शबरपा, शबरों जैसा जीवन बिताते थे। “चर्यापद” इनकी प्रसिद्ध पुस्तक है। चुइपा का चौरासी सिद्धों में सबसे ऊंचा स्थान माना है। रहस्य भावना इनके काव्य की विशेषता है। डेम्भिया, कन्हपा और कुक्कुरिया ने भी अनेक प्रन्थों की रचना की। रहस्य भावना इनकी सामान्य विशेषता है।
2. जैन साहित्य- सिद्धों ने भारत के पूर्व में वजूयान तत्व का प्रचार किया था, जबकि पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने अपने मत का प्रचार हिन्दी कविता के माध्यम से किया। इन कविताओं की रचनाएँ आचार, रास, फागु, चरित आदि विभिन्न शैलियों में मिलती हैं। आचार शैली के काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता की प्रधानता हैं। फागु और चरित काव्य शैली की सामान्यतया के लिए प्रसिद्ध है। “रास” प्रभावशाली रचना शैली है। बद्ध की गई रास ग्रन्थ जैन साहित्य के सबसे लोकप्रिय प्रन्थ हैं। वीर गाथाओं में ‘रास’ को ‘रासो’ कहा गया परन्तु उनकी विषय वस्तु भिन्न हैं।
जैन साहित्य के प्रसिद्ध कवियों में देवसेन शालिभद्र, सूरि, आसगु, जिना छाप सूरि, विजय सेन सूरि, सुमतिर्गाण आदि आते हैं।
जैनाचार्य देवसेन का प्रसिद्ध प्रन्थ श्रावकाचार है जिसमें श्रावक धर्म का प्रतिपादन किया गया है। सालिभद्र सूरि का ‘भरतेश्वर आहुबती रास’ जैन साहित्य की रास परम्परा का पहला ग्रन्थ माना जाता है। कवि आसगु के छोटे से काव्य ‘चन्दन बाला रास’ में करूण रस की मार्मिक व्यंजना है। जिन धर्म सूरि के ‘स्थूली भद्र रास’ में वेश्या के भेष में लिप्त रहने वाले नायक को जैन धर्म की दीक्षा के बाद मोक्ष का अधिकारी बताया गया है। विजयसेन सूरि के रेवंत गिरिरास’ की विशेषता उसमें व्यक्त वास्तुकलात्मक सौन्दर्य हैं। सुमति गणि ने मात्र अट्ठावन छन्दों के काव्य नेमिनाथ रास’ नेमिनाथ का चरित्र सरस शैली में व्यक्त किया है। रचना की भाषा अपभ्रंश प्रभावित राजस्थानी है।
3. नाथ साहित्य – सिद्धों की वाममार्गी भोगे प्रधान योग साधना की प्रतिक्रिया में नागपंथियों की हठयोग साधना प्रारम्भ हुई। सांस्कृत्यायन ने नाथपंथ को सिद्धों की परम्परा का ही विकसित रूप माना है। वास्तव में सिद्धों और शैवों के समागम से नाथ पंथ का प्रादुर्भाव हुआ। डॉ. रामकुमार वर्मा का मत है कि ‘नाथ पंथ’ से ही भक्ति काल के सन्त मत का विकास हुआ। नाथपन्थ की अनेक विशेषताओं का सन्तमत में विद्यमान होना डॉ. वर्मा के मत को प्रमाणित करता है। नाथपन्थ के प्रवर्तक मछिन्दरनाथ और गोरखनाथ माने गए हैं। गोरखनाथ ही नाथ साहित्य के सर्वप्रधान कवि भी हैं। इनके अलावा चौरंगीनाथ, गोपीचन्द, चुणकरनाथ, भरथरी, जलन्ध्रीपाव अदि भी प्रसिद्ध हैं।
नाथ साहित्य का भक्तिकालीन सन्त मत के भाव पक्ष पर ही नहीं भाषा छन्द आदि पर भी प्रभाव पड़ा।
4. रासो साहित्य – रासो काव्य में मुख्यतः राज्याश्रित चारण भाट कवियों द्वारा अपने आश्रयदाताओं के चरित्र वर्णित किए गये हैं। राजाओं के उत्तराधिकारी उसमें अपने चरित्र भी शामिल करा देते थे, जिससे इनमें काल, दोष आ गया और प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लग गया। परन्तु प्रक्षिप्त अंशों को निकाल देने पर इनका मूल स्वरूप स्पष्ट हो जाता है ।
आदिकाल के रासो ग्रन्थों में खुमाण रासो, बीसलदेव रासो, परमाल रासो और पृथ्वीराज रासो प्रसिद्ध रासो ग्रन्थ हैं।
खुमाण रासो का मूलरूप नयी शताब्दी में लिखा प्रमाणित हुआ है। इसके लेखक दलपत विजय है। यह पाँच हजार छन्दों का विशाल काव्य ग्रन्थ है, बीसलदेव रासो अत्यन्त श्रेष्ठ काव्य है। परमाल रासो मौखिक रूप में “आल्हाखण्ड” के नाम से उत्तर भारत में लोकप्रिय है। यह लोक काव्य है।
5. लौकिक साहित्य- इसके अन्तर्गत ढोला मारू का दूहा ” बसन्त लियास” और “खुसरो की पहेलियाँ” विशेष उल्लेखनीय हैं। जयचन्द्र प्रकाश और जयमयंक जैसे चन्द्रिका काव्य अनुकरण है।
6. गद्य साहित्य- गद्य के प्रारम्भ की दृष्टि से भी आदिकाल महत्वपूर्ण है। ‘राउरवेल’ नामक शिलांकित कृति में पक्ष के साथ गद्य भी मिलता है। एक तरह से यह ‘चम्पू काव्य’ शिल्प की पहली रचना है। इसके कवि का नाम रोड़ा बताया जाता है। रूप वर्णन की दृष्टि से यह विशिष्ट रचना है। इसी युग में गद्य में लिखा ‘उक्ति व्यक्ति प्रकरण” नामक महत्वपूर्ण व्याकरण ग्रन्थ मिलता है। ‘वर्ण रत्नाकर कुछ लोगों को एक अलग तरह का कोष प्रन्थ प्रतीत होता है। जिसमें “सौन्दर्य महिणी प्रतिभा” भी है।
आदिकाल की उपलब्धियाँ- आदिकाल भाषा और साहित्य की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न काल है। कवि प्रकृति और रचना की दृष्टि से यह वैविध्य का युग है। भाषिक दृष्टि से संक्रमण काल की भाषा के साथ ही नवीन विकसित देशभाषा भी यहाँ अपनी विशेषताओं सहित प्रतिष्ठित है। भाषा में अनेक तरह के मिश्रण न सिर्फ लोक जीवन की प्रतिकृति है वरन् अभिव्यक्ति भाषा की खोज के लिए व्यापक रूप से भटकने का प्रमाण भी है। छन्द अथवा काव्य शिल्प की दृष्टि से भी यह युग भावी युगों की भूमिका रहा है।
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