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उत्तरकांड का संक्षिप्त परिचय देते हुए काकभुशुण्डि एवं गरुड़ संवाद की प्रासंगिकता

उत्तरकांड का संक्षिप्त परिचय देते हुए काकभुशुण्डि एवं गरुड़ संवाद की प्रासंगिकता
उत्तरकांड का संक्षिप्त परिचय देते हुए काकभुशुण्डि एवं गरुड़ संवाद की प्रासंगिकता

उत्तरकांड का संक्षिप्त परिचय देते हुए काकभुशुण्डि एवं गरुड़ संवाद की प्रासंगिकता पर प्रकाश सशक्त डालिए ।

उत्तरकांड 211 दोहों में समाप्त हुआ है। आरम्भ के दो श्लोकों में श्री रामचन्द्र जी की तथा तीसरे में शंकर जी की स्तुति है। इसके बाद भरत के उस विलाप का वर्णन है जो उन्होंने रामचन्द्र के अयोध्या लौटने का समाचार न पाकर किया है। भरत शोक के सागर में मग्न हैं कि हनुमान जी द्वारा रामचन्द्र जी के आने का संवाद भी मिलता है। यह सुनते ही भरत राम को लिवाने के लिए बड़ी धूमधाम से तैयारी करते हैं। राम का पुष्पक विमान दिखाई देता है। भरत को देखकर विमान नीचे उतरता है। उसके बाद भरत मिलाप होता है। अन्य भाई भी परस्पर मिलते हैं। अब मिलाप के बाद राम का अयोध्या में प्रवेश होता है। भगवान राम सब माताओं से मिलते हैं। तत्काल ही राज्याभिषेक की तैयारी होने लगती है। अवध की शोभा इस समय दर्शनीय हो उठती है। वेद भगवान की स्तुति करते हैं तथा उनकी महत्ता को प्रकट करते हैं। भगवान वानरों को विदा करते हैं तथा राज्य कार्य में लगते हैं। यहाँ तुलसी ने रामराज्य का जो वर्णन किया है वह अत्यन्त उत्कृष्ट है। एक अच्छे राज्य में जो विशेषताएँ होनी चाहिए उन सबको तुलसी ने यहाँ एकत्रित किया है।

भगवान राज्य संचालन के समय भी पारिवारिक उत्तरदायित्व एवं स्नेह से दूर नहीं हैं। राम के राज्यकाल में अयोध्या को विभूति तथा शोभा का वर्णन अत्यन्त हृदयग्राही है।

आगे चलकर सनक सनन्दन संवाद आता है। यहीं भरत सन्त तथा असन्त के लक्षणों के सम्बन्ध में श्रीराम से प्रश्न करते हैं। भगवान उन्हें इस सन्दर्भ में भली प्रकार समझाते हैं। इसके पश्चात् वशिष्ठ एवं नारद के स्तुति करने का वर्णन है। आगे चलकर शिव-पार्वती को काकभुशुण्डि की कथा सुनाते हैं। फिर संक्षेप में रामचरित पर प्रकाश डाला गया है।

इसके पश्चात् ज्ञान एवं भक्ति के निरूपण का प्रसंग आता है। यह तुलसी के गहन दार्शनिक ज्ञान का द्योतक है। मानसिक रोगों का विवरण, कारण तथा उसके निदान के सन्दर्भ में भी उल्लेख किया गया है। समस्त रोगों के निदान भगवान भक्ति के माध्यम से ही सम्भव है। ये दोनों प्रसंग उत्तरकांड के प्राण हैं।

भक्ति का प्रतिपादन करके तुलसी रामायण-महात्म्य एवं फल-स्तुति लिखकर अपने इस महाकाव्य का समापन करते हैं।

‘रामचरितमानस’ का प्रमुख विषय रामचरित का गुणगान है। दूसरी कथाएँ उससे जुड़कर ही काव्य में स्थान ग्रहण कर सकती हैं। ऐसी कथाओं की प्रासंगिकता तभी तक स्वीकारी गई है जब तक मुख्य कथा जारी रहे। मुख्य कथा के समापन के पश्चात् ही ऐसी कथाओं का जोड़ा जाना मात्र परिशिष्ट की तरह ही परिलक्षित होता है। उत्तरकांड में वर्णित गरुड़ काकभुशुण्डि संवाद की स्थिति भी ऐसी ही आभासित होती है।

इसकी वजह यह है कि रामचन्द्र जी का अपने बन्धुओं तथा हनुमान के साथ अमराइयों में प्रस्थान करने एवं नारद के साथ वहाँ जाकर श्रीराम की वन्दना हेतु गमन करने के साथ ही रामचरितमानस का समापन हो जाता है। रामायण के आदिवक्ता शिवजी को स्वीकारा गया है। उनका पार्वती के प्रति निम्न कथन द्रष्टव्य है-

” गिरिजा सुनहु विसेद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा ।। “

इसके बाद पुनः शिवजी प्रश्न करते हैं कि अब तुम्हें क्या सुनने की जिज्ञासा है ? इसका आशय यह है कि रामकथा समाप्त हो चुकी है। अब कथा के सन्दर्भ में कहना-सुनना अवशेष नहीं है। राम का प्रमुख लक्ष्य रावण का व्यथ तथा उसके अत्याचारों से देव एवं मानवों को मुक्त करना था। इसके बाद शान्ति तथा व्यवस्था कायम करके रामराज्य की नींव डालना था। जो पूरी तरह प्राप्त किया जा चुका था। इसलिए फिर दूसरी कथा अथवा प्रसंग को जोड़ना पुनारान्त दोष का प्रतीक आभासित होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तुलसीदास जी अपनी कथा का विस्तार करना चाहते थे, फलतः उन्होंने काकभुशुण्डि एवं गरुड के माध्यम से कथा को विस्तार दिया है।

यहीं हम कथावस्तु के गठन के दृष्टिकोण से विचार करें तो उसके लिहाज से यह प्रसंग अप्रासंगिक प्रतीत होता है।

कवि की मनोकामना दीर्घ परम्परा पर पग बढ़ाने की है। यदि प्रश्न का समावेश कथा को अलग से जोड़ने के कवि ने तीन कारण प्रस्तुत किये हैं जो निम्नवत् अवलोकनीय हैं-

(1) कवि ने शुरू में चार संवाद होने की प्रतिज्ञा का संकेत दिया है। उनमें तीन को समाहित कर लिया गया। वे मुख्य कथा से पूरी तरह घुल-मिल गये। वैसे तो काकभुशुण्डि गरुड़ को सम्पूर्ण कथानक सुनाते हैं तथा समस्त घटनाओं का पुनरावलोकन भी करते हैं। ऐसा करने में सबसे बड़ी अड़चन तो यह उपस्थित होती है कि तब कथानक के आदि प्रवर्तक शंकर की जगह काकभुशुण्डि प्रमाणित होते जो तुलसीदास जी को किसी प्रकार स्वीकार्य नहीं है।

दूसरी परेशानी यह उपस्थित होती है कि काकभुशुण्डि की कथा उस प्रसंग में समायोजित न हो पाती। इसका कारण यह है कि कथा दो भागों में विभक्त है-

प्रथम रामचरित, द्वितीय काकभुशुण्डि की आत्मकथा, जो कि स्वयं में एक पुराण का रूप धारण किये हुए है। यदि इसका कथा के मध्य में विवेचन किया जाता तो सम्पूर्ण कथानक का ढाँचा भी अस्त-व्यस्त हो जाता। कवि ने उस सत्य से निम्नवत् उजगार किया है। देखिए-

“सुन सुभ कथा भवानि रामचरित मानस विमल ।

कहा भुसुंडि बखानि सुन विहग नायक गुरूड़ ॥ “

(2) महाकवि तुलसीदास ने गरुड़ तथा काकभुशुण्डि का जिक्र यहाँ ही नहीं अपितु अन्य काण्डों में भी एक या दो स्थान पर गरुड़ को सम्बोधित कराने का प्रयास किया है। लेकिन सुनियोजित ढंग से गरुड़ को श्रोता तथा काकभुशुण्डि को वक्ता के सिंहासन पर प्रतिष्ठित किये बिना वे संवाद अटपटे से प्रतीत होते हैं। उसी कारण तुलसीदास ने उस प्रसंग को यहाँ स्वतन्त्र रूप से वर्णित किया है जो कि कवि की दूरदर्शी प्रतिभा का परिचायक है।

(3) महाकवि तुलसीदास का सबसे बड़ा उद्देश्य भक्ति तथा ज्ञान में समन्वय स्थापित करना था। इसके साथ भक्ति कवि ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की महत्ता बखान करना चाहते थे। इसके साथ ही कलियुग के प्रभाव के फलस्वरूप निरीह तथा गिरी हुई सामाजिक व्यवस्था का भी लेखा-जोखा प्रस्तुत करना चाहते थे लेकिन अन्य काण्डों में इसका समायोजन अटपटा-सा लगता है। इस परिशिष्ट के अन्तर्गत काकभुशुण्डि ने किसी कल्प के जीवन के वृतान्त के बहाने उसको वर्णित कर दिया जो अटपटा प्रतीत नहीं होता।

प्राचीन परम्परा में अगस्त्य तथा लोमेश की रामायणकर्ताओं में गणना की जाती है। इस कथा में इन दोनों की चर्चा है अतः इससे एक लक्ष्य की पूर्ति हुई है। शिवजी ने अपने मुखारबिन्दु से ‘बालकाण्ड’ में महर्षि अगस्त्य की चर्चा की है। पूरे रामचरितमानस में लोमेश के नाम की कहीं भी चर्चा नहीं है। महाभारत में लोमेश ने ही युधिष्ठिर को रामकथा का सुधापान कराया है। इस न्यूनता की पूर्ति काकभुशुण्डि की कथा के माध्यम से हुआ है। लोमेश उन्हें रामतन्त्र की दीक्षा देकर कृतार्थ करते हैं। लोमेश जी ने भी रामकथा के ज्ञान का स्रोत शंकर भगवान को ही स्वीकारा है तथा उनको ही रामचरितमानस का रचयिता ठहराया है।

कवि तुलसीदास ने रामचरितमानस को शिव द्वारा रचित ठहराया है तथा उसका निम्नवत् उल्लेख भी किया है। देखिए-

” रामचरितमानस मुनि का वन। विरचेउ शंभु सुहावन पावन ॥

रचि महेस निज मानस राखा पाइ सुसभई सिवसन आखा ।। “

‘रामचरित सर सुख सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा ।। “

“सोइ सिव काकभुशुण्डि संतुहि दीन्हा। रामभगत अधिकारी चीन्हा ॥”

ये उपर्युक्त दोनों कथनों में विरोधाभास परिलक्षित होता है। यदि हम हठात ये निष्कर्ष निकाल लें कि लोमेश के माध्यम से शिवजी ने काकभुशुण्डि को विवेक प्रदान किया।

ऊपरी विवेचन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह प्रसंग मूल कथा के मध्य में समायोजित न होने के फलस्वरूप ही परिशिष्ट के रूप में संलग्न किया गया है। ‘बालकांड’ में संकेत तथा परम्परा निर्वाह के फलस्वरूप ही उसकी प्रासंगिकता प्रमाणित होती है। ऐसा न होने पर यह ऊपर से आरोपित प्रतीत होते हैं। मानस के रचयिता तुलसीदास ने सूची रूप में सम्पूर्ण घटनाओं को इस काण्ड में दुहराया है जो पाठक के मन तथा मस्तिष्क पर बीती हुई घटनाओं तथा चरित्रों को एक जीवन्त चित्रपट-सा प्रस्तुत हो जाता है। ऐसा तुलसीदास जैसे महाकवि के मध्यम से ही सम्भव हो सकता था। यथार्थ में यह प्रसंग कवि की प्रतिभा तथा दूरदर्शिता का परिचायक हैं।

उत्तरकाण्ड में सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि इसमें राम कथा विशेष नहीं है। केवल तेरह दोहे दक ही रामकथा चलती है। शेष काण्ड रामकथा से परोक्ष रूप से सम्बन्धित है। यथार्थ में उत्तरकाण्ड का लक्ष्य दार्शनिक तथा समस्याओं का निरूपण करना है।

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Anjali Yadav

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