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कविवर घनानन्द का जीवन परिचय
रीतिकालीन मुक्त या स्वच्छन्दधारा के कवियों में घनानन्द का अत्यन्त विशिष्ट स्थान है। इस काव्यधारा की प्रायः सभी प्रमुख और अपेक्षित काव्ययुग इनकी काव्य-शैली में कहीं-न-कहीं अवश्य मिल जाते हैं। भावात्मकता, वक्रता, लाक्षणिकता, भावों की वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, मार्मिकता, स्वच्छन्दता आदि जो रीतिमुक्त काव्यधारा की सर्वोच्च विशेषताएँ हैं, वे सभी की सभी इनकी काव्यधारा में कहीं-न-कहीं पर अवश्य कल्लोल करती हुई दिखाई देती हैं। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि कविवर घनानन्द ने जो रीतिमुक्त कालीन काव्यधारा का वैशिष्ट्य प्रस्तुत किया वह वास्तव में अन्यत्र दुर्लभ रहा। यही कारण है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनके सम्बन्ध में यही ठीक ही लिखा है-
” ये साक्षात् रसमूर्ति और ब्रजभाषा काव्य के प्रधान स्तम्भों में हैं। “
जीवन-परिचय— अन्य महाकवियों के समान ही घनानन्द के जीवन-विषय में कोई एकमात्र निश्चित प्रमाण है और न कोई निश्चित मत-अनुमान ही है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार घनानन्द का जन्म संवत् 1746 और मृत्यु संवत 1796 में हुई । शुक्ल जी के बाद जो शोध हुए हैं उनके अनुसार विद्वानों ने कविवर घनानन्द के जन्म और मृत्यु सहित और जीवन-विषयक तथ्यों को एक नए रूप में मान्यता दी है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार इनका जन्म संवत् 1730 (सन् 1673) तथा निधन संवत् 1817 (सन् 1760) में हुआ। मिश्र जी की यह मान्यता है कि घनानन्द की मृत्यु अहमदशाह अब्दाली के दूसरी बार मथुरा पर किए गए आक्रमण के समय हुई थी।
घनानन्द के जन्म और मृत्यु के सम्बन्ध में जो विद्वानों में मतैक्य नहीं है वह तो है ही; एक विचित्र सत्य यह भी है कि इनके नाम के विषय में विद्वानों का एक मत नहीं है। घनानन्द, आनन्दघन और आनन्द इन तीनों ही नामों को कुछ विद्वान् एक ही नाम मानते हैं और कुछ विद्वान् अलग-अलग रचनाकारों से सम्बन्धित बताते हैं। इसका मुख्य कारण यही कविवर घनानन्द ने अपने जीवन-विषयक कोई स्पष्ट उल्लेख अपनी किसी कृति में नहीं किया है।
घनानन्द के सम्बन्ध में यह जनश्रुति रही है कि उनका जन्म दिल्ली के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। ये बचपन से ही कविता और संगीत के प्रेमी थे। इनके सम्बन्ध में यह भी मान्यता प्रचलित है कि वे निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित थे। उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथ ‘परमहंस वंशावली’ के उपलब्ध होने से यह धारणा और अधिक पुष्ट हो गई है। इस ग्रन्थ में उन्होंने अपनी शिक्षा-दीक्षा सहित अपनी गुरु-परम्परा का भी उल्लेख किया है। इस उल्लेखित गुरु-परम्परा में घनानन्द 37 वें गुरु श्री नारायण देव के शिष्य थे। घनानन्द सर्वथा अपने ऐसे महान् गुरु की कृपाकिरण को अपने ऊपर चाहते थे, उनके वरदहस्त की छाया अपने सिर पर सदैव रखना चाहते थे। उन्हीं की भक्ति भावना से भरकर ही इन्होंने “परमहंस- वंशावली की रचना की। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है- “प्रेम साधना का अत्याधिक पथ पार कर वे बड़े-बड़े साधकों-सिद्धों को पीछे छोड़ सुजानों की कोटि में पहुँच गए थे, अतः सम्प्रदाय में उनका सखी भाव का नामकरण हो गया था।” घनानन्द जी का साम्प्रदायिक अथवा सखी नाम ‘बहुगुनी’ था।
इनके जीवन चरित्र के विषय में प्राप्त मान्यताओं और निष्कर्षो के महत्वपूर्ण उल्लेख- विवरण निम्नलिखित हैं-
“कतिपय विद्वानों के अनुसार घनानन्द मुगल वंश के विलासी बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में मीर मुन्शी थे। उस मुगल दरबार में वे बादशाह की सुजान नामक एक सुन्दर और उत्कृष्ट नर्तकी पर आसक्त थे।”
घनानन्द को संगीत से अत्यन्त प्रेम ही नहीं था वरन वे स्वयं भी बहुत अच्छा गाते थे। किन्तु बादशाह के दरबार में अनेक बार कहने पर भी इन्होंने अपना संगीत नहीं सुनाया। इस पर कुछ लोगों ने बादशाह के कान भरे कि यदि सुजान कहेगी तो घनानन्द उसको अवश्य गाना सुना देंगे। बादशाह ने सुजान को बुलाया और सचमुच ही उसके कहने से घनानन्द ने विभोर होकर गाया। परन्तु गाते समय वह दरबार के नियमों की अवहेलना कर गए। फल यह हुआ कि उनको दिल्ली छोड़ने की शाही आज्ञा मिली। कहा जाता है कि चलते समय कवि ने सुजान को अपने साथ चलने को कहा, किन्तु उसने अस्वीकार कर दिया। घनानन्द निराश होकर चल दिए। उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्ध में उसी सुजान के प्रति प्रेम को राधा-कृष्ण की भक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया और अपने प्रेम के उद्गारों को प्रकट कर पीयूष की ऐसी स्रोतस्विनी बहाई जिसने उनको ही अमरत्व प्रदान नहीं किया वरन् अनेक व्यथित हृदयों को भी सिक्त कर दिया। उन्होंने सांसारिक प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम बना दिया। अपने जीवन को उन्होंने इस प्रेम की स्मृति में ही समाप्त किया और वृन्दावन में रहकर राधा-कृष्ण के चरणों पर ही उन्होंने अपने शरीर को न्यौछावर कर दिया।
उपर्युक्त जनश्रुति को श्री वियोगी हरि ने पद्यबद्ध करके घनानन्द के जीवन-चरित्र को अधिक प्रामाणिक बनाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘कवि-कीर्तन’ में ऊपर दी हुई जनश्रुति को इस प्रकार रखा है-
“घन आनन्द सुजान को रूप दिवानो ।
वाही के रंग रंग्यो प्रेम फुदनि अरुझानो ।।
बादशाह को हुक्म पाय नहिं गायो इक पद ।
सुजान के कहे चाव सों गाए धुरपद ||
बादशाह ने कोपि राज्य ते याहि निकायो।
वृन्दावन में आय वेष वैष्णव को धारय ।।
प्यारे मीत सुजान सों नेह लगायौ ।
लगनबान ते विध्यो बिरह रस मंत्र जगायो ।’
स्वर्गीय लाला भगवानदीन जी ने घनानन्द के जीवन काल से सम्बन्धित अपने लेख को ‘लक्ष्मी’ पत्रिका में प्रकाशित कराया था, जिसमें उन्होंने यह मत व्यक्त किया था- “आनन्दघन का जन्म लगभग सं० 1715 के प्रतीत होता है और मृत्यु संवत् 1796 में जान पड़ती है। ये दिल्ली के रहने वाले भटनागर कायस्थ थे और फारसी के अच्छे ज्ञाता थे। जनश्रुति यह बतलाती है कि घन आनन्द को बचपन से ही रासलीला देखने का शौक था। बहुधा महीनों तक रासमण्डली के व्यय का भार अपने ऊपर लेकर दिल्ली में रासलीला करवाते थे और स्वयं भी किसी लीला में भाग लेते थे। इससे उनको हिन्दी भाषा के पद सीखने और संगीत का व्यसन लगा और आगे चलकर वह निपुणता दिखाई जिसकी सराहना आज भी भाषाविज्ञ करते हैं और अभी तक रासधारियों में इनके पद अद्यावधि गाए जाते हैं। इस रास की भावना का इन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि ये श्रीकृष्ण की लीलाओं में लीन रहने के लिए दरबार और गृहस्थी से नाता तोड़ वृन्दावन चले आए और वहाँ किसी व्यास दंश के साधु से दीक्षा ले यह किसी उपासना में दृढ़ और मग्न हो गए। “
लाला भगवानदीन की खोज के आधार पर घनानन्द का काल संवत् 1715 से 1796 तक माना जाता है, किन्तु इन्होंने सुजान की चर्चा नहीं की है। इन्होंने घनानन्द के काव्य की प्रेरणा सुजान को नहीं वरन् रासलीला को ही इसका आधार माना हैं। श्री शम्भुप्रसाद बहुगुना दीन जी की खोज का पुष्ट आधार न होने के कारण उसे वैज्ञानिक नहीं मानते। उन्होंने अपनी कृति ‘घन आनन्द’ पृष्ठ तीन पर इस प्रकार की आलोचना की है- “जन्म संवत् का आधार हो सकता है शिवसिंह सरोज रहा हो। जान पड़ता है शिवसिंह सरोज के विवेचन के आधार पर अर्थात् यह देखकर कि सं० 1746 में बने ‘कालिदास हजारा’ का जहाँ अधिक उपयोग कवियों की जीवनी तथा कविता का विवरण देते समय सेंगर ने किया है वहाँ ‘आनन्दघन दिल्ली वाले’ के बारे में नहीं लिखा है कि ‘हजारा’ में इनकी कविता है। इस अनुमान से सम्भवतः पं० रामचन्द्र शुक्ल तथा वियोगी हरि ने घनानन्द का जन्म संवत् 1746 के आस-पास माना है।”
घनानन्द के जीवन-वृत्त सम्बन्धित जो वृत्तान्त उल्लेख किए गए हैं उनमें एक वृत्तांत का उल्लेख अधिक अपेक्षित लग रहा है। वह यह कि श्री शम्भुप्रसाद बहुगुना रीवां नरेश रघुनाथसिंह का कहना है, उनके अनुसार घनानन्द की मृत्यु न नादिरशाह के आक्रमण और न अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण से हुई थी। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि- “जिस समय औरंगजेब अपने भाई दारा से युद्ध कर रहा था, उस समय मथुरा निवासियों ने उसका अपमान किया है जैसा कि रघुनाथसिंह ने अपनी कविता में लिखा है और उसी आक्रमण का बदला औरंगजेब ने अपने शासनकाल में मथुरा पर आक्रमण करके तथा वहाँ के मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट करके किया है।” बहुगुना जी ने रीवा नरेश रघुनाथसिंह द्वारा वर्णित कथा को केवल अनुमान के आधार पर ही औरंगजेब या उसके शासक मुहम्मदशाह से जोड़कर घनानन्द की मृत्यु का समय 1660 माना है। इस विषय को अनेक विद्वान प्रामाणिक और सत्य नहीं मानते हैं।
कविवर घनानन्द के जन्म और मृत्यु के विषय में विद्वानों में लगभग मतभेद रहा है। इसका मुख्य कारण सटीक और अपेक्षित प्रमाणों का अभाव। दूसरा यह कि प्राप्त और प्रस्तुत किए गए तथ्य प्रमाणों का अनुमान की बुनियाद पर पक्के और प्रौढ़ नहीं सिद्ध होना। इस प्रकार से किसी एक मत-प्रमाण या अनुमान को पूर्णतः सत्य और अत्युपयुक्त कह पाना कठिन और अनुचित ही लगता है।
कविवर घनानन्द की रचनाएँ
रचनाएँ- जिस प्रकार घनानन्द के जन्म, जीवन और मृत्यु के विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं वैसे ही उनकी रचनाओं के विषय में भी उनके मत एक नहीं हैं। समय-समय पर प्रकाशित और उल्लेखित इनकी रचनाओं के विविध क्रम-स्वरूप परस्पर भिन्न दिखाई देते हैं, कुछ उल्लेखनीय विवरण इस प्रकार हैं-
काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने सं० 2000 तक की खोज में अग्रलिखित ग्रंथों के हस्तलेख उपलब्ध किये थे-
(1) घनानन्द कवित्त- (00-79), (2) आनन्दघन के कवित्त- (6-125, 26-12 ए), (3) कवित्त- (29-116), (4) स्फुट कवित्त- (32-7 सी), (5) आनन्दघन जू के कवित्त- (41-10 ख), (6) सुजान हित- (12-4 बी), (7) सुजान हित-प्रबन्ध (29-116 बी), (8) वियोग-वेलि-(17-8 बी, 29-116 बी), (9) इश्कलता – (12-49, 32-7 ए), (10) कृपाकन्द निबन्ध – (2-66), (11) जमुना जस- (41-10 क), (12) आनन्दघन जू की पदावली – (26-11 बी), (13) प्रीति पावस- (17-8 ए, 29-116 ए). (14) सुजान विनोद-(23-14 बी), (15) कवित्त संग्रह – (32-7 बी), (16) रसकेलि वल्ली- (20-79), (17) वृन्दावन सत- (22-7 ड़ी)।
श्री शम्भुप्रसाद बहुगुना ने अपनी पुस्तक ‘घन-आनन्द’ में घनानन्द कवि द्वारा लिखित निम्नलिखित पुस्तकें मानी हैं-
1. सुजान सागर, घनानन्द कवित्त, रस केलि वल्ली, सुजान हित। 2. श्री कृपाकन्द निबन्ध । 3. इश्कलता। 4. सुजान-राग-माला । 5. प्रीति-पावस। 6. वियोग बेली। 7. नेहसागर। 8. विरह लीला। 9. प्रेम पत्रिका 10. बानी। 11. छतरपुर का भारी ग्रंथ जिसका उल्लेख मिश्रबन्धुओं ने किया है। 12. गेय पद ।
जिन ग्रन्थों को पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने प्रामाणिक मानकर ‘घन आनन्द ग्रंथावली’ के रूप में प्रकाशित किया है उनकी नामावली इस प्रकार है-
(1) सुजान हित (2) कृपाकन्द (3) वियोग बेलि (4) इश्कलता (5) यमुना यश (6) प्रीति पावस (7) प्रेम पत्रिका (8) प्रेम सरोवर (9) ब्रज विलस (10) सरस वसन्त (11) अनुभव चन्द्रिका (12) रंग बधाई (13) प्रेम पद्धति (14) वृषभानुपुर सुषमा वर्णन (15) गोकुल गीत (16) नाम माधुरी (17) गिरि पूजन (18) विचार सार (19) दानघटा (20) भावना प्रकाश (21) कृष्णा कौमुदी (22) धाम चमत्कार (23) प्रिया प्रसाद ( 24 ) वृन्दावन मुद्रा ( 25 ) व्रज स्वरूप (26) गोकुल चरित्र (27) प्रेम पहेली (28) रसना यश (29) गोकुल विनोद (30) ब्रज प्रसाद (31) मुरलिका मोद (32) मनोरथ मंजरी (33) ब्रज व्यवहार (34) गिरि गाथा (35) पदावली (36) प्रकीर्णक (37) छन्दाष्टक (38) त्रिभंगी (39) परमहंस वंशावली ।
कविवर घनानन्द के प्रायः सभी ग्रन्थ प्राप्त हो चुके हैं। केवल एक फारसी मसनवी का पता जो ‘बिहार- उड़ीसा’ रिसर्च जनरल के आधार पर है, अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। इस प्रकार से कविवर घनानन्द के ग्रन्थ अब अटकलों और सम्भावित तथ्यों को पार करके स्पष्ट और विश्वस्त रूप से साहित्य प्रकाश में आ चुके हैं। इन ग्रंथों को देखने से इनके विविधता का पूरा ज्ञान हो जाता है। इन ग्रन्थों के अलग-अलग रूप आकार विषयों की अनेकरूपता को प्रकट करने वाले हैं।
स्वभाव- कविवर घनानन्द का स्वभाव लौकिक और अलौकिक दोनों ही पक्षों-तत्वों से प्रभावित और परिचालित स्वभाव था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनकी प्रवृत्ति के विषय में लिखा है-
“यद्यपि अपने पिछले जीवन में घनानन्द विरक्त भाव के रूप में वृन्दावन जा रहे थे पर इनकी अधिकांश कविता भक्ति-काव्य की कोटि में नहीं आएँगी, शृंगार की ही कही जाएँगी। लौकिक प्रेम की दीक्षा पाकर ही ये पीछे भगवलोम में लीन हुए।” घनानन्द के विषय में यह बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि वे रीतिकालीन स्वच्छन्द काव्यधारा के आत्मानुभूतिमयी कविता के उत्कृष्ट कवि थे। उनके अनुभव निजात्मक बोध और आत्मपरक हैं। इस प्रकार की स्वाभाविक विशेषता रीतिमुक्त काव्यधारा के दूसरे अन्य कवियों में बहुत कम दिखाई देती हैं।
प्रेम के पीर के अमर गायक- घनानन्द प्रेम के पीर के अमर गायक हैं। उनके प्रेम की पीड़ा लौकिक और अलौकिक दोनों ही हैं। उनका प्रेम सांसारिक रूप में उदित होकर असांसारिक बन गया है। सुजान के प्रति उत्पन्न हुआ प्रेम सांसारिक है, लेकिन सुजान के द्वारा कवि को दी गई फटकार और उससे उत्पन्न हुआ प्रेमोन्माद असांसारिकता की ओर मुड़ गया है। यह प्रेम कृष्ण-भक्ति भावना की तरह हो गया। इस प्रेम को भक्ति की शुद्ध और परिपक्व भावधारा कहा जा सकता है। इसे उन्होंने प्रेम का महासागरीय स्वरूप देते हुए राधा-कृष्ण को इस प्रेम धारा में अवगाहन करते हुए चित्रित किया है-
“प्रेम को महोदधि अपार हेरि कै विचार,
बापुरो हहरि बार ही ते फिरि आयो है।
ताको कोऊ तरक तरंग संग छुट्यों, कन,
पूरि लोक लोकनि उपडि उफनायो है ।।
सोइ घन आनन्द सुजान लागि हेत होत,
ऐसे मधि मन पै सरूप ठहराया है।
ताहि एक रस है। विवस अवगाहै दोऊ,
नेही हरि-राधा जिन्हें हेरि सरसायो हैं ।”
घनानन्द का यह प्रेम अत्यन्त सीधा है। उसमें कोई खोट नहीं है। कोई झिझक-कपट नहीं है। उसे केवल यही टीस और कसक है कि मन तो लेकर छटांक भी नहीं प्रेम मिला तो फिर कैसे इस प्रेम-व्यापार का आगे क्या होगा-
“अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नेकु सयानय बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलै तजि आपनपौ, झिझकै कपटी जो निसांक नहीं ।।
घनआनन्द प्यारे सुजान सुनौ, इत एक ते दूसरो आँक नहीं ।
तुम कौन-सी पाटी पढ़े हौ लला, मन लेतु पै देहुँ छटाँक नहीं ।।”
घनानन्द की काव्यगत विशेषताएँ
घनानन्द का काव्य-साहित्य भावपक्षीय और कलापक्षीय अद्भुत विशेषताओं से लदा हुआ है। उसमें चमत्कार, सौन्दर्य, आकर्षण और अद्भुत प्रभाव हैं। आपकी काव्यों में न केवल भावों का अथाह प्रवाह है। अपितु भाषा, अलंकार और अर्थ की ऊंची-ऊंची लहरें भी हैं। आपकी काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
प्रेम-दशा की व्यंजना- घनानन्द के प्रेमानुभाव अतिविशिष्ट है। इनके प्रेम-दशा की व्यंजना क्षेत्र पर आचार्य शुक्ल ने मत व्यक्त किया है-
“प्रेम-दशा की व्यंजना ही इनका अपना क्षेत्र है।” प्रेम की यह अन्तर्दशा का उद्घाटन जैसा इनमें है, वैसा हिन्दी के अन्य शृंगारी कवि में नहीं। इस दशा का पहला स्वरूप है हृदय या प्रेम का आधिपत्य और बुद्धि का अधीन पद, जैसा कि घनानन्द ने कहा है-
” रीझ सुजान सची पटरानी, बची बुधि बापुरो है करि दासी || “
कविवर घनानन्द के प्रेम-दशा की व्यंजना का दूसरा स्वरूप क्या है ? इसे स्पष्ट तो नहीं किया है, लेकिन उन्होंने इस सम्बन्ध में केवल इतना अवश्य लिखा है- “प्रेमियों की मनोवृत्ति इस प्रकार की होती है कि वे प्रिय की कोई साधारण चेष्टा भी देखकर उसका अपनी ओर झुकाव मान लिया करते हैं और फूले फिरते हैं। इसका कैसा सुन्दर आभास कवि ने नायिका के इस वचन द्वारा दिया है, जो मन को संशोधन करके कहा गया है-
” रुचि के वे राजा आन प्यारे है आनन्द घन ।
होत कहा हेरे, रंक। मानि कीनो मेल सों।”
संयोग वर्णन – प्रेम का यह स्वरूप नायक और नायक के रूप में और ईश्वर और भक्त के रूप में सुखद-दुखद अवस्थाओं को लेकर चला है। संयोग-वर्णन में घनानन्द ने नखशिख वर्णन-पद्धति का पूरा उपयोग किया है। यह नखशिख वर्णन बिहारी की तरह लोक मर्यादा को कुचलने वाला नहीं है, अपितु इसमें शालीनता, शिष्टता, औदार्य और गंभीरता है, कहीं कुछ भी उच्छृंखलता अथवा अतिशयोक्तिपूर्ण वक्तृता की झलक नहीं है। इस वर्णन क्षेत्र में घनानन्द के कवित्त सूक्ष्म सौन्दर्य-भाव से खिल उठे हैं। उनकी प्रियसी सुजान के इस रूप सौन्दर्य की एक झाँकी देखिए-
“झलकै अति सुन्दर आनन गौर, छकै दृग, राजति काननि छवै ।
हँसि बोलन में छवि-फूलनि की वरपा उर ऊपर जाति है ह्वै ।।
लट लोल कपोल कलोल करे, कलकंठ बनी जल जावलि द्वै।
अंग-अंग तरंग उठे, दुति कीपरि है, मनो रूप अवै घर च्वै ॥ “
वियोग वर्णन- घनानन्द का वियोग-वर्णन भी किसी प्रकार से अतिशयपूर्ण या अविश्वसनीय न होकर अति सहज, विश्वसनीय और यथार्थपूर्ण है। कवि का यह वर्णन अतिभावूपर्ण होने पर भी किसी प्रकार से अस्वाभाविक नहीं है। अपने प्रिय के प्रति न्यौछावर की भावना प्रयास को कवि ने मछली और जल के परस्पर प्रेम लगाव से कहीं अधिक श्रेष्ठतर बताते हुए अपनी वियोग- दशा का उल्लेख इस प्रकार कवि ने किया है-
“हीन भए जल मीन अधीन कहा कछु भी अकुलानि समानै।
नीर सनेही को लाय कलंक निरास है कायर त्यागत प्रानै ।।
प्रीति की रीति स क्यों समझे जड़ मीत के पानि परै को प्रमानै ।
यामन की जु दसा घनानन्द जीव की जीवनि जान ही जाने ।।”
वियोग-पोड़ा की सच्चाई की अभिव्यक्ति कवि के कवित्तों से अधिक स्पष्ट और हृदयस्पर्शी रूप में हुई है। एक उदाहरण देखिए-
“जान सजीवन- प्रान लखै, बिन आतुर आँखिन आवत आँधे ।
लोग बबाई सबै निरदै अति बान से बैन अयान सो साधे ॥
को समझे मन की घन आनन्द औरई वेदन बौराई नाधे।
पीर-भर्यो जिय धीर धेरै-धेरै नहिं कैसो रहे जल जाल के बाँधे ।।”
कहा जा सकता है कि घनानन्द का संयोग और वियोग पक्ष अधिक सुबोध और मार्मिक उक्तियों से अलंकृत है।
भाषा-शैली- कविवर घनानन्द की भाषा ब्रजभाषा की वह आकर्षणभरी भाषा है जिसने घनानन्द को उनके जीवन में ही उन्हें लब्ध प्रतिष्ठित कर दिया था। इस सम्बन्ध में उनके समकालीन कवि बृजनाथ की एक सवैया को उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा-
“नेही महाब्रजभाषा- प्रवीन और सुन्दरतानि के भेद को जानै ।
जोग-वियोग की रीति में कोविद, भावना भेद स्वरूप को ठानै ।
चाह के रंग में भी ज्यो हियो, बिछुरै मिले प्रीतम सातिन मानै।
भाषा- प्रवीन सुछन्द सदा रहै, सो घन जू के कवित्त बखानै ।।”
इस भाषा की प्रवीणता ही घनानन्द की काव्य-शैली की सर्वोच्च विशेषता है। इसी विशेषता के कारण कवि के भाव साधारण होकर भी असाधारण हो गई है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भाषा के इस असाधारण प्रयोग वैचित्र्य की संज्ञा देते हुए कुछ उदाहरण दिए हैं, जो इस प्रकार उल्लेखनीय हैं-
(क) अरसानि गही वह बानि कछु लरसानि सो आनि निहोरत है।
(ख) ह्वै है सोऊ घरो भाग उघरो, अनन्दघन सुरत बरसि, लाल । देखिहौ हरी हमें। (खुले भाग्यवाली घड़ी’ में विशेषण विपर्यय)
(ग) उघरो जग, छाप रहे घन आनन्द, चातक ज्यौं ताकिए अब तौ । (उघरो जग-संसार जो चारों ओर घेरे था, वह दृष्टि से हट गया)
(घ) कहिए सु कहा अब मौन भली, नहिं खोजत जो हमें पावते जू। (हमें हमारा दृश्य)
साहित्यिक महत्त्व – कविवर घनानन्द का रीतिकालीन कविता की रीतिमुक्त या स्वच्छन्द काव्यधारा में शिरोमणि स्थान है। यह महत्व उनके द्वारा चित्रित प्रेम के दोनों पक्षों लौकिक और अलौकिक सम्बन्धित भावों की उन्मुक्तता और विश्वसनीयता के साथ-साथ प्रभावमयता के फलस्वरूप है। उनकी रचना उनकी स्वयं सवेद्य अनुमति की वह अभिव्यक्ति है, जिससे उसमें कृत्रिमता का कहीं लेश नहीं है-
“लोग हैं लागि कवित्त बनावत मोहि तो मेरे कवित्त बनावत ।”
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